मराठी साहित्य में दलित अस्मिता के प्रकाश-स्तंभ

जब बाबूराव बागुल की आत्मकथा सबसे पहले उनकी मातृभाषा मराठी में प्रकाशित हुई थी तो उसने मराठी साहित्य और समाज को झकझोर दिया था। भारतीय समाज में जाति पर आधारित दमन और अपमान की साहसभरी कथा कहने कहने वाली यह पुस्तक अब एक क्लासिक मानी जाती है और दलित साहित्य में मील का पत्थर।

Read More

बहुजन राजनीति के बेगमपुरा मॉडल की तलाश

बाबा साहेब द्वारा 1942 में स्थापित आल इंडिया शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन के उद्देश्य और एजंडा को देखा जाय तो पाया जाता है कि डॉ. आंबेडकर ने इसे सत्ताधारी कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टियों के बीच संतुलन बनाने के लिए तीसरी पार्टी के रूप में स्थापित करने की बात कही थी। इसकी सदस्यता केवल दलित वर्गों तक सीमित थी क्योंकि उस समय दलित वर्ग के हितों को प्रोजेक्ट करने के लिए ऐसा करना जरूरी था।

Read More

सामाजिक न्याय और दलित भागीदारी की बात करने वाले दल क्या ब्राह्मण वोटों की लालसा त्याग पाएंगे?

अगर ब्राह्मणों को मुसलमानों से कोई समस्या होती तब मुसलमानों से दूरी बनाने के बाद अखिलेश यादव को ब्राह्मणों ने वोट दिया होता जबकि ऐसा कुछ नहीं हुआ। जाहिर सी बात है अखिलेश यादव ब्राह्मणों का मूड समझने में चूक गए। ब्राह्मण समुदाय को मुसलमान विरोधी साबित करने की एक असफल कोशिश अखिलेश यादव ने की है।

Read More

बाबासाहब के नाम पर स्मारक बना देने से दलितों की हालत सुधर जाएगी?

क्या यह स्मारक वाकई चुनाव से पहले दलितों को लुभाने का कोई चारा है या फिर भाजपा सरकार में दलितों की स्थिति सुधरी है? दलितों के खिलाफ होने वाले जुल्म तो कुछ और ही कहानी बयां कर रहे हैं।

Read More

हर्फ़-ओ-हिकायत: दलित चिंतकों का सवर्णवादी आदर्श बनाम कांशीराम की राजनीतिक विरासत

कांशीराम ने 1978 में ये भांप लिया था कि पहले से ही दमित समाज को संघर्ष की नहीं सत्ता की जरूरत है और सत्ता से ही सामाजिक परिवर्तन होगा। यही भाव कांशीराम से मायावती में अक्षरश: स्थानांतरित हुआ। इतिहास इसका गवाह है।

Read More

दलित राजनीति की त्रासदी को इसका स्वर्णिम युग कहना मसखरापन है!

जिन दलित पार्टियों ने जाति की राजनीति को अपनाया था वे भाजपा के हाथों बुरी तरह से परास्त हो चुकी हैं क्योंकि उनकी जाति की राजनीति ने भाजपा फासीवादी हिन्दुत्व की राजनीति को ही मजबूत करने का काम किया है।

Read More