ऑक्सीटॉसिन की अतृप्त प्यास और उफनते राष्ट्रवाद का वैश्विक जज़्बात


नब्बे के दशक में यह माना जाने लगा था कि ‘नेशन स्टेट’ (राष्‍ट्र राज्‍य) जल्द ही खत्म हो जाएंगे। इंटरनेट के ज़रिये भेजी सूचनाओं को जमीनी सरहदें नहीं रोक पाएंगी और दुनिया के ग्लोब पर खिंची काल्पनिक लकीरें बेमानी हो जाएंगी। आर्थिक उदारवाद दुनिया के तमाम मुल्कों को व्यापार और आने जाने के लिए जोड़ देगा। दुनिया ग्लोबल विलेज बन जाएगी।

आज हम देखते हैं क‍ि इसका उल्टा हो गया। इन 30 वर्षों में ‘नेशन-स्टेट’ का विचार न सिर्फ ताकतवर हुआ है बल्कि सारी दुनिया में राष्ट्रवाद को लेकर जज्बात का सैलाब उमड़ा हुआ है। दुनिया का सबसे लिबरल मुल्क भी अब ‘अमेरिका फर्स्ट’ का नारा लगाता है।

विद्वान हैरान हैं, ऐसा कैसे हो गया?

इसमें कोई दो राय नहीं कि नेशन स्टेट ने मानवता की बहुत सेवा की है। पहला नेशन स्टेट (सम्भवतः फ्रांस, 1792 में) बनने के पहले दुनिया मे बहुत सारी रियासतें या सिटी स्टेट हुआ करते थे जहां राजशाही या धर्मसत्ता का राज था। आकार में आज की तहसील से भी छोटे इन सिटी स्टेट्स रहने वाले लोग इस छोटे से इलाके को अपनी मातृभूमि कहते थे और उसके लिए लड़ते  और शहीद होते थे। इटली में जो 1861 में नेशन स्टेट बना, वहां कई सिटी स्टेट थे जो आपस में लगातार लड़ते थे।

नेशन स्टेट के आने के बाद जनता को सामंतों के शोषण से मुक्ति मिली और छोटी रियासतों में लगातार चलने वाले झगड़े और खून खराबे से भी छुटकारा भी मिला। मुश्किल कम हुई,  लेकिन खत्म नहीं हुई। आधुनिक नेशन स्टेट भी उसी तरह जमीन के टुकड़ों के लिए लड़ रहे हैं, भले ही वे बर्फीले, बंजर या रेगिस्तान क्यों न हों।

ज़मीन के लिए लड़ना एक आदिम प्रवृत्ति है। जब सभ्यता कृषि आधारित थी तो जमीन बेशकीमती थी। अब दुनिया औद्योगिक सभ्यता से गुजरते हुए नॉलेज सोसायटी बन गयी मगर मुश्किल अब भी वही है। दुनिया के देश चांद तारे फतह कर रहे हैं, मगर जमीन से मोह वैसा ही है। इस मुश्किल को नेशन स्टेट की अस्पष्ट सीमाएं जानलेवा बना देती हैं। दुनिया के ज्यादातर मुल्क जब नेशन स्टेट बने तब तकनीक इतनी उन्नत नहीं थी कि सैटेलाइट से नक्शे बनाये जा सकते। बर्फीले, बंजरों, घने जंगलों और रेगिस्तानों में इंजीनियरों ने काफी काम अधूरा छोड़ दिया। इन इलाकों न कोई आबादी थी न ही वे खेती या किसी और काम के थे। इसलिए बहुत सी सरहदें जमीन पर नहीं खींची जा सकीं। यही उलझी हुई लकीरें तमाम मुल्कों के बीच झगड़े की जड़ हैं।

