यह तुलसीदास का पुनर्पाठ है या आत्महीनता से उपजा कुपाठ?

समस्या यह है कि गंगोत्री से चली गंगा को हम लोग कानपुर, प्रयागराज, पटना इत्यादि तमाम शहरों की भयंकर गंदगी से लैस कर देते हैं और फिर उसी पानी को निकालकर कहते हैं कि देखो जी, गंगा तो गंदी है।

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समस्या को बल्लियों और चादरों से ढंक कर समाधान निकालने की तरकीब

बिहार में ढंकने का ही चलन है। यही काम तब हुआ था, जब प्रकाश-पर्व मना था, गुरु गोविंद सिंह की 300वीं जयंती पर। तब भी सारे पटना के नालों, कूड़ों को बेहद नफीस कालीनों और झाड़-फानूसों के नीचे धकेल दिया गया था। आज भी वही हो रहा है।

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जाति के बाँट-बखरे में पिटते छात्र-किसान और ढाई सौ करोड़ का जेट

ये पूरा मामला वोटों की खेती का है। लालू जानते हैं कि एम-वाय समीकरण को उच्चतम सीमा तक दोहन कर लिया गया है, इसलिए नये तरीके चाहिए वोटों के। नीतीश जानते हैं कि केवल कुर्मियों के वोट से कुछ नहीं होगा। भाजपा जानती है कि केवल सामान्य वर्ग के वोटों से वह बड़ी ताकत नहीं बन सकती है। हरेक बड़े समुदाय और जाति का बांट-बखरा हो चुका है।

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जातिवाद की नींव पर टिके समाज में जातिगत जनगणना का क्या मतलब है

बिहार के एक वरिष्ठ नौकरशाह कहते हैं, ‘बिहार का जातिवाद बिल्कुल ही अलग है। बाकी जगहों पर आप देखेंगे कि क्षेत्रवाद हावी हो जाता है जातिवाद पर। बिहार में हरेक पहचान से अलग और ऊपर जाति हावी है। सबकी पसंद आखिरकार जाति पर ही जाकर टिक जाती है, विनाश का यही मूल कारण है।’

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पावर के प्रति हिकारत और आकर्षण के द्वैत में लटका बिहार

स्वप्न तो उस अब्सोल्यूट पावर का सभी देखते हैं क्योंकि सभी को पता है कि प्रशासन (एडमिनिस्ट्रेशन) में जाने पर आप निरंकुश हो सकते हैं; बिना जिम्मेदारी के भरपूर माल कूट सकते हैं; मजा काट सकते हैं और आपका रुतबा बढ़ सकता है। अंतर्मन में हालांकि, यही ऑब्सेशन घृणा बनकर बैठा हुआ है।

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इतनी आसानी से क्यों आहत हो जाती है ‘बिहारी गरिमा’?

बिहार की नेता-बिरादरी को चूंकि पता है कि जनता अपने मसायल में व्यस्त है, इसलिए उसे फिलहाल कोई चुनौती मिलने वाली नहीं है। यही वजह है उसकी शॉर्ट-साइटेडनेस (छोटी सोच की) और बिहार के बिहार बने रहने की।

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अपनी छवि की गुलामी का ‘बेशरम रंग’ क्यों ढो रहे हैं बॉलीवुड के बूढ़े सितारे?

आपत्ति तो इस पर होनी चाहिए कि जनसंचार के एक इतने जबर्दस्त माध्यम को कचरा परोसने का यंत्र क्‍यों बना दिया गया है। मुकदमा तो इस पर दर्ज होना चाहिए कि करोड़ों फूंक कर भी दर्शकों के सामने इस तरह की चीज क्यों परोसी जा रही है। क्‍या इसका शाहरुख की निजी महत्‍वाकांक्षा से कोई लेना-देना हो सकता है?

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यहां चालीस मौतों पर हंसी-मज़ाक क्यों चल रहा है?

बिहार में किसी भी समस्या पर आप चर्चा करेंगे तो जवाब में बाहुबली विधायक अनंत सिंह का वह बहुचर्चित वीडियो-संवाद सुनने को मिल जाएगा, जिसमें वह पुरुषों के अंग विशेष से शासन की तुलना कर रहे होते हैं। कुल मिलाकर हाल बतर्जे जॉन एलिया हैः हाल ये है कि अपनी हालत पर / गौर करने से बच रहा हूं मैं…

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बिहार की घुटी हुई चीख वाया ‘कंट्री माफिया’ और ‘खाकी’

बिहार के लिए खुश होने लायक कुछ भी नहीं है, दोनों ही सीरीज में। दोनों ही में बिहार की ‘अंडरबेली’ को दिखाया गया है। बिहारी जातिवाद, अराजकता, अर्द्ध-सभ्यता, हिंसा और बात-बेबात का अहंकार, सब कुछ इन दोनों में दिखाया गया है, कुछ भी छोड़ा नहीं गया है।

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सांप्रदायिकता की पिच पर ‘सेकुलरिज़्म’ के चतुर घोड़े की सवारी

? एक पवित्र किताब के इर्दगिर्द धर्म को परिभाषित करने की अब्राहमिक पंरपरा आखिर सिखों तक कैसे पहुंची? एक भगवान और उसके एक जन्‍मस्‍थल के इर्दगिर्द धर्म को परिभाषित करने की कवायदें अब हिंदुओं के बीच भी प्रचलित हो रही हैं, जबकि सनातन धर्म का ऐसा चरित्र कभी नहीं रहा। क्‍या इसे सांप्रदायिकता कहा जा सकता है? या यह विकृत धर्मनिरपेक्षता के कुफल हैं?

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