यह दुनिया बदली जा सकती है! मार्क्स की जयंती पर जलसा

बुद्ध और मार्क्स की तुलना करना ग़लत है। दोनों के समय में दो हज़ार बरस का अंतर है। बुद्ध और मार्क्स, दोनों के ही योगदान अपनी-अपनी तरह से अप्रतिम है। किसी एक को बड़ा बताने के लिए किसी दूसरे को छोटा करना ज़रूरी नहीं।

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…जब हमारी खामोशी उन आवाजों से भी ज्यादा ताकतवर साबित होगी जिन्हें तुम आज दबा रहे हो!

कम्युनिज्म को नाकाम ठहराने की ये सारी कोशिशें मजदूर वर्ग के जबर्दस्त डर से पैदा होती हैं। दुनिया भर के क्रांतिकारियों ने रूस, चीन, कोरिया, वियतनाम, क्यूबा और तमाम दूसरे देशों में यह दिखा दिया है कि पूंजीवादी राज सुरक्षित नहीं है। मजदूर जीत सकते हैं।

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‘दुनिया के मजदूरों एक हो’, लेकिन कैसे? भारत में श्रम के परिदृश्य पर एक नज़र

कोरोना से बचाव की हमारी यह कोशिशें हमारी आर्थिक गतिविधियों के स्वरूप में व्यापक और कई क्षेत्रों में तो आमूलचूल परिवर्तन ला रही हैं। नयी कार्य संस्कृति तकनीकी के प्रयोग द्वारा एक ऐसी व्यवस्था बनाने की वकालत करती है जिसमें ह्यूमन इंटरफेस न्यूनतम हो। ऐसे में तकनीकी का प्रयोग धीरे-धीरे मनुष्य की भूमिका को नगण्य और गौण बना देगा।

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क्या होता यदि फुले दम्पत्ति की मुलाकात मार्क्स से हुई होती?

आज फुले दम्पति होते तो वे अपने किसानों के साथ खड़े होते। वे ललकार रहे होते। उन्हें ‘गुलामगिरी’ से मुक्ति के पाठ पढ़ा रहे होते। उन्हें भीमा-कोरेगांव के किस्से सुना रहे होते।

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