फ़लस्तीन और इस्रायल के बीच जमीन की लड़ाई का इतिहास बदलते नक्शे में दर्ज है

यह इंजीनियरों और नक्शा-नवीसों का अधूरा काम है जिसकी कीमत सैनिकों को आये दिन अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है। चाहे ताइवान-कजाकिस्तान का सीमा विवाद हो या मिस्र और सूडान का, अस्पष्ट सरहदें दुनिया की मुश्किल बनी हुई हैं। ज्यादातर मुल्क औपनिवेशीकरण (कॉलोनाइजेशन) के बाद नेशन स्टेट बने इसलिए उनके शासकों ने जो नक्शे बनाये, वे मुल्क अब तक उसी को अपना देश मानते हैं। साम्राज्यवादी ताकतें सिर्फ वहीं तक नक्शे बनाती थी जहां उन्हें व्यापारिक फायदा होता था, इसलिए दो देशों के बीच के बंजर इलाकों के नक्शे बने ही नहीं। सरहद की उलझनों को थोड़ी ज़मीन ले दे कर सुलझाया जा सकता है, मगर फादरलैंड को लेकर जो आवेश दुनिया में है, उससे दुनिया का हर नेता डरता है। उसे पता है कि किसी भी किस्म की व्यावहारिकता या जमीन की थोड़ी बहुत लेन-देन आत्मघाती साबित होगी। इसीलिए तमाम देशों के सरहद के झगड़ों को अनसुलझा छोड़ दिया जाता है।

दुनिया भर के नेता अपनी जनता को विश्वास दिलाने में लगे हैं कि वे दुश्मन की सारी जमीन जीत लाएंगे और अपनी एक इंच जमीन भी नहीं देंगे। जनता जानती है कि जब युद्ध होते हैं, तो शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई, सड़क, पानी के लिए जो पैसा लगना चाहिए था वह युद्ध में खर्च होता है, मगर जनता दिल के हाथों मजबूर है।

इंसानी स्वभाव का अध्ययन करने वालों के लिए यह एक पहेली है कि एक इंसान के रूप में हमारे जो जीवन मूल्य हैं, राष्ट्र के रूप में उससे बिल्कुल उलट क्यों हैं? एक व्यक्ति के लिए हिंसा को बुरा माना गया है,  मगर जब एक राष्ट्र हिंसा करे तो वह गौरव का विषय है। ऐसा ही मामला जमाखोरी का है। व्यक्ति के रूप में अकाल के दौरान जमाखोरी करना इंसानियत के खिलाफ माना जाता है मगर हर राष्ट्र अकाल के दौरान अपनी आवश्यकता से अधिक अनाज इकट्ठा करता है, भले ही पड़ोसी राष्ट्र में लोग भूख से मर जाएं।

सवाल यह है कि पिछले 30 वर्षों में ऐसा क्या हुआ है जो राष्ट्र को लेकर लोग इतने भावुक हो गये हैं। कुछ विद्वान मानते हैं कि इसका एक कारण टेक्नोलॉजी है। टेक्नोलॉजी ने हमारी दूसरों पर निर्भरता  कम कर दी है। किसी ईर्ष्यालु प्रेमिका की तरह टेक्नोलॉजी नहीं चाहती कि आप किसी और पर निर्भर रहें या बात करें। पता पूछने के लिए भी नहीं। इस आत्मनिर्भरता की अपनी एक कीमत है। इसकी वजह से कई सामाजिक संस्थाएं जैसे परिवार, पड़ोस, मित्र मंडल खत्म हो रहे हैं। टेक्नोलॉजी ने हमारा जीवन शरीर के लिए तो आसान कर दिया मगर मन की मुश्किलें बढ़ा दीं।

हम इंसान दूसरे इंसानों से कनेक्ट होना चाहते हैं। इंसानों के किसी समूह का हिस्सा बनना चाहते हैं। वह हमें सेंस आफ बिलॉन्गिंग यानी आपसदारी देता है। किसी इंसान को गले लगाने, उसकी मदद करने, उसका प्यार पाने या देने से हमारे दिमाग में एक ‘ऑक्सीटॉसिन’ नाम का हार्मोन पैदा होता है जो खुशी देने वाले हारमोंस में एक प्रमुख हार्मोन है। शहरीकरण और न्यूक्लियर फैमिली ने उनसे इस तरह के मौके छीन लिए हैं जहां हम लोगों के समूह से जुड़ सकें। ऑक्सीटॉसिन की यह अतृप्त प्यास हमें किसी बड़े समूह से जुड़ने के लिए मजबूर करती है, भले ही वह ‘वर्चुअल’ क्यों न हो। इसीलिए पिछले कुछ साल में राष्ट्र, जाति और धर्म को लेकर दुनिया भर के लोग ज्यादा भावुक हो गये हैं। राष्ट्र के साथ लोग धर्म और जाति की तरफ भी लौट रहे हैं ताकि वे एक सेंस आफ बिलॉन्गिंग पा सकें।

