एक शख्स और उसके जीवन-मंत्रः अनिल चौधरी की याद में

उनके पास जाना ऐसे अभिभावक के पास जाना था, जिससे जिरह करते हुए आपको किसी format के बारे में नहीं सोचना था, आप अपने जैसे ही रहकर उनसे सवाल, बहस, चर्चा कर सकते थे। और इस बहस के बीच आपका खाना-पीना-सोना सब उनकी ही ज़िम्मेदारी होती थी। 

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स्मृतिशेष: अनिल चौधरी, एक प्रतिबद्ध जनसरोकार योद्धा​

अनिल चौधरी का जीवन हमें सिखाता है कि कैसे संस्थागत सीमाओं से परे जाकर, विचारधारा और प्रतिबद्धता के साथ सामाजिक परिवर्तन लाया जा सकता है। उनकी शिक्षाएं और संघर्ष हमें आज भी प्रेरित करते हैं कि हम लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के लिए निरंतर प्रयासरत रहें।​

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वो जो सवाल करता रहा… : अनिल चौधरी की याद में

उन्हें कभी ख़ुद को केंद्र में रहने का शौक़ नहीं था। उन्होंने हमेशा वह रास्ता चुना जो लंबा था, मुश्किल था, लेकिन जिसमें सांगठनिक प्रक्रियाओं का निर्माण था, लोगों की ताक़त बढ़ाने की कोशिश थी, और नीचे से नेतृत्व को उभारने की मेहनत थी। 14 अप्रैल 2025 को कैंसर से लंबी लड़ाई के बाद उनका निधन हुआ। वे शायद कोई श्रद्धांजलि सभा पसंद न करते, लेकिन उस इंसान की बात किए बिना नहीं रहा जा सकता जिसने न सिर्फ हम में से कई लोगों को, बल्कि उस राजनीतिक स्थान और माहौल को बनाने में चार दशकों में एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

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हमारी, आपकी काल-बेला को लिखा है समरेश दा ने

पहली कहानी देश बांग्ला की प्रतिष्ठित पत्रिका देश में छपी। उपन्यास काल बेला के लिए उन्हें 1984 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।

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स्मृति शेष: बड़े भाईसाहब से कैसे साथी बने कॉमरेड केसरी सिंह

उनके ठीक होने की इच्छा, उनके अंतिम समय तक कुछ न कुछ सार्थक करने और सीखने का व्यक्तित्व हमेशा हमारी यादों में रहेगा। मौत तो सबको ही आती है लेकिन वे लोग मौत के बाद भी जीते हैं जो मौत के डर से जीते-जी हथियार नहीं डाल देते।

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शरद यादव राजनीति में जिस धारा का प्रतिनिधित्व करते थे वह अब विलुप्तप्राय है

संसदीय राजनीति में प्रवेश का प्रचंड का यह पहला मौका था। उन्होंने शरद जी से कहा कि वह सत्ता संचालन के कुछ ‘टिप्स’ दें और शरद जी ने उनसे अपने बहुत सारे अनुभव साझा किये।

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‘यूपी की सत्ता में बहुजन राजनीति का किला दोबारा खड़ा करना ही नेताजी को सच्ची श्रद्धांजलि’!

बाबरी मस्जिद के विध्वंस ने विध्वंसक राजनीति को उकसाया। उस दौर में कांशीराम-मुलायम सिंह के गठजोड़ ने इसे थोड़े वक़्त के लिए ही सही मुकाबला किया। तब नारे लगते थे ‘लोहा कटे लोहरे से सोना कटे सोनारे से, जब मुलायमा हाथ मिलाए कांशीराम से’।

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स्मृति शेष: इतिहास का क्राफ्ट और प्रो. बी.पी. साहू का अवदान

उनका मानना था कि आज के समाज की बनावट और उसकी संस्कृतियां जिसमें उसका खान-पान भी शामिल है, उस पूर्ववर्ती समाज के साथ जुड़़ा हुआ होता है और वह हमारे समय तक आता है। यानी प्रागैतिहास इतिहास का जीवंत पन्ना होता है।

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एजाज़ अहमद के बौद्धिक अवदान पर एक ढंग की श्रद्धांजलि नहीं लिख सके हम…

एक पँक्ति में एजाज अहमद का परिचय यह है कि वो हमारे समय के अग्रणी मार्क्सवादी विचारकों में एक थे। उनकी किताब ‘इन थियरी…’ को साहित्य के सैद्धान्तिक विमर्शों की एक जरूरी किताब माना जाता है। मार्क्सवादी विचारकों से प्रभावित हम जैसे नौजवानों के लिए एजाज अहमद एक रोलमॉडल की तरह थे।

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श्रद्धांजलि: उपेक्षा के अंधेरे में बुझ गया समाजवादी पत्रकारिता का पुराना ‘जुगनू’

जुलाई में हिंदुस्तान के पुराने पत्रकार और प्रेस क्लब के अध्यक्ष उमाकांत लखेड़ा ने नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव को अनुरोध किया था कि जुगनू जी को दिल्ली के बिहार निवास या सदन में शिफ्ट किया जाए। अगस्त में पत्रकारों और समाजकर्मियों ने उनकी मदद के लिए बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार को एक पत्र लिखा था। किसी गुहार पर सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिली।

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