हिंदी का पुराना संस्कार और नये मनुष्य का संकट

जीवन की विराटता में तकनीकी के रथ पर सवार तूफानी गति से भागता नया मनुष्य भी है जो हमारी – “सुनो तो! रुको!! ठहरो!!!” – की पुकार को सुनने को तैयार नहीं है। हिंदी के स्वरूप को, उसकी अभिव्यक्तियों को, उसके शब्द भंडार और प्रकृति को निर्धारित करने वाली शक्तियां हमारी सदिच्छा से कहीं अलग बाजार और तकनीकी के द्वारा निर्धारित हो रही हैं।

Read More

पुस्तक संस्कृति का ह्रास

आज लेखक अपने पैसों से पुस्तकें छपवा कर स्वप्रचार कर रहे हैं। यह एक दयनीय स्थिति है। इस स्थिति में साहित्य के नाम पर लेखन, सृजन आत्मभिव्यक्ति भर ही है।

Read More

नागरीप्रचारिणी सभा में नये चुनाव का रास्ता साफ़, व्योमेश शुक्ल की आपत्ति पर आया ऐतिहासिक फ़ैसला

बीते पचास वर्षों से एक परिवार हिंदी की इस 128 साल पुरानी महान संस्था पर क़ब्ज़ा जमाये बैठा था। इस निर्णय के बाद संस्था को उस शिकंजे से मुक्ति मिल गयी है। इस बीच संस्था में बौद्धिक संपदा और ज़मीन-जायदाद के घपले से जुड़ी ख़बरें समय-समय पर प्रकाश में आती रही हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की भी इस संस्था पर नज़र बनी रही है और पिछले बरस उसने यहाँ हुए चुनावों की जाँच का आदेश स्थानीय न्यायालय को दे रखा था।

Read More

जिंदगी क्या है सफर की बात: एक उद्यमी के चश्मे से समाज की छवियां

लेखक ने समाज की विसंगतियों और इसमें छुपे हुए दमनकारी तत्वों को उसके राजनीतिक निहि‍तार्थों को सामने लाने के लिए पूरी पुस्तक में टिप्पणियों के सहारे काम किया है। महिलाओं के मामले में जिन टिप्पणियों का सहारा लिया गया है वह निहायत ही प्रतिक्रियावादी सोच को सामने लेकर आती हैं। यह इस पुस्तक का सबसे कमजोर पक्ष है।

Read More

बात बोलेगी: पालतू गर्वानुभूतियों के बीच खड़ी हिंदी की गाय

आप हिन्दी बरतते हैं क्योंकि आपको आसान लगता है। आप हिन्दी पढ़ते हैं, लिखते हैं, समझते हैं तो इसलिए क्योंकि उस भाषा में आप खुद को सहज पाते हैं और इसलिए भी कि वो आपके काम की ज़रूरत है और इसलिए भी कि क्योंकि उसमें आपको काम करने को कहा गया है। तब दुनिया में ऐसी कौन सी भाषा है जो इन तीनों में परिस्थितियों में ही बरती न जाती हो?

Read More

भाषा चर्चा: जब कंप्यूटर आपकी सही हिंदी को लाल रंग से घेर दे, तो आप क्या करेंगे?

समस्या के विभिन्न आयामों पर अब तक बात हुई है, लेकिन समाधान पर कब बात होगी? कोई समाधान है भी या अंदाज से हवा में लाठी चलायी जाएगी, या केवल समस्याओं को इंगित कर छोड़ दिया जाएगा?

Read More

भाषा चर्चा: त्रिभाषा की जगह द्विभाषा फॉर्मूले को रखने में ही क्या दिक्कत थी?

अंग्रेजी के सर्वमान्य आधिपत्य से हमारा फायदा होने की जगह नुकसान अधिक हुआ है, यह तो इतिहास ने ही साबित कर दिया है। आप संपर्क भाषा हिंदी को बनाते और बाकी भारतीय भाषाओं को जरूरत के मुताबिक ‘न्यूमिरो ऊनो’ बनाते।

Read More

भारतीय भाषाएँ, अंग्रेजी और औपनिवेशिक सत्ता के सांस्कृतिक वर्चस्व का सवाल

वर्तमान में अंग्रेजी और भारतीय भाषाएँ एक दूसरे के सन्दर्भ में जहां हैं वहां इसलिए नहीं है कि भारतीय भाषाएँ अपने मूल रूप में प्रतिगामी हैं, बल्कि इसलिए कि एक तरफ उत्पीड़न का इतिहास है और दूसरी तरफ उत्पीड़न के विरुद्ध प्रतिरोध का इतिहास।

Read More

भाषा-चर्चा: अंग्रेजी न जानने की औपनिवेशिक कुंठा हमारी अपनी भाषाओं को मार रही है

भाषा से बौद्धिकता का विकास नहीं, बौद्धिकता से भाषा का विकास होता है। आधुनिक भारत में लोग यह बात भूल गए हैं कि भाषा विचारों को रखने का साधन है, वह माध्यम है बातों को रखने का और सुनने का।

Read More

भाषा-चर्चा: तकनीक की ‘अंधाधुन’ गोलीबारी में टूटता हिंदी का संयुक्त परिवार

जिस तरह एकल परिवारों की वजह से चाचा-चाची, मौसा-मौसी, फुआ-फूफा जैसे रिश्ते सिमटते गए और एक ‘अंकल’ और ‘आंटी’ में समा गए, उसी तरह विष, ज़हर, हलाहल आदि का भी समायोजन एक ‘प्वाइज़न’ में हो गया। हम हिंदी वाले अब ‘कज़न ब्रदर’ या ‘कज़न सिस्टर’ का प्रयोग करते हैं।

Read More