शिक्षा का लोकतान्त्रिक मूल्य और डॉ. भीमराव अम्बेडकर

डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा दिया गया सूत्र ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो’ इस सूत्र में ही उनके संघर्षपूर्ण जीवन का व उनके शैक्षिक विचारों का सारांश छिपा हुआ है।

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सावित्री बाई फुले को सिर्फ अतीत में नहीं बल्कि वर्तमान में देखने की जरूरत है

सावित्री बाई फुले को सिर्फ इस लिहाज से न देखा जाए कि वह एक दलित महिला थीं और उन्होंने कुछ स्कूलों की स्थापना की। उनका योगदान सिर्फ कुछ जातियों के विकास तक नहीं सीमित है। सावित्री बाई फुले अपने आपको एक मनुष्य की दृष्टि से देखती थीं।

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शिक्षा में तत्कालीन चुनौतियां और महात्मा गांधी

देश में व्याप्त तत्कालीन जितनी भी समस्याएं हैं, उनके निवारण हेतु महात्मा गाँधी द्वारा 1937 (वर्धा शिक्षा योजना) में प्रस्तावित शिक्षा नीति जिसे ‘बेसिक शिक्षा’ के नाम से जाना जाता है, बहुत ही उपयुक्त है।

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जब सरकार खुद समस्या बन जाए तो समाधान क्या हो?

“सरकार हमारी समस्याओं का समाधान नहीं है, सरकार ही समस्या है”- अमेरिका के राष्ट्रपति रहे रॉनल्ड रीगन के इस प्रसिद्ध कथन से राजनीतिशास्त्र के छात्र भलीभाँति परिचित होंगे। रीगन से …

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चम्बल वीरान है, अब शिक्षा और सेहत में लूट का सामान है!

डकैतों की इन औलादों ने तरह-तरह के पेशे अपना लिए हैं। कुछ ने चिकित्सा के पेशे को चुना है तो कुछ वकील बन बैठे हैं। कुछ ने पैथोलोजिकल लैब खोल ली है तो कुछ ने शिक्षा के धंधे को अपना लिया है। राजनीति में भी इन्हें देखा जा सकता है। गरज़ यह कि जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है जहाँ यह नहीं पाए जाते हों या जहाँ इनका दबदबा न हो।

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क्या यह हमारे देश का ही शिक्षा बजट है?

वित्त वर्ष 2020-21 के मूल बजटीय आवंटन में शिक्षा मंत्रालय को 99,311.52 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे। वित्त वर्ष 2021-22 में शिक्षा मंत्रालय का मूल बजटीय आवंटन घटाकर 93,224.31 करोड़ रुपये कर दिया गया था। इस वर्ष शिक्षा के लिए मूल बजटीय आवंटन 1 लाख 4 हजार 277 करोड़ रुपये है। यदि 2020-21 से तुलना करें तो यह वृद्धि अधिक नहीं है।

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COVID-19 से उत्पन्न शैक्षिक संकट से निपटने में विफल है आम बजट: RTE फोरम

आरटीई फोरम की राय में इस बजट में स्कूलों को फिर से खोलने, सरकारी स्कूल व्यवस्था की मजबूती और शिक्षा अधिकार कानून के क्रियान्वयन एवं विस्तार पर ज़ोर देने के बजाय महज डिजिटल लर्निंग पर ध्यान केन्द्रित करने और ई-विद्या के विस्तार का प्रस्ताव देखना खासा निराशाजनक है।

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गुणवत्तापरक शिक्षा तथा मानवाधिकार का सवाल और हमारी जिम्मेदारी

जिन मानवाधिकारों की कल्पना विश्व समुदाय द्वारा की गयी है उसका मूल आधार ही गुणवत्तापरक शिक्षा है और इसके अभाव में एक सशक्त स्वतंत्र जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। शिक्षा के अभाव में व्यक्ति के जीवन की गुणवत्ता में गिरावट आती है जिसका प्रभाव कालान्तर में राष्ट्रीय स्तर पर परिलक्षित होता है। गुणवत्तापरक शिक्षा के अभाव का सबसे ज़्यादा असर गरीबी में जीवनयापन करने वाले लोगों पर ही पड़ रहा है जो सीधे सीधे उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन है।

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कोरोना की तबाही से जागा बनारस, स्वास्थ्य-शिक्षा और आजीविका के मुद्दे पर जन अधिकार यात्रा

इस यात्रा से पहले बनारस से पहली बार स्‍वास्‍थ्‍य का अधिकार बनाए जाने की मांग उठी थी और उसके समर्थन में एक हस्‍ताक्षर अभियान चलाया गया था।

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महामारी की दूसरी लहर में भी उपेक्षित छात्र समुदाय पर बात कब होगी?

माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी को भी ‘परीक्षा पर चर्चा’ जैसे खोखले प्रवचन से आगे बढ़कर छात्र समुदाय के हित में कुछ ज़रूरी कदम उठाने चाहिए जो असल में उनके काम आएं। सरकार को आगे आकर ‘देश के भविष्य’ को बचाने की सख़्त ज़रूरत है।

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