भारत, पूंजीवाद, राष्ट्रवाद, साहित्य और राजनीति पर अरुंधति रॉय से सात सवाल

किसी नदी को आप विषमुक्‍त कैसे करते हैं? मेरे खयाल से, विष खुद-ब-खुद उसमें से निकल जाता है। बस, बहती हुई धारा अपने आप ऐसा कर देती है। हमें उस धारा का हिस्सा बने रहना होगा।

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बढ़ता हुआ एकाधिकार लोकतांत्रिक सुधार नहीं, सत्ता के वर्चस्व को स्थायी बनाने का नुस्खा है!

वी डेम की रिपोर्ट में भारत पिछले वर्ष की तुलना में सात स्थानों की गिरावट के साथ कुल 180 देशों में 97वें स्थान पर है। ‘’ऑटोक्रेटाइजेशन टर्न्स वायरल’’ शीर्षक रिपोर्ट में यह संस्थान भारत को थर्ड वेव ऑफ ऑटोक्रेटाइजेशन के अंतर्गत आने वाले देशों में शामिल करता है।

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दक्षिणावर्त: सहस्रबुद्धि विमर्शों की ‘टोकरी में अनंत’ पाठों से बनता यथार्थ

क्‍या वाकई यह पहली सरकार है जिसने महिलाओं (कम से कम हिंदी साहित्‍य में) का सही में सम्मान किया है? या फिर ऐसा है कि बीते सात दशक के दौरान कृष्‍णा सोबती से लेकर चित्रा मुद्गल वाया अलका सरावगी, मृदुला गर्ग और नासिरा शर्मा (सभी उपन्‍यासकार) हिंदी की कोई कवियत्री अकादमी पुरस्‍कार के लायक हुई ही नहीं?

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हिन्दुत्व की परिभाषा: ‘दिनमान’ में 8 दिसम्बर, 1968 को छपा कवि-संपादक अज्ञेय का संपादकीय

संघ का ऐब यह नहीं है कि वह ‘हिंदू’ है; ऐब यह है कि वह हिंदुत्व को संकीर्ण और द्वेषमूलक रूप देकर उसका अहित करता है, उसके हज़ारों वर्ष के अर्जन को स्खलित करता है, सार्वभौम सत्यों को तोड़-मरोड़ कर देशज या प्रदेशज रूप देना चाहता है यानी झूठा कर देना चाहता है.

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धर्म और राष्ट्रवाद आधारित समूह ‘अन्य’ के प्रति हमारी संवेदना को क्यों हर लेते हैं? कैसे बचें?

सामान्यतः एक समूह के लोग अपनी आत्मछवि अच्छी करने के लिए अपने समूह से बाहर के लोगों के नकारात्मक पहलू ढूंढते हैं। यही सोच हमें दूसरों की तकलीफों को पहचानने और उनसे सहानभूति करने से रोकती है।

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धार्मिक आधार पर राजनीति करना सुभाष बोस की नज़र में ‘राष्ट्र के साथ द्रोह’ था!

सुभाषचंद्र बोस ने काँग्रेस के अध्यक्ष बनने पर इस ख़तरे को महसूस किया और 16 दिसंबर 1938 को एक प्रस्ताव पारित करके काँग्रेस के संविधान में संशोधन किया गया और हिंदू महासभा तथा मुस्लिम लीग के सदस्यों को काँग्रेस की निर्वाचित समितियों में चुने जाने पर रोक लगा दी गई।

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जिस राष्ट्र में अपने मन-विचार से काम करने की आजादी न हो, उसे नष्ट हो जाना चाहिए: स्वामी विवेकानंद

पिछले कुछ दशकों में खासतौर से 90 के बाद चली धार्मिक कट्टरता की हवा ने विवेकानंद जैसे क्रांतिकारी, संन्यासी और मानवतावादी दार्शनिक को हिंदू पहचान के साथ जड़बद्ध कर दिया. और ध्यान रहे ये सब कुछ सायास, एक परियोजना के तहत किया गया था ताकि हिंदुत्व के खोखले दावे को अमली जामा पहनाने के लिए एक नायक की तलाश पूरी की जा सके.

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PUBG, FAU-G और मोदीजी: आभासी रणक्षेत्र में लड़ी जा रही असली लड़ाइयों की अंतर्कथा

भारत के लिबरल-वामपंथी हलकों में ऑनलाइन मीडिया के इस्तेमाल को लेकर हिचक और कभी-कभी हिकारत तक देखी जाती है लेकिन दक्षिणपंथ ने आधुनिकता और वैज्ञानिक चेतना के विरोध के बावजूद अपने हितों के लिए तकनीक का भरपूर इस्तेमाल किया है. मोदी ने आह्वान किया है – ‘लेट द गेम्स बिगिन!’ क्या दूसरा पक्ष इसके लिए तैयार है?

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ऑक्सीटॉसिन की अतृप्त प्यास और उफनते राष्ट्रवाद का वैश्विक जज़्बात

दुनिया भर के नेता अपनी जनता को विश्वास दिलाने में लगे हैं कि वे दुश्मन की सारी जमीन जीत लाएंगे और अपनी एक इंच जमीन भी नहीं देंगे। जनता जानती है कि जब युद्ध होते हैं, तो शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई, सड़क, पानी के लिए जो पैसा लगना चाहिए था वह युद्ध में खर्च होता है, मगर जनता दिल के हाथों मजबूर है।

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आदर्शों का लोप: राष्‍ट्रीय आंदोलन के दौरान भारत के भविष्‍य की परिकल्‍पना: संदर्भ नेहरू और गांधी

एक औद्योगीकृत देश के रूप में भारत के संवैधानिक उभार व विकास की अंग्रणी राष्‍ट्रवादियों द्वारा सराहना को गांधीजी पूर्णत: खारिज करते थे। उनका उद्घोष था कि ”बिना अंग्रेज़ों के अंग्रेज़ी शासन” की कोई जगह ही नहीं थी।

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