पराक्रमहीनता का राग मालकौंस


सूचना-क्रान्ति के युग में भारत के प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व का शायद ही कोई पहलू हो जो जनता के सामने प्रकट न हो। उनकी सम्प्रेषण कला, सौंदर्यबोध, भक्ति, श्रम, समावेशी दृष्टि, पर दुख:कातरता, संस्कृति बोध, कला-संगीत में गहरी रुचि आदि सब कुछ जनता के सामने प्राय: किसी न किसी रूप में आते ही रहते हैं। जब किसी का जीवन इस हद तक सार्वजनिक हो तो उस पर कलम चलाना आसान नहीं होता है। समीक्ष्य पुस्तक Modi@20: Dreams meet Delivery 21 अध्याय और 1 प्राक्कथन से संयोजित-संपादित पुस्तक है जिसमें राजनीति, कला, संगीत, खेल, उद्योग आदि से जुड़े देश के 22 दिग्गजों के आलेखों को सम्मिलित किया गया है। शायद यह पहली ऐसी पुस्तक मेरे देखने में आयी है जिसका सम्पादन कोई व्यक्ति नहीं एक ‘फाउंडेशन’ ने किया है।    

पुस्तक का कैनवस इतना विस्तृत है सभी आलेखों पर कलम चलाना अथवा न्याय कर पाना सहज नहीं है। इसलिए मैंने भी अपनी लेखनी को संपादित पुस्तक के लेखकों का अनुसरण करते हुए अपनी रुचि के अनुसार नेहरू सेंटर, लंदन के निदेशक श्री अमीश त्रिपाठी के आलेख ‘मोदी: दि भगीरथ प्रयासी’ शीर्षक से लिखे गए लेख पर ही केन्द्रित किया है।

इस आलेख में अमीश त्रिपाठी ने प्रधानमंत्री के भारतबोध और संस्कृति-राग को रेखांकित करने का अभिनव ‘भगीरथ प्रयास’ किया है। पहले बैंककर्मी और बाद में पौराणिक लेखक के रूप में ख्याति प्राप्त अमीश त्रिपाठी लोगों के हाथों तक अपनी पहुँच बनाने में सफल रहे हैं। लेखक के रूप में बेस्टसेलर और टैक्सपेयर भी हैं, हालांकि अभी तक मैंने इनकी कोई किताब नहीं पढ़ी है। कभी रुचि ही नहीं पैदा हुई। यद्यपि कुछ मित्रों ने मुझे पढ़ने के लिए कहा भी पर मोटी-मोटी किताबों से निजी तौर पर मुझे बड़ा भय लगता है। प्रस्तुत किताब भी कम भीमकाय नहीं है। इसलिए एक ही निबंध पर अपने को केन्द्रित किया और ‘बेस्टसेलर’ के लेख को ही उलटना-पलटना शुरू किया।

क्या अमीश त्रिपाठी नायक के साथ न्याय कर पाने में सफल रहे हैं?

किसी ने सच ही लिखा है कि “बिना श्रेष्ठ विषय के श्रेष्ठ किताब नहीं लिखी जा सकती। मक्खी पर श्रेष्ठ साहित्य क्या लिखा जा सकेगा? यह नामुमकिन है, यों कोशिश बहुतों ने की है।” इस पुस्तक की विषयवस्तु या आधुनिक भारतीय राजनीति के महानायक की श्रेष्ठता असंदिग्ध है। प्रकाशक और लेखक भी नामचीन हैं। तो क्या अमीश त्रिपाठी नायक के साथ न्याय कर पाने में सफल रहे हैं?  इस सवाल का मन में कौंधना स्वाभाविक है क्योंकि लेखक ने प्रथम पृष्ठ पर ही यह घोषित कर दिया है कि ‘प्रधानमंत्री मोदी ने भारतीय सभ्यता के लिए भगीरथ प्रयास किया है।’ इसे ठीक से समझने के लिए हमें थोड़ा गहरे उतरना होगा।

आलेख के प्रथम पृष्ठ पर राष्ट्र-राज्य और साभ्यतिक राष्ट्र के बीच की महीन रेखा की हल्की सी चर्चा कर लेखक अचानक पुस्तक के नायक से प्रगाढ़ता को दर्शाने में व्यस्त हो गया है। तदुपरान्त विष्णु-पुराण के एक चर्चित श्लोक के अधूरे अर्थ की ओर संकेत करते हुए आधुनिक युग के अधिकांश भारतीयों सहित आजादी के बाद के शासकों पर भी न केवल अज्ञानी होने का ठीकरा फोड़ा है अपितु शिक्षित भारतीयों पर भी आरोप मढ़ दिया है कि वे अपने प्राचीन गौरवबोध से कट चुके हैं। जड़ों से लगाव का कौतुक-प्रदर्शन करते हुए अमीश त्रिपाठी स्वयं एक विदेशी लेखक मिलान कुंदेरा के वक्तव्य को उद्धृत करने के लिए मजबूर हो जाते हैं। अमीश यदि अज्ञेय के इस कथन ‘सबसे बड़ा दुख यह है कि हमारे पास कोई नियतिबोध, सेंस ऑफ डेस्टिनी नहीं है’, अथवा कुबेरनाथ राय के ‘किसी जाति को निर्वीय और सृजन क्षमता से विहीन बनाना हो तो उसे ‘सेक्स’ का ‘ड्रग’ दे दो और उसे विवेक-अंध बनाना हो तो ‘क्रोध’ का!’ से गुजरा होता तो उसे शायद भारत-भूमि से बाहर न झांकना पड़ता। जड़ों से सतही लगाव के कारण ही अमीश भाई प्रधानमंत्री के भीतर बैठे कवि-कलाकार से साक्षात्कार कर पाने में असमर्थ रहे हैं।

