नदी पुत्र: ऐतिहासिक बदलाव की रोशनी में नदियों और उनकी संतानों की दास्तान

इसके एक ब्लर्ब में शेखर पाठक ने ठीक ही लिखा है कि यह किताब स्रोतों की व्याख्या और शोधविधि के लिहाज से इतिहास लेखन में एक हस्तक्षेप है। इसमें पाठ, मानवविज्ञान और अभिलेखीय सामग्री का मोहक समन्वय है।

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जिंदगी क्या है सफर की बात: एक उद्यमी के चश्मे से समाज की छवियां

लेखक ने समाज की विसंगतियों और इसमें छुपे हुए दमनकारी तत्वों को उसके राजनीतिक निहि‍तार्थों को सामने लाने के लिए पूरी पुस्तक में टिप्पणियों के सहारे काम किया है। महिलाओं के मामले में जिन टिप्पणियों का सहारा लिया गया है वह निहायत ही प्रतिक्रियावादी सोच को सामने लेकर आती हैं। यह इस पुस्तक का सबसे कमजोर पक्ष है।

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बसंत पंचमी पर निराला और उनकी कविता की याद…

निराला की मौलिकता, प्रबल भावोद्वेग, लोकमानस के हृदय पटल पर छा जाने वाली जीवन्त व प्रभावी शैली, अद्भुत वाक्य विन्यास और उनमें अन्तनिहित गूढ़ अर्थ उन्हें भीड़ से अलग खड़ा करते हैं। बसंत पंचमी और निराला का सम्बन्ध बड़ा अद्भुत रहा और इस दिन हर साहित्यकार उनके सानिध्य की अपेक्षा रखता था। ऐसे ही किन्हीं क्षणों में निराला की काव्य रचना में यौवन का भावावेग दिखा।

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संक्रमण काल: साहित्य का नया रास्ता

वर्चुअल दुनिया से संबंधित इन कविताओं और अक्कड़-बक्कड़ जैसे पॉडकास्टों व साहित्य और तकनीक के सम्मिश्रण के लिए जारी अनेकानेक कोशिशों से गुजरते हुए आशा बनती है कि पुराने मिजाज का हिंदी साहित्य भी देर-सबेर साहित्य के नए रास्तों को स्वीकार करेगा।

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कंचनजंघा (1962): द्वन्द्व के बादलों में घिरा मन का शिखर

मानव मन और आधुनिक उहापोह के बीच बह रही दलदली धारा को साफ करती यह फिल्म मेरी दृष्टि में बेहद खास है। अपने व्यक्तित्व के ऊपर तथाकथित व्यवहारिकता को चुनना हमारे शहरी जीवन में आम बात है। किरदारों का प्रकृति की खामोश विशेषता से मंत्रमुग्ध हो जाना और अपने हृदय के तट को छू लेना मुझे बेहद खूबसूरत लगा।

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सब संस्कृतियां मेरे सरगम में विभोर हैं…

शमशेर में जहां नित-नूतनता है वहीं निरन्तर बढ़ाव या उठान भी। नित-नित परिष्कृत होती उनकी शैली अपने वैशिष्ट्य के चलते एक जीवित मिथक गढ़ती है। शमशेर स्थूल के आग्रही किन्हीं विशेष परिस्थितियों में अपवादवश भले रहे हों, मूलतः सूक्ष्म संवेगों की छटी हुई अनुभूतियों का खाका उनकी कविताओं में विद्यमान है।

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पत्रकारिता @2021: निरंकुश सत्ताओं के बर्बर उत्पीड़न के बीच अदम्य साहस की गाथाएं

सीपीजे ने 1 दिसंबर 2021 तक ऐसी 19 हत्‍याओं को दर्ज किया है जिसमें पत्रकारों को उनके काम के बदले में मारा गया। इसमें शीर्ष स्‍थान भारत का रहा जहां चार पत्रकार अपने काम के चलते मारे गए। एक और की मौत एक प्रदर्शन कवर करने के दौरान हुई। कुल छह हत्‍याएं भारत में दर्ज की गयीं जिसके बाद पत्रकारिता के लिए चार सबसे खराब देशों में भारत का नाम भी शामिल हो गया।

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अंबेडकर और कम्युनिस्ट विचारधारा के रिश्तों को समझने की एक दस्तावेजी खिड़की

डॉ. अम्बेडकर की एक अधूरी पांडुलिपि का हालिया प्रकाशन हमें अम्बेडकर के साम्यवाद के साथ संबंधों की अधिक सूक्ष्म समझ प्राप्त करने में मदद करता है। इस पुस्तक का संपादन अंबेडकर के परिवार से जुड़े एक प्रसिद्ध दलित विद्वान आनंद तेलतुम्बडे ने किया है।

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मंगलेश डबराल का घोंसला और लोक संस्कृति की मृत चिड़िया

मंगलेश जी के पास पहाड़ी राग से लेकर मारवा और भीमपलासी सब कुछ था। उनके पास बिस्मिल्‍लाह खान की शहनाई थी। उनके पास पहाड़ी लोकगीत थे। वे ‘नुकीली चीजों’ की सांस्‍कृतिक काट जानते थे लेकिन उनका सारा संस्‍कृतिबोध धरा का धरा रह गया क्‍योंकि उन्‍होंने न तो अपने पिता की दी हुई पुरानी टॉर्च जलायी, न ही दूसरों ने उनसे आग मांगी। वे बस देखते रहे और रीत गए। उन्‍होंने वही किया जो दूसरों ने उनसे करवाया। कविताओं में वे शिकायत करते रहे और बाहर मुस्‍कुराते रहे, सड़कों पर तानाशाह के खिलाफ कविताएं पढ़ते रहे।

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खड़ी बोली काव्य के स्तम्भ पंडित लोचन प्रसाद पाण्डेय

बीसवीं सदी के प्रथम दशक में खड़ी बोली और ब्रज का संघर्ष जोरों पर था। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने नये विषयों, नई शैली और भाषा योजना द्वारा नवयुग का शंखनाद किया। वे गद्य में तो खड़ी बोली के पक्षपाती थे, परन्तु पद्य रचना में ब्रज माधुरी का मोह छोड़ नहीं सके। एक जगह उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है, चाहने पर भी उनसे खड़ी बोली में सरस कविता नहीं बनती लेकिन भारतेन्दु युग में श्रीधर पाठक ने अंग्रेजी की अनूदित रचनाओं द्वारा काव्य रचना के लिए खड़ी बोली का द्वार खोल दिया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय, पं. रामचरित उपाध्याय तथा लोचनप्रसाद पाण्डेय ने उन्हीं का अनुगमन किया।

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