पॉलिटिकली Incorrect: सिंघु बॉर्डर का लगातार उठता मंच और चढ़ता इक़बाल

इस आंदोलन में 26 जनवरी को ‘किसान गणतंत्र दिवस परेड’ एक ऐसा मुकाम साबित हो सकता है जहां से आंदोलन एक नई ऊंचाई हासिल करेगा, बशर्ते यह मोर्चे की रणनीति के अनुसार सम्पन्न हो पाए। तब सिंघु पर लगे इस मंच का इक़बाल कुछ और फुट ऊंचा हो जाएगा।

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पॉलिटिकली Incorrect: रैदास के बेगमपुरा में किताबों के लंगर भी होते, काश!

दिल्‍ली के बॉर्डरों पर रैदास के असंख्य बेगमपुरा उग आए हैं। बस इस बेगमपुरा में एक चीज़ की कमी खलती है- किताबों की। सिंघु पर कुछ लोगों ने मिल कर भगत सिंह लाइब्रेरी बना दी है, जहां लोग बैठकर पढ़ते हैं। एक-दो किताबों की दुकानें भी अस्थाई डेरे में शामिल हो गई हैं।

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पॉलिटिकली Incorrect: बिजली और आयुध कर्मचारियों की फौरी जीत के आगे लटका शून्य

क्या ठेका कर्मचारियों के लिए हड़ताल का आह्वान कभी हुआ? क्या सबको समान सामाजिक सुरक्षा की बात यूनियनों के एजेंडे में कभी शामिल हुई? व्यवस्था परिवर्तन कभी मुद्दा बना? कर्मचारी यूनियनें इस पर ख़ामोश क्‍यों हैं?

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पॉलिटिकली Incorrect: किसान क्रांति गेट पर यज्ञ-मंत्र का एक ‘इनसाइडर’ प्रेम-प्रसंग

भारतीय किसानों के सामने जितनी बड़ी मुसीबत खड़ी है, उनकी वैचारिक तैयारी उतनी ही कमज़ोर है। वे साम्प्रदायिकता और जातिवादी नफ़रत को अपने बर्चस्व का आधार मानते आये हैं। खेतिहर मज़दूरों, दलितों, भूमिहीन किसानों की समस्या इस पांत में बहुत पीछे छूट गयी है।

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पॉलिटिकली Incorrect: लेनिन की किताब के उस मुड़े हुए पन्‍ने में अटकी देश की जवानी

जिस अनुपात में भारतीय अर्थव्यवस्था मिस-मैनेज हो रही है, हो सकता है कि आने वाले दिनों में किसी 15 अगस्त या 26 जनवरी को मोदी, बिड़ला की जागीर हो चुके लाल किले की प्राचीर से भगत सिंह को ‘टीम वर्क’ का गुरु घोषित कर दें और शहीदे आज़म भगत सिंह सरकारी कार्यालयों में मैनेजमेंट गुरू के फ्रेम में दिखना शुरू हो जाएं।

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पॉलिटिकली Incorrect: सत्ता का वर्ग-युद्ध बनाम ट्रेड यूनियनों की सदिच्‍छा

तीन लेबर कोड बिल- इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड, कोड ऑन सोशल सिक्योरिटी और ऑक्‍युपेशनल सेफ्टी, हेल्थ एंड वर्किंग कंडीशंस कोड को स्टैंडिंग कमेटी के पास भेजा गया था और मामूली रद्दोबदल के साथ वो अब सीधे लोकसभा में प्रवेश कर चुके हैं।

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पॉलिटिकली Incorrect: जस्टिस काटजू तक पहुंचती आहटें, जिन्‍हें हम अनसुना किये बैठे हैं!

जस्टिस काटजू की हर बात में विवाद खोजने वाले भारत के कार्पोरेट मीडिया, वैकल्पिक मीडिया और लिबरल खेमे तक ने इस बयान को तवज्जो देना भी गवारा नहीं समझा। उन्होंने भी एक शब्द नहीं कहा, जो इससे मिलती-जुलती बातें वर्षों से करते आ रहे हैं।

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