‘पठान’ को मिल रहा समर्थन उसे मिले विरोध का विरोध है?

शाहरुख और दीपिका उस पुराने भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं जहां कलाकारों को उनके हुनर से पहचाने जाने की रवायत रही है न कि उनकी जाति, धर्म या विचारधारा से। ऐसे में महज कुछ सेकेंड की एक क्लिप से बिना पूरी फ़िल्म देखे जिस कदर व्यापक विरोध हुआ और ऐसे असंवैधानिक विरोध होने दिये गए उससे यह स्पष्ट होता है कि इस आलोकतांत्रिक विरोध के पीछे केवल कुछ संगठन ही नहीं थे बल्कि नए भारत की परियोजना में शामिल पूरा तंत्र शामिल था।

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बिहार की घुटी हुई चीख वाया ‘कंट्री माफिया’ और ‘खाकी’

बिहार के लिए खुश होने लायक कुछ भी नहीं है, दोनों ही सीरीज में। दोनों ही में बिहार की ‘अंडरबेली’ को दिखाया गया है। बिहारी जातिवाद, अराजकता, अर्द्ध-सभ्यता, हिंसा और बात-बेबात का अहंकार, सब कुछ इन दोनों में दिखाया गया है, कुछ भी छोड़ा नहीं गया है।

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मट्टो की सायकिलः विकास की राजनीति और जाति के दंश का सिनेमाई आईना

यह कहानी सिर्फ़ मट्टो की नहीं है। यह उस दर्ज़े के लोगों की कहानी है जो हिंदुस्तान के निर्माण में अपना सब कुछ लगा देते हैं। जिनके दम पर इंडिया फ़र्राटे भरता है, पर मट्टो जैसे लोग रेंगने को मजबूर हैं। आगे बढ़ने वाले देश में पीछे छूट जाने वाले लोगों की कहानी, जो सिर्फ़ आर्थिक वजह से पीछे नहीं छूटते बल्कि अपनी जाति की वजह धकेल दिए जाते हैं।

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बात बोलेगी: आदिम शिकारियों के कानूनी जंगल में ‘मादा’ जद्दोजहद के दो चेहरे

मूल कथा भले ही एक शेरनी (टी-12) के इर्द-गिर्द बुनी गयी है, लेकिन यह दो मादाओं (स्त्रीलिंग) की बराबर जद्दोजहद भी है जिसमें उन्हें ही खेत होना है। एक महिला के लिए हमारा समाज, हमारी राजनीति, हमारी नौकरशाही ठीक वही रवैया अपनाती है जो एक शेरनी के लिए शिकारी अपनाता है, यह बात बिना किसी उपदेश के इस फिल्म में सतह पर आ जाती है।

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शेरनी: जंगल से निकाल कर जानवरों को म्यूज़ियम में कैद कर दिए जाने की कहानी

फ़िल्म की कहानी और इसके बीच स्थानीय राजनीति, अफ़सरशाही, प्रशासनिक नाकामी, पर्यावरण का दोहन और अवैध शिकार जैसे खलनायक शेरनी को बचाने का प्रयास करती फ़िल्म की ‘शेरनी’ विद्या बालन को बार-बार रोकते हैं और अंत में इसमें सफल भी हो जाते हैं।

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