यदि सिर्फ जुड़ने का मामला होता तो कोई बात न थी पर सारी दुनिया के लोग अपने देश को महान कहते हैं और दूसरे को बुरा। इसी महानता का विकराल रूप हमने दूसरे विश्व युद्ध में देखा, जब दुनिया बर्बादी के कगार पर पहुंच गयी थी। यूरोप ने इस बात की गंभीरता को समझा और नेशन स्टेट का विकल्प ढूंढने की दिशा में कुछ समझदारी भरे कदम उठाये। यूरोपियन यूनियन बनाना, एक ही मुद्रा को इस्तेमाल करना और एक दूसरे की सीमाओं में बेरोकटोक आना-जाना कुछ अच्छे कदम थे जो अब तक चल रहे हैं। लोगों का मानना था कि यूरोपियन यूनियन और संयुक्त राष्ट्र जैसे प्रयोग आगे बढ़कर विश्व सरकार जैसा एक रूप ले सकते हैं। जब हर आदमी विश्व का नागरिक हो तब नेशन स्टेट उसी तरह से एक प्रशासनिक इकाई भर रह जाएंगे जैसे एक तहसील, जिला या प्रदेश होता है, जिन्हें लेकर हम जज्बाती नहीं होते। यह एक यूटोपियाई ख्वाब साबित हो रहा है। ज्यादातर देश अब पीछे लौट रहे हैं। विज्ञान और तर्कसम्मत सोच पिछली सीट पर हैं। धर्म और उग्र राष्ट्रवाद दुनिया भर में ड्राइविंग सीट पर है। तुर्की जैसे तरक्कीपसंद मुल्क में सोफिया म्यूज़ियम को फिर से मस्जिद बना देना इसकी हालिया मिसाल है।

इसके बावजूद कुछ ऐसे लोग हैं जो अब भी विश्व सरकार के इस ख्वाब को सच करने की कोशिश कर रहे हैं। वे खुद को विश्व नागरिक कहते हैं और एक वैश्विक पासपोर्ट भी रखते हैं। इस नागरिकता का पासपोर्ट गैरी डेविस नाम के एक अमेरिकी द्वारा चलायी गयी संस्था देती है। गैरी डेविस ने 1948 में  खुद को विश्व नागरिक घोषित किया और अपनी अमेरिकी नागरिकता वापस कर दी। वे जीवन भर खुद को ‘स्टेट-लेस’ यानी राज्‍यविहीन मानते रहे और विश्व पासपोर्ट के आधार पर भारत समेत कई देशों की यात्रा उन्‍होंने की। आज इस पासपोर्ट को कानूनी मान्यता नहीं है पर विचार के रूप में इसका महत्व बेशक है।

उम्मीद कीजिए कि मानवता के पुजारी एक दिन एक ऐसी दुनिया बनाने में कामयाब हों जहां बंजर जमीन के टुकड़े के लिए किसी ज़िंदा इंसान को अपनी जान न गंवानी पड़े। भारत मे रवींद्रनाथ टैगोर ऐसे ही मानवतावाद के पैरोकार रहे हैं। नेशन स्टेट ने मानवता की भले बहुत सेवा की हो पर यह मानवता की राह में सिर्फ एक पड़ाव है, मंजिल नहीं।


संजय वर्मा इंदौर स्थित टिप्पणीकार हैं, कवर तस्वीर स्टूडियो फोक डॉट कॉम से साभार प्रकाशित है


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