पुरानी संसद क्यों न विपक्ष को सौंप दी जाए!

इस तरह के निर्णय के पीछे कोई वैज्ञानिक कारण नजर नहीं आता कि ‘सेंट्रल विस्टा’ के तहत प्रारंभ की गईं दूसरी सभी परियोजनाओं को अधूरे में छोड़कर नई संसद पहले तैयार करने के प्रधानमंत्री के स्वप्न को जमीन पर उतारने के काम में दस हजार मजदूरों को झोंक दिया गया! नई संसद का उद्घाटन ,नई लोकसभा के गठन के साथ साल भर बाद भी हो सकता था।

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हम तब भी कहते थे कि बेगुनाह हैं, और आज अदालत भी यही कह रही…

देश को समझना होगा कि ये नौजवान जिन्हें सालों बाद छोड़ा जा रहा ये इस देश के मानव संसाधन हैं. जेल में कैद कर सियासत कामयाब हो सकती है पर मुल्क नहीं.

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चाह और फ़र्ज़ के बीच फैला नूर

लोग आखिरकार अपनी आज़ादी को तलाश ही लेते हैं। ईरान से लेकर हिंदुस्‍तान तक मज़हबी ज्ञान की हमारी समझदारी में भले फ़र्क हो, लेकिन सबका निचोड़ एक ही है।

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छत्तीसगढ़: धर्मांतरण के खिलाफ आदिवासियों के छद्म आंदोलन में छुपा सियासी एजेंडा

इस साल के अंत में होने वाले राज्य चुनावों के संदर्भ में भाजपा “फूट डालो और फायदा उठाओ” की स्पष्ट रणनीति पर चल रही है, लेकिन कांग्रेस सरकार के बारे में क्या कहा जाए, जिसने एक भी मंत्री को क्षेत्र का दौरा करने के लिए नहीं भेजा और एक भी प्रभावित परिवार की अभी तक मुआवजे के साथ मदद नहीं की है।

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काकुत्स्थ पर कुब्जा हावी है! शास्त्र को प्रक्षिप्त कहने वाले विक्षिप्त हैं!

जिस तरह मनुष्य ध्यान लगाने में असफल होने पर योग विज्ञान अथवा योगशिक्षा पर लांछन लगाते हैं, उसी प्रकार शास्त्र को नहीं जानने पर विक्षिप्त महत्वाकांक्षी मूढ़ उसे प्रक्षिप्त घोषित कर देते हैं। शास्त्र को प्रक्षिप्त वही घोषित करते हैं जिन्हें अंधविश्वास घेरे हुए है।

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बद्री को अकादमी: दूसरे के द्वैत को देखने वाले स्वयं का द्वैत देखने में अक्षम हैं!

जो लोग अपनी वैचारिकता-प्रतिबद्धता को लेकर आत्ममुग्ध हैं उन्हें तो प्रसन्न होना चाहिए कि उन्हें इस भगवा सरकार के पुरस्कार से वंचित करके उनके सम्मान की रक्षा की गई, लेकिन अफ़सोस कि वे लोग इस भगवा दौर में क्रांतिकारियों को पुरस्कृत होने की उम्मीद बांधे बैठे थे।

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दिल्ली में धर्मांतरण: भाजपा और आप दोनों डरपोक

भाजपा से भी ज्यादा डरपोक निकली आप पार्टी! उसने अपने मंत्री को इस्तीफा क्यों देने दिया? वह डटी क्यों नहीं? उसने वैचारिक स्वतंत्रता के लिए युद्ध क्यों नहीं छेड़ा? क्योंकि भाजपा, कांग्रेस और सभी पार्टियों की तरह वह भी वोट की गुलाम है। हमारी पार्टियों को अगर सत्य और वोट में से किसी एक को चुनना हो तो उनकी प्राथमिकता वोट ही रहेगा

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सीता जिस दिन कोई कदम उठाएगी, सारे सच एक झटके में अप्रासंगिक हो जाएंगे…

इस त्रासदी के केंद्र में सीता हैं। दरअसल, रामायण में राम-रावण के युद्ध को अतिरिक्‍त प्रमुखता दी गई है। यह युद्ध ही जनता की उम्‍मीदों का स्‍थल है, मुक्ति का क्षण है। यदि आप राम और सीता की प्रेमकथा के चौखटे में देखें तो यह युद्ध एक गौण प्रसंग से ज्‍यादा कुछ नहीं लगेगा।

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क्या ‘परिवार’ की कांग्रेस ही राहुल गांधी के सपनों की नयी कांग्रेस है?

अध्यक्ष पद की उम्मीदवारी को लेकर मचे घमासान से बात साफ हो गयी थी कि ‘परिवार’ पार्टी संगठन पर अपनी पकड़ को ढीली नहीं पड़ने देना चाहता है। अस्सी-वर्षीय मल्लिकार्जुन खड़गे की एंट्री के बाद चीजों को लेकर ज्‍यादा स्पष्टता आ गयी है कि 17 अक्टूबर को मुक़ाबला परिवार के प्रति ‘वफादारी’ और विद्रोहियों द्वारा की जा रही पार्टी के ‘सामूहिक नेतृत्व’ की माँग के बीच होना है। सभी मानकर चल रहे हैं कि जीत अंत में ‘वफादारों’ की ही होती है।

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राहुल को दिल्ली आकर ‘भारत जोड़ो’ की बजाय ‘कांग्रेस जोड़ो’ अभियान चालू करना पड़ेगा!

राजस्थान में चली यह नौटंकी सबसे ज्यादा खुश किसे कर रही होगी? शशि थरूर को! और सबसे ज्यादा दुखी, किसको? राहुल गांधी को! क्योंकि राहुल ने ही केरल से मंत्र मारा था कि ‘एक आदमी, एक पद’। अब आदमी और पद, दोनों ही हवा में लटक गए हैं।

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