चंद्रशेखर के साथ गठबंधन न करने की चूक क्या समाजवादी पार्टी को भारी पड़ी?

चुनावों में धारणा और उसके संकेतों का बहुत महत्व होता है। चंद्रशेखर रावण के इस भावुक अंदाज ने दलित मतदाताओं को एक संदेश देने का काम किया कि समाजवादी पार्टी को उनके नेता की परवाह नहीं है। इतना ही नहीं, अपने को अपमानित करने का आरोप लगाते हुए चंद्रशेखर रावण ने दलित समुदाय के मुद्दे पर अखिलेश यादव के रवैये को लेकर भी जो प्रश्न उठाए, उन सबने दलित वर्ग के एक तबके को समाजवादी पार्टी से अलग करने का काम किया।

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हर्फ़-ओ-हिकायत: जाति-वर्चस्व के खांचे में आजादी के नायकों को याद करने की राजनीति

मजिस्ट्रेट ने नाम पूछा तो तिवारी जी ने कहा- आजाद! मजिस्ट्रेट ने पूछा पिता का नाम तो तिवारी जी ने कहा- स्वतंत्रता! अब मजिस्ट्रेट ने पूछा घर का पता? तिवारी जी ने कहा- जेलखाना। तिवारी जी तब से चंद्रशेखर आजाद हो गए, लेकिन सौ साल बाद सोशल मीडिया के क्रांतिकारियों ने उन्हें तिवारी जी और पंडित जी घोषित कर दिया।

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दलित राजनीति की त्रासदी को इसका स्वर्णिम युग कहना मसखरापन है!

जिन दलित पार्टियों ने जाति की राजनीति को अपनाया था वे भाजपा के हाथों बुरी तरह से परास्त हो चुकी हैं क्योंकि उनकी जाति की राजनीति ने भाजपा फासीवादी हिन्दुत्व की राजनीति को ही मजबूत करने का काम किया है।

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दलितों को दूसरों के हेलिकॉप्टर से चलने वाले नेताओं से सावधान रहना चाहिए

चंद्रशेखर जब कांशीराम के सत्तावादी मिशन को ही आगे बढ़ाने की बात करता है, तो यदि उसे सत्ता में कुछ हिस्सेदारी मिल भी जाय तब भी सवाल यह बना रहेगा कि क्या इससे दलितों का कोई कल्याण हो पाएगा?

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