संक्रमण काल: बिग-टेक के रहमो-करम पर देशों की संप्रभुता और स्वतंत्र पत्रकारिता

एक ओर जहां बड़ी टेक-कंपनियां दुनिया की किसी भी सरकार से अधिक ताकतवर हो गई हैं, जिनका मुकाबला करना किसी संप्रभु राष्ट्र के लिए भी मुश्किल हो गया है। वहीं दूसरी ओर जो कानून बनते हैं, उनके पीछे किसी निहित स्वार्थ वाले समूह की लॉबिंग काम कर रही होती है। लोकतंत्र के जिस चौथे खंभे को मजबूत करने के नाम पर इस तरह के कानून बनाए जाते हैं, उनका मकसद कुछ बड़े मीडिया संस्थानों को लाभ पहुंचाना होता है, चाहे वे कैसी भी पत्रकारिता कर रहे हों।

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प्रेस की स्वतंत्रता के सवाल से ज्यादा बड़ा है पत्रकारिता के वजूद का संकट!

प्रेस की स्वतंत्रता पर गहराते संकट की चर्चा तो हो रही है किंतु प्रेस के अस्तित्व पर जो संकट है उसे हम अनदेखा कर रहे हैं। अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के मुद्रण आधारित या इलेक्ट्रॉनिक साधनों का उपयोग करने वाले हर व्यक्ति या संस्थान को प्रेस की आदर्श परिभाषा में समाहित करना घोर अनुचित है विशेषकर तब जब वह पत्रकारिता की ओट में अपने व्यावसायिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और साम्प्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ा रहा हो।

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पत्रकारिता @2021: निरंकुश सत्ताओं के बर्बर उत्पीड़न के बीच अदम्य साहस की गाथाएं

सीपीजे ने 1 दिसंबर 2021 तक ऐसी 19 हत्‍याओं को दर्ज किया है जिसमें पत्रकारों को उनके काम के बदले में मारा गया। इसमें शीर्ष स्‍थान भारत का रहा जहां चार पत्रकार अपने काम के चलते मारे गए। एक और की मौत एक प्रदर्शन कवर करने के दौरान हुई। कुल छह हत्‍याएं भारत में दर्ज की गयीं जिसके बाद पत्रकारिता के लिए चार सबसे खराब देशों में भारत का नाम भी शामिल हो गया।

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एक देश बारह दुनिया: एक पत्रकार के भीतर बैठे साहित्यकार का शोकगीत

यह किताब यात्रा की तो है, लेकिन ऐसी यात्राओं की किताब है जिन पर हम अक्सर निकलना नहीं चाहते, ऐसी लोगों की किताब जिनको हम देखते तो हैं पहचान नहीं पाते, जिनके बारे में जानते तो हैं मिलना नहीं चाहते!

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हर्फ़-ओ-हिकायत: ‘भंडारी’ पत्रकारों की मूर्खताओं का इतिहास पहले ही लिखा जा चुका है!

हर्फ-ओ-हिकायत में चूंकि हम वर्तमान को इतिहास के आईने में देखने-समझने की कोशिश करते हैं इसलिए प्रदीप भंडारी मार्का पत्रकारिता जिनको भी अच्छी या बुरी लगती है उन सबको ये जानना चाहिए कि इस पेशे में कितनी नैतिकता है और कितना पाखंड।

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मुफलिसी और मिशन से अब वास्तविकता के भी परे जा चुकी हिंदी की पत्रकारिता

आज पत्रकारिता के कामकाज की दशाएं बदली हैं। आज पत्रकारिता में इस मिशन या समर्पण को बनाए रखने के लिए समाज के सहारे और व्यापक समर्थन की जरूरत है।

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अनामंत्रित: हिंदी के पतन की वजह न्यूजरूम में बैठे आलसी, अक्षम और जड़बुद्धि लोग हैं

जिसने भी यह कहा था कि, ‘जिस तरह तू बोलता है, उस तरह लिख’- इस कथन को बिना समझे सतही रूप से हिंदी पर लागू करने के दुष्परिणाम आज हमारे सामने हैं।

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पत्रकारिता के एक माध्यम के रूप में टीवी चैनल भीतर से खोखला हो चुका है!

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के समक्ष इन दिनों जिस तरह साख का संकट उत्पन्न हुआ है उसने पत्रकारिता के इस माध्यम को अंदर तक खोखला कर दिया है। समाचार चैनलों को यह बात जितनी जल्दी हो समझ लेना चाहिए वरना यदि देर हो गयी तो यह उनके अस्तित्व का संकट भी हो सकता है। सोशल मीडिया की बढ़ती ताकत, प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता और वेब जर्नलिज्म की मजबूती ने इस माध्यम की प्रासंगिकता और भरोसे को तोड़ा है।

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दक्षिणावर्त: हिंदी का एक लेखक क्या, किसके लिए और क्यों लिखे? साल भर के कुछ निजी सबक

लेखन एक तपस्या है, जिसमें आपका हृदय और मस्तिष्क समिधा बनते हैं। यह कोई हंसी-ठट्ठा नहीं है। न ही, यह अंशकालिक काम है। अगर आप लेखन को अपना सर्वस्व समर्पित नहीं कर चुके हैं, तो फिर वह लेखन भी आपको पूर्ण-काम नहीं बनाएगा। बहसें भले ही आप कितनी करते रहें।

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दक्षिणावर्त: मौत का समाचार, तथ्यों का अंतिम संस्कार और श्मशान में पत्रकार

तकनीक की अबाध और सुगम पहुंच ने घर-घर में इन 24 घंटे चलने वाली ‘थियेट्रिक्स’ की दुकानों को तो पहुंचा दिया, लेकिन पत्रकारिता के सबसे जरूरी आयाम ‘ख़बर’ की ही भ्रूण-हत्या कर दी गयी। अब कहीं भी कुछ भी बचा है, तो वो है प्रोपैगैंडा, फेक न्यूज़ और कम से कम ‘व्यूज़’। समाचार कहीं नहीं हैं, विचार के नाम पर कुछ भी गलीज़ परोसा जा रहा है।

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