सत्ता और जरायम की समकालीन दुरभिसंधियों के बीच दो अतिकथनों पर खड़ा ‘पाताल लोक’
मूल वस्तु, बड़े स्टार्स, कंटेन्ट, निवेश आदि से निर्मित किए गए इस अतिकथन को हिन्दी के बड़े कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन ‘अज्ञेय’ की एक बहुत छोटी सी कविता की सामयिक व्याख्या से समझा जा सकता है। अज्ञेय की मूल कविता है- “साँप/तुम सभ्य तो हुए नहीं/ नगरों में बसना/ तुम्हें नहीं आया/ एक बात पूछूं/ ये डसना कहाँ से सीखा/ ये विष कहाँ से पाया?”
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