चुनाव से पहले किए जाने वाले लोकप्रिय वादों और दावों पर रोक का जटिल सवाल

उच्चतम न्यायालय ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान राजस्थान और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्रियों द्वारा लगातार की जा रही घोषणाओं पर संबन्धित राज्य सरकारों, केंद्र सरकार तथा चुनाव आयोग को नोटिस देकर अपना पक्ष रखने को कहा है।

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बदलाव की बाट जोहता गाबो का देश और हालिया राष्ट्रपति चुनावों के कुछ संदेश

उम्मीद तो यही है कि शकीरा और गाब्रिएल गार्सिया मार्केस की चमकीली, आकर्षक और सम्मोहक दुनिया रहा यह देश, जो हाल-फिलहाल सिर्फ नार्कोस के खूंखार पात्रों के नामों से जाना गया, अपने लाखों नाउम्मीद लोगों के लिए बदलाव के नये रास्ते तलाशेगा।

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प्रधानमंत्रियों के चुनावी भाषण और चुनाव प्रचार की गिरती गरिमा

आकाशवाणी के आर्काइव में तलाश करते हुए जो सबसे पहली ऑडियो रिकॉर्डिंग हाथ लगी वह 1951 के आम चुनावों से पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा राष्ट्र के नाम संदेश के रूप में थी। सुनकर ऐसा लगा कि लोकतंत्र को जीने वाला कोई मनीषी और जननेता देश के नागरिकों को पहले आम चुनावों से पूर्व प्रशिक्षण दे रहा हो।

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बात बोलेगी: चुनाव लोकतंत्र में आपातकाल है या आपातकाल में लोकतंत्र?

आचार संहिता असल में एक चलती हुई दुनिया को थाम देने का बटन है जिसे दबाकर चुनाव के लिए भीड़भाड़ भरे रास्ते को खाली करा दिया जाता हो जैसे। केवल अब उस रास्ते से चुनाव ही निकलेगा और कुछ नहीं।

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आंदोलनकारियों का चुनावी राजनीति में जाना: अन्ना आंदोलन से किसान आंदोलन तक के अनुभव

एक आंदोलनकारी के रूप में हमने महसूस किया है कि आंदोलनकारी कुछ बुनियादी लक्ष्य को लेकर आंदोलन करते हैं जिनके मन में ढेर सारे सपने रहते हैं। ऐसे में जब यह चुनाव में उतरने का फैसला करते हैं तो उसी सपने या आदर्श को लेकर सामने आते हैं लेकिन उनके सामने वहां पर एक अलग तरह की परिस्थिति नजर आती है जो उनके आदर्श से बिल्कुल विपरीत रहती है।

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क्या देश का लोकतंत्र राजनैतिक दलों के हाथों में सुरक्षित है?

? क्या हमारे शासक इतने कमजोर हैं कि कोई व्यक्ति कानून और संविधान को चुनौती देता हुआ कभी विधानसभा, कभी मीडिया के दफ्तरों और कभी सड़कों पर आतंक बरपाता फिरे और हम अपनी वाचिक कुशलता से ही काम चला लें। क्या ये मामले सिर्फ निंदा या कड़ी भत्सर्ना से ही बंद हो सकते हैं।

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क्‍या अब मूल्यहीन राजनीति के विकल्प के बारे में नहीं सोचना चाहिए?

क्या चुनावी राजनीति में दलों द्वारा सत्ता के बदलाव से समाज की नैतिक न्यूनतम जरूरतें पूरी होती या हो सकती हैं? हो सकती हैं अगर चुनाव सिर्फ सत्ता हासिल करने मात्र का जरिया न हों। जनता के प्रति उत्तरदायित्व निर्वहन के लिए हों। इसलिए उन वास्तविक तत्वों को समझना जरूरी है जिनके आधार पर नैतिक न्यूनतम के लक्ष्यों को हासिल किया जा सकता है।

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चिली में नये संविधान और सामाजिक लोकतंत्र को खड़ा करने का रास्ता साफ, लेकिन जोखिम भरा!

देश के उग्र वामपंथी ब्रॉडफ्रंट गठबंधन के नेता गैब्रिएल बोरिस कहते हैं कि चुनाव के नतीजों ने दुनिया के सबसे बड़े तांबा उत्पादक चिली में एक बड़े बदलाव की राह तैयार कर दी है। उन्होंने कहा, “हम अपनी आदिवासी आबादी के लिए एक नये समझौते की उम्मीद कर रहे हैं। हम अपने प्राकृतिक संसाधनों को वापस चाहते हैं और ऐसा देश बनाना चाहते हैं जिसमें सबके लिए अधिकार सुनिश्चित हों। नया चिली बनाने के लिए हम शून्य से शुरू करने जा रहे हैं।”

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कोरोना: रोज बनते मौतों के रिकार्ड के बीच अब गांवों से भी निकल रही हैं लाशें

24 अप्रैल को पंचायती राज दिवस के मौक़े पर पंचायत सदस्यों और प्रतिनिधियों के साथ वर्चुअल बातचीत और ‘पुरस्कार वितरण’ कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पंचायत प्रतिनिधियों से कहा- “पिछले साल की तरह इस साल भी कोरोना महामारी को गाँवों तक पहुँचने नहीं देना है”। इस बयान पर आप हंस भी सकते हैं, रो भी सकते हैं और चाहें तो अपना माथा भी पीट सकते हैं।

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यह महान दृश्य है, चल रहा मनुष्य है… अश्रु स्वेद रक्त से, लथपथ लथपथ…

क्या हमें भी उन टीवी चैनलों सा संवेदनहीन हो जाना चाहिए जो जलती चिताओं के दृश्य दिखाते-दिखाते अचानक रोमांच से चीख उठते हैं- ‘’प्रधानमंत्री की चुनावी सभा शुरू हो चुकी है, आइए सीधे बंगाल चलते हैं।‘’

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