पुस्तक संस्कृति का ह्रास


समाज के शिक्षित वर्ग में खास तौर से हिंदी पट्टी में संप्रति साहित्य के पठन-पाठन में दिलचस्पी घटती जा रही है। यद्यपि किताबें खूब छप रही हैं। निकट अतीत में (गत शती के पांचवें, छठे, सातवें दशक तक), वह भी एक समय था जब लोग देव, घनानंद, बिहारी, पद्माकर आदि कवियों को सुनते थे, याद रखते थे। लोग तुलसीदास, सूरदास, रहीम, कबीर, रसखान आदि के पद्य को गाते थे। उन्होंने इन कवियों को जीवित रखा, किताबें तब छपती नहीं थीं, कविताएं तब भी जीवित थीं।

अतः गत शती तक समकालीन साहित्य के पाठक समुदाय का आकलन हिंदी में प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं की पाठक संख्या के आधार पर ही किया जा सकता है। शायद पूरे हिंदी समाज की यह संख्या कुछ लाख में पहुंचती थी, अब वे पत्रिकाएं बंद हो चुकी हैं। अखबारों के साहित्यिक परिशिष्ट समाप्त हो चुके हैं। हिंदी प्रेमियों की तमाम कोशिशों के बावजूद साहित्य उन लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा है जिनके लिए वह रचा और लिखा जा रहा है। स्थिति यह हो गई है कि हिंदी में साहित्यिक पुस्तकों का कोई भविष्य ही नहीं है।

यूं हिंदी में उत्कृष्ट साहित्यिक पुस्तकों का अभाव नहीं है, मगर वे विभिन्न कारणों से पाठकों तक नहीं पहुंच पातीं। विडंबना यह है कि हमारे समाज में लोग जन्म, सालगिरह, विवाह, होली-दीवाली, या किसी खुशी के अवसर आदि पर साज-सज्जा, आतिशबाजी, डीजे, सूट-बूट, गिफ्ट, प्रीतिभोज वगैरह में लाखों रुपये बर्बाद कर डालते हैं, मगर हजार-पांच सौ रुपये की अच्‍छी पुस्तकें नहीं खरीद सकते।

आज लेखक अपने पैसों से पुस्तकें छपवा कर स्वप्रचार कर रहे हैं। यह एक दयनीय स्थिति है। इस स्थिति में साहित्य के नाम पर लेखन, सृजन आत्मभिव्यक्ति भर ही है। 

जिस प्रकार हम अपनी मासिक आय में से बच्चों की फीस, पढ़ाई-लिखाई, दूध, अनाज, सब्जी, मकान का किराया, मोबाइल रीचार्जिंग, इंटरनेट, बिजली के बिल वगैरह विभिन्न मदों के लिए अलग धनराशि निकालकर खर्च करते हैं, उसी प्रकार साहित्यिक पुस्तकों की खरीदारी के लिए अलग मद क्यों नहीं बनाते? कम से कम हम उपहार के रूप में तो किताबों का उपयोग कर ही सकते हैं।

विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में प्रेमचंद, इलाचंद्र जोशी, अमृतलाल नागर, अमरकांत, शेखर जोशी, कमलेश्वर, शैलेश मटियानी, पंकज बिष्ट, निराला, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर, मुक्तिबोध, नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय, केदारनाथ अग्रवाल, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, अज्ञेय आदि रचनाकारों की जो साहित्यिक कृतियां निर्धारित हैं, वे भी छात्रों तथा शिक्षकों द्वारा खरीद कर नहीं पढ़ी जातीं। विद्यार्थी गाइड खरीद कर वार्षिक परीक्षा की वैतरणी पार करने का जुगाड़ लगाते हैं। यदि विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रम में साहित्यकारों की पुस्तकें निर्धारित न हों तो जो थोड़ी-बहुत साहित्यिक किताबें बिकती भी हैं वे भी नहीं बिकेंगी।

एक तो हिंदी भाषा-भाषियों की वैसे ही साहित्यिक पुस्तकों को खरीदकर पढ़ने में रुचि नहीं दिखाई देती, ऊपर से रही-सही कसर पहले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और फिर सोशल मीडिया ने पूरी कर दी है। सरकारी खरीद में धांधली, कमीशनखोरी, जोड़-जुगत तथा मुनाफे के गुणा-भाग से प्रकाशन जगत को काफी नुकसान पहुंचा है। सरकारी खरीद में व्याप्त अराजकता के आगे उनका टिके रहना आसान नहीं रहा। इस स्थिति के लिए सरकारी नीतियां भी कम दोषी नहीं। पुस्तकें खरीद कर लाइब्रेरियों में डंप कर दी जाती हैं। असल में यह स्थिति उन साहित्यिक पुस्तकों से जुड़ी है, जिनके माध्यम से हम शैक्षिक उन्नति, प्रबोधन, जन-जागृति और जन समृद्धि की उम्मीद करते हैं।

विडंबना यह है कि हिंदी साहित्य की पहुंच हमारे समाज के एक प्रतिशत भाग तक भी नहीं रह गई है। यह दायरा लगातार सिकुड़ रहा है। घरेलू महिलाओं तथा बच्चों की दिलचस्पी पत्र-पत्रिकाओं तथा पुस्तकों के बजाय अब टीवी चैनलों के सीरियलों, वीडियो गेम्स तथा इंटरनेट में हो गई है, जिससे आम पाठकों की तादाद में और भी गिरावट आ गई है। फेसबुक, वाट्सएप, ट्विटर, ब्लॉग ने पुस्तकों का स्थान छीन लिया है। साहित्य के पठन-पाठन में लोगों की दिलचस्पी घट रही है, बल्कि घट चुकी है।

अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि साहित्यिक पुस्तकों के प्रकाशन तथा प्रचार-प्रसार के लिए सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर प्रयास किए जाएं और यह ध्यान रखा जाए कि साहित्यिक पुस्तकों का दाम इतना अधिक न हो कि वह पाठकीय क्रय शक्ति तथा जनसाधारण की पहुंच के बाहर हो जाए। यदि हम यह समझते हैं कि जन-जन में साहित्यिक रुचि के स्फुरण की आवश्यकता है तो इसके लिए प्रयत्न तो करने होंगे। पुस्तक प्रकाशकों, सामाजिक संस्थाओं, सांस्कृतिक संगठनों तथा शिक्षण संस्थाओं द्वारा शहर तथा कस्बों में रचना शिविर तथा पुस्तक प्रदर्शनी का आयोजन कर आम लोगों में पुस्तकों के प्रति कतिपय आकर्षण बढ़ाया जा सकता है। व्यक्तिगत प्रयास तो करने ही होंगे।


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