सिनेमाई संघर्ष में औरत की जिंदगी का मुरब्बा खराब क्यों हो जाता है?

पिछले कुछ वर्षों में रीलिज हुई पुरुषों की बायोपिक पान सिंह तोमर, भाग मिल्खा भाग और एम एस धोनी : द अनटोल्ड स्टोरी आदि को देखने हुए समझ में आया कि पुरुष बायोपिक में जहां पराक्रमपूर्ण दृश्यों की भरमार होती है और इससे फिल्म भरी-भरी लगती है वहीं स्त्रियों की बायोपिक में चमत्कार रचने की प्रवृत्ति फिल्म को पटरी से ही उतार देती है। बचता क्या है?

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