स्मृतिशेष: लगता है जैसे हिमालय की कोई चट्टान टूट कर गंगा में समा गई हो!

उनके खाने-पीने में हमेशा यही कोशिश होती थी कि वे ऐसे ही अनाज खाएं जो कम पानी में पैदा हों। मैंने उनको चावल खाते हुए नहीं देखा। पहाड़ में होने वाले पारंपरिक अनाज जैसे झंगोरा व कोदा ही उनके मुख्य भोजन होते थे।

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‘जंगल हमारे मैत हैं’ कहने वाली चिपको आंदोलन की प्रणेता गौरा देवी को लोगों ने भुला दिया!

सीमित ग्रामीण दायरे में जीवनयापन करने के बावजूद वह दूर की समझ रखती थीं। उनके विचार जनहितकारी थे जिसमें पर्यावरण की रक्षा का भाव निहित था, नारी उत्थान और सामाजिक जागरण के प्रति उनकी विशेष रुचि थी। गौरा देवी जंगलों से अपना रिश्ता बताते हुए कहतीं थीं कि “जंगल हमारे मैत (मायका) हैं”।

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