यह तुलसीदास का पुनर्पाठ है या आत्महीनता से उपजा कुपाठ?


जन्मना जायते शूद्रः, संस्कारात् द्विज उच्यते
वेदपाठी भवेत विप्रः, ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः

सनातन परंपरा में एक शब्द ‘ब्राह्मण’ के लिए ये तीन शब्द तो केवल इस एक श्लोक में दिख गए हैं। इन तीनों शब्दों का अलग होना बताता है कि शब्दों की यात्रा कहीं न कहीं से बनते-बिगड़ते आज की स्थिति में पहुंची है और रूढ़ हो गयी है। स्कंद पुराण का यह श्लोक बताता है कि जन्म से सभी शूद्र ही होते हैं, अपने कर्मों से ही वह ब्राह्मणत्व तक पहुंचते हैं। जिनका संस्कार हो जाता है, वे विप्र कहलाते हैं

। यहां ‘संस्कार’ का अर्थ समझना पड़ेगा। सम्यक कर्म हों तो वह संस्कार कहलाता है। यही बात बुद्ध अपनी शिक्षा में भी तो कहते हैं। वह जिस अष्टांग मार्ग की बात करते हैं, वह सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प आदि ही तो हैं। तो, द्विज हुए वह जिनका संस्कार हो गया, जिनका उपनयन हो गया। यहां जातिगत बाधा नहीं होती है और यह बात हम वर्तमान में श्रीराम शर्मा आचार्य के गायत्री परिवार से भी मिला सकते हैं। वहां तो बिना जन्मना जाति देखे ही सबका उपनयन किया जा रहा है और इस पर किसी को कहीं से कोई आपत्ति नहीं है।

स्कंद पुराण का रचनाकाल सातवीं सदी का माना जाता है। 81 हजार श्लोकों और चार खंडों वाले इस बृहत् काव्य का पुराणों में काफी महत्वपूर्ण औऱ पवित्र स्थान माना जाता है। इसमें सातवीं सदी का लेखक या व्याख्याता यह घोषणा कर रहा है कि जन्म से सभी शूद्र हैं और संस्कारों से ही द्विज होते हैं। द्विज के बाद विप्र की बात है। विप्र माने वह जो विशिष्ट तौर पर प्रखर हो, प्रकृष्ट हो जिसकी मेधा। वह वेदपाठी हो। वेद सनातन ज्ञान के उच्चतम स्कंध हैं, तो जो वेदपाठी हुआ वह और यह भी अंतिम सीमा नहीं है। विप्र के बाद जो ब्रह्म को जान लिया, वह हुआ ब्राह्मण। अब ब्रह्म को जो जान लेगा, वह भला इस गलीज बहस में ही क्यों पड़ेगा, उसका स्तर इतना छिछला क्यों होगा कि वह जाति-पांति की बात लेकर बैठ जाए?

समस्या यह है कि गंगोत्री से चली गंगा को हम लोग कानपुर, प्रयागराज, पटना इत्यादि तमाम शहरों की भयंकर गंदगी से लैस कर देते हैं और फिर उसी पानी को निकालकर कहते हैं कि देखो जी, गंगा तो गंदी है।

राम को पूजने के लिए आपको खुद पुरुषोत्तम होना होगा अर्थात अज्ञान से निकलना होगा

जाति यानी कास्ट को दो सौ वर्षों में हमने रूढ़ बनाया, वरना यह शब्द कहां था। जहां तक तुलसी और मानस की बात है, तो उन्होंने तो खुद ब्राह्मणों को रामचरितमानस में ही कई जगहों पर लताड़ा है। उनके कई दोहों में से एक दोहा ये देख लीजिए-

“विप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी।।

इतना ही नहीं, नारद के मुंह से स्वयं विष्णु को जो उनके परमाराध्य हैं, उनको भी भला-बुरा कहा है। यही सनातन की खूबी है, यही सनातन का सौंदर्य है। यहां भक्त भी अपने भगवान को खरी-खोटी सुना सकता है। जिस जातिगत भेदभाव की बात आज तमाम लोग कर रहे हैं, खुद श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण वर्ण-व्यवस्था के बारे में क्या कह रहे हैं, इसे भी देखना चाहिए।

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः तस्य कर्तारम् अपि मां विद्धि अकर्तारम् अव्ययम्।।

तो गुण और कर्म दोनों के ही आधार पर बात हो रही है, न कि यहां केवल जन्म के आधार पर किसी को कुछ भी घोषित करने की बात हो जा रही है, स्वयं भगवान भी यह घोषणा नहीं कर रहे हैं। यह खूबी देखनी चाहिए।

