बहसतलब: साध्य-साधन की शुचिता और संघ का बेमेल दर्शन

पिछले एक दशक में संघ ने भाजपा का बेताल बनकर न सिर्फ राजकीय-प्रशासनिक तंत्र पर अपना शिकंजा कसा है बल्कि उसे अपने आनुवंशिक गुणों से विषाक्त भी किया है। आजकल घर-घर द्वारे-द्वारे, हर चौबारे, चौकी-थाना और सचिवालय तक वैमनस्य, हिंसा, भ्रष्टाचार और गैर-जवाबदेही का जो नंगा-नाच चल रहा है, वह इसी दार्शनिक दिशा का दुष्परिणाम प्रतीत होता है।

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…और आप कहते हैं कि गांधी को कोई जानता भी नहीं था!

स्‍लावोज जिजेक अपनी पुस्तक ‘वायलेंस’ में एक कहानी के माध्यम से समझाते हैं कि जब तानाशाह अपनी पर उतर जाए तो उसे मूल समेत उखाड़ फेंकने का एक ही रास्ता है और वह है गांधी का असहयोग आंदोलन। गांधी ने ही सिखाया था कि जब कभी सत्ता नशे में चूर हो तो असहयोग करो, हेकड़ी निकल जाएगी।

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‘गांधी, विनोबा, जेपी की विरासत को हर हाल में बचाएंगे’: अगस्त क्रांति दिवस पर बनारस में संकल्प

मणिपुर की घटना पर सम्मेलन की तरफ से निंदा प्रस्ताव भी पारित किया गया। सर्वोदय समाज व प्रकाशन के पूर्व संयोजक आदित्य पटनायक ने भी अपने विचार रखे और कहा कि एकजुटता में ही ताकत है। हमें देश भर में गांधी विचार और गांधियन संस्थाओं पर हो रहे हमलों का विरोध करना चाहिए।

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शिक्षा में तत्कालीन चुनौतियां और महात्मा गांधी

देश में व्याप्त तत्कालीन जितनी भी समस्याएं हैं, उनके निवारण हेतु महात्मा गाँधी द्वारा 1937 (वर्धा शिक्षा योजना) में प्रस्तावित शिक्षा नीति जिसे ‘बेसिक शिक्षा’ के नाम से जाना जाता है, बहुत ही उपयुक्त है।

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भारत जोड़ो यात्रा: एक महीना पूरा होने पर एक यात्री के नोट्स

राहुल गांधी मंचों से और व्यक्तिगत बातचीत में यही संदेश दे रहे हैं कि लोगों को निडर बनना होगा। उन्हें गांधी के रास्ते पर लौटना होगा। आप देखिएगा, भविष्य में हमारे पड़ोस और दूसरे देशों में निरंकुश सरकारों के खिलाफ़ लोग इस यात्रा से प्रेरित होकर ऐसी ही पदयात्राओं पर निकलेंगे।

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आंदोलन, जन आंदोलन, हिंसा, अहिंसा: कुछ बातें

भारतीय राजनीति पर निहायत पिछड़ी चेतना की काली छाया बढ़ती चली गयी जो आज आरएसएस-भाजपा के भारतीय फासीवादी संस्करण के रूप में हमारे सामने मुंह बाये खड़ी है और इसका मुकाबला कैसे हो इस पर घोर असमंजस है।

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डॉ. आंबेडकर का सामाजिक सुधार और आज का परिदृश्य

आंबेडकर सामाजिक असमानता के ख़िलाफ़ हमेशा मुखर रहते थे। जहां कहीं भी उनको अवसर मिलता था वह इस मुद्दे को उठाते थे। संविधान सभा में लोकतान्त्रिक व्यवस्था को लेकर आंबेडकर का मानना था कि राजनीतिक लोकतंत्र से पहले सामाजिक लोकतंत्र की आवश्यकता है।

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गाँधी की हत्या का सिलसिला जारी है…

गाँधीजी के प्रति नफ़रत या घृणा कोई नयी परिघटना नहीं है लेकिन जो नफरत पहले कहीं थोड़ी दबी हुई थी अब वो खुलकर बाहर आ रही है क्योंकि इन नफरती ताकतों के लिए मीडिया अनुकूल वातावरण मुहैया करा रहा है।

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‘न्यू-इंडिया’ का तिलिस्म और गाँधी का ग्राम-स्वराज

राष्ट्र निर्माण के लिए गाँधी ने ग्राम केन्द्रित नीतियों को प्राथमिकताओं देने की बात की थी, लेकिन अतीत में झांकें तो हम देखते हैं उनके आर्थिक-विचारों को सरकारी नीतियों में उतारने की पहल पहले भी ठीक से नहीं की गयी। नेहरू और आंबेडकर ने भी गाँधी के आर्थिक विचारों को पिछड़ा हुआ माना और आजाद भारत के लिए नगर केन्द्रित औद्योगिक विकास का मॉडल तैयार किया। नेहरू ने गाँव को पिछड़े और अंधविश्वास में मगन एक जनसमुदाय के रूप में देखा तो वहीं आंबेडकर ने इसे जातीय दुष्‍चक्र में धंसी दमनकारी इकाई से अधिक कुछ भी नहीं माना।

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पुस्तक अंश: द्विराष्ट्र के सिद्धांत के जनक कौन- जिन्ना या सावरकर?

जब ऐतिहासिक तथ्यों का अध्ययन किया जाता है तब हमें यह ज्ञात होता है कि श्री सावरकर किसी विचारधारा विशेष के जनक अवश्य हो सकते हैं किंतु भारतीय स्वाधीनता संग्राम के किसी उज्ज्वल एवं निर्विवाद सितारे के रूप में उन्हें प्रस्तुत करने के लिए कल्पना, अर्धसत्यों तथा असत्यों का कोई ऐसा कॉकटेल ही बनाया जा सकता है जो नशीला भी होगा और नुकसानदेह भी।

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