हिंदी का पुराना संस्कार और नये मनुष्य का संकट

जीवन की विराटता में तकनीकी के रथ पर सवार तूफानी गति से भागता नया मनुष्य भी है जो हमारी – “सुनो तो! रुको!! ठहरो!!!” – की पुकार को सुनने को तैयार नहीं है। हिंदी के स्वरूप को, उसकी अभिव्यक्तियों को, उसके शब्द भंडार और प्रकृति को निर्धारित करने वाली शक्तियां हमारी सदिच्छा से कहीं अलग बाजार और तकनीकी के द्वारा निर्धारित हो रही हैं।

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बात बोलेगी: पालतू गर्वानुभूतियों के बीच खड़ी हिंदी की गाय

आप हिन्दी बरतते हैं क्योंकि आपको आसान लगता है। आप हिन्दी पढ़ते हैं, लिखते हैं, समझते हैं तो इसलिए क्योंकि उस भाषा में आप खुद को सहज पाते हैं और इसलिए भी कि वो आपके काम की ज़रूरत है और इसलिए भी कि क्योंकि उसमें आपको काम करने को कहा गया है। तब दुनिया में ऐसी कौन सी भाषा है जो इन तीनों में परिस्थितियों में ही बरती न जाती हो?

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मुफलिसी और मिशन से अब वास्तविकता के भी परे जा चुकी हिंदी की पत्रकारिता

आज पत्रकारिता के कामकाज की दशाएं बदली हैं। आज पत्रकारिता में इस मिशन या समर्पण को बनाए रखने के लिए समाज के सहारे और व्यापक समर्थन की जरूरत है।

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हर्फ़-ओ-हिकायत: हिन्दी दिवस पर सितारा-ए-हिन्द राजा शिवप्रसाद की याद

शिवप्रसाद बाबू सामाजिक तौर पर बहिष्कृत किए जाते रहे क्योंकि वे अंग्रेजों के पक्षधर थे। यहां तक कि उनके शिष्य़ भारतेन्दु हरिश्चंद्र का गुट भी उन्हें सरकारी मुलाजिम कहकर खारिज करता रहा।

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