यह पुनर्पाठ नहीं, कुपाठ है

बिहार के शिक्षामंत्री चंद्रेशखर यादव और स्वामी प्रसाद मौर्य ने रामचरितमानस पर जो बयान दिए, एकाध दोहों और अर्द्धालियों को यहां-वहां से काटकर जो विवाद पैदा किया, उसके बाद उदित राज और अखिलेश यादव ने उसे और आगे ही बढ़ाया है। बात यहां तक पहुंच गयी कि रामचरितमानस के कथित तौर पर ‘विवादित’ अंशों को हटाने या बदलने की ही बात होने लगी। हिंदू हितों के स्वयंभू प्रवक्ता महावीर मंदिर,पटना के ट्रस्ट की तरफ से ये दावा भी हो गया कि विद्वानों की देखरेख में ये काम शुरू किया जा रहा है।

यह अद्भुत समय है। 500 वर्ष पहले कवि ने जो लिखा, क्या वह देश, काल, समय की परिसीमा में आबद्ध नहीं है, क्या उसका अपना एक संदर्भ नहीं है, क्या तत्कालीन समाज और वातावरण का उस पर प्रभाव नहीं है? क्या हमें उसका पाठ सही संदर्भों और अर्थों के साथ नहीं करना चाहिए?

अबकी तलवार लहराती और आग लगाती भीड़ को देखकर मेरे राम निश्चित ही आहत हुए होंगे!

जहां तक रामचरितमानस की बात है तो टाइम-ट्रैवल कर अगर मान लिया जाए कि उन पंक्तियों या चौपाइयों-दोहों को बदल भी दिया गया तो इस तरह से तो पूरा बखेड़ा ही खड़ा हो जाएगा। आपको जिन भी लेखक-कवि की पंक्तियां पसंद न आएं, उसे बदलते रहें। शेक्सपीयर के लेखन में बहुत कुछ ऐसा है जो आज की कसौटी पर ठीक नहीं है। तॉल्सतॉय के लेखन में ऐसा बहुत कुछ है जो आज के हिसाब से प्रतिगामी माना जाएगा, तो क्या उन सब को जाकर बदल दिया जाएगा? हिंदी वालों में इतनी आत्महीनता क्यों है कि वह तुरंत ही पुनर्पाठ करने पर तैयार हो जाते हैं, तो क्या कबीर को उनके कुछ दोहों के लिए उनकी मौत के बाद गरियाया जाएगा, या नागार्जुन से लेकर मुक्तिबोध और निराला से लेकर प्रेमचंद तक को इस पुनर्पाठ के खेल में घसीटा जाएगा?

तुलसीदास रामकथा कह रहे हैं और उस बहाने एक परिवेश-निर्माण भी कर रहे हैं, रामराज्य का स्वरूप भी बता रहे हैं, यहां तुलसीदास का पॉलिटिकल डिस्कोर्स और थॉट देखने लायक है।

‘अल्पमृत्य नहिं कवनऊ पीरा, सब सुंदर सब बिरुज सरीरा
नहीं दरिद्र कोउ दुखी न दीना, नहीं कोउ अबुध न लच्छन हीना।’

रामराज्य मतलब क्या? तो सुनिए तुलसी को। जब शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के हरेक मापदंड पर आदर्श स्थिति आ जाए, तो रामराज्य है। जब राज्य में दंड केवल संन्यासियों के हाथ में दिखे (अपराध शून्य हो जाएं) और भेद केवल नृत्यशालाओं में दिखे (सुर-ताल के मध्य, यानी सभी ग्रामीण-नागरिक बराबर हो जाएं) तो वही रामराज्य है। क्या किसी नेता ने आदर्श प्रशासन की यह कसौटी बनाकर अपने क्षेत्र, अपने इलाके को चमकाने की कोशिश की? नहीं। लेकिन, जाति-जाति रटकर जरूर उस आग में घी डालने की कोशिश की है, जो वर्षों से लगी चली आ रही है।

तुलसी को जातिवादी कहना या रामचरितमानस की चुनिंदा पंक्तियों का कुपाठ करना वैसा ही है, जैसा ईदी अमीन या हिटलर-स्टालिन को लोकतंत्रवादी दिखाना। जो तुलसी अपने युग के सामंतों से टकराकर, संस्कृत की जगह भाखा (यानी अवधी) में रचना करते हैं, जिनका संघर्ष उनके जीवन में पग-पग पर दिखता है, उनको जातिवादी बताना धृष्टता भी है और मूर्खता भी। खुद पौरोहित्य के कर्मकांड की निंदा करने वाले, वेदपाठी न होने पर ब्राह्मण को गरिया चलनेवाले और भक्ति को सबसे ऊपर बतानेवाले तुलसी भला किसी भी जाति या संप्रदाय के चौखटे में भला कैसे कैद हो सकते हैं?

हमें तुलसी के पुनर्पाठ की नहीं, पाठ की जरूरत है।


Cover: A stone bas-relief at Banteay Srei in Cambodia depicts the combat between Vali and Sugriva (middle). To the right, Rama fires his bow. To the left, Vali lies dying. Source: Wikipedia


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