प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जब कभी देश के किसी कोने में जाते हैं तो वहाँ की कला, शिल्प और लोक से न केवल अपने को जोड़ते हैं अपितु वहाँ के जन या भूमि से अपना रिश्ता भी निकाल लेते हैं। इसके लिए यदि उन्हें पाताललोक भी जाना पड़ता है तो वे वहाँ तक भी जाने से गुरेज नहीं करते हैं। इतिहास में अनुप्रवेश की यह विधि उन्हें ‘किसी राष्ट्र की निर्मिति में कवि और कलाकार के सर्वोत्तम योगदान’ से आसानी से परिचित करा देती है। हमारे श्रेष्ठ और क्लासिकल ग्रन्थों में भी भारत के भूगोल की परिकल्पना पहले हमारे ऋषि-कवियों ने ही की थी। बाद के दिनों में राजनेताओं ने भले ही इसकी सीमा रेखा बनायी हो। इस बात को आनंद कुमारस्वामी ने ‘एसेज़ इन नेशनल आइडियलिज़्म’ पुस्तक में ठीक ढंग से प्रस्तुत किया है। अमीश ने इस बात को अगले पृष्ठ में स्वीकार भी किया है, लेकिन वहाँ भी उन्हें हारवर्ड के विद्वान का ही सहारा लेना पड़ा है। इतिहासलेखन हो या संस्कृतिबोध दोनों को ही चारु-कथन से शत हस्त वाजिनेन की दूरी बनाकर ही चलना पड़ता है। अन्यथा पाठक के लिए वह शुक-सारिका संवाद ही बनकर रह जाता है। 

प्रस्तुत आलेख में अमीश त्रिपाठी धर्म और रिलीजन के बीच सतही स्तर पर चलने वाली परिभाषा से बंधे रहने में ही सुकून महसूस करते हैं। धर्म और संस्कृतिबोध से उनका अपरिचय प्रधानमंत्री के भीतर जल रहे देशात्मबोध की लौ को पहचानने में असफल रहा है। प्रधानमंत्री स्पष्ट तौर पर मानते हैं कि मूलभूत नैतिकता तो सभी धर्मों में एक ही है। संप्रदायगत नैतिकता की एक सीमा है जो उक्त संप्रदाय तक ही सीमित होती है। प्रधानमंत्री अक्सर समूचे देश के लिए सत्य, दया, क्षमा, ईमानदारी, मानव-प्रेम आदि नैतिक मापदंडों की वकालत करते हैं। लेखक का यह तर्क हास्यास्पद है कि धर्म ही किसी देश को बांधकर रखता है। और इसके लिए वह बांग्‍लादेश के निर्माण का उदाहरण भी रखता है। लेखक जो खुद ही पौराणिक कहानियों का ज्ञाता है, यह नहीं समझ पाया है कि विश्व में धर्मों को लेकर ही अब तक सबसे अधिक हत्याएं हुई हैं। मनुष्य की उत्पत्ति को लेकर हाल की वैज्ञानिक खोजों की भी अधूरी चर्चा ही इन पृष्ठों में हुई है। मनुष्य की उत्पत्ति का इतिहास बहुत पीछे जा चुका है और इसके उत्पत्ति-स्थल के रूप में अजरबैजान, जिसे कुबेरनाथ राय ने आज से पचास वर्ष पूर्व अपनी प्रज्ञा के आधार पर ‘आर्य बीज स्थान’ से संबोधित किया है, को मान्यता मिली है।

भारतीय मुस्लिमों की सहृदयता की ओर अमीश ने एक सर्वे के सहारे संकेत किया है। मनुष्य होने के नाते हम सबको सहिष्णु भाव अवश्य रखना चाहिए। अगर अमीश वाकई इसमें रुचि रखते हैं तो उन्हें 1960 के दशक की कुछ पत्रिकाओं सरस्वती, कल्पना, धर्मयुग को अवश्य उलटना चाहिए। उस दौर में भी यही संकट था और वे लोग (अमीश त्रिपाठी के अनुसार प्राचीन गौरवबोध से कटे हुए लोग) लिख रहे थे कि “मुस्लिम शासनकाल में केवल काले धब्बे ही नहीं, सुनहले बिंदु भी हैं। शेरशाह और अकबर, मीर कासिम और बहादुरशाह ऐसे ही सुनहले बिंदु हैं जिनका अभिनंदन हिंदू-मुसलमान-सिक्ख-ईसाई सभी उसी भांति करें जिस तरह से अशोक-विक्रमादित्य, पृथ्वीराज, प्रताप, शिवाजी और रणजीत सिंह का करते हैं। उसी भाँति हिंदू-मुसलमान दोनों के अंदर सत्य सहने की इतनी क्षमता हो कि वे अत्याचारी की निंदा सहन कर सकें, चाहे वह कोई भी क्यों न हो। प्रत्येक भारतीय को यह स्वीकार करना होगा कि मुहम्मद गौरी विदेशी आक्रामक था, पर शेरशाह एक स्वदेशी बंधु। शेरशाह को स्वदेशी स्वीकार करके गौरी के बारे में मौन धारण कर लेना या तो कायरता है अथवा भयंकर चालबाजी। यदि इतिहास सच्चा इतिहास है तो वह पूर्व और उत्तर दोनों पक्षों पर यही निर्भीक निर्णय देगा। यदि इस ऑब्जेक्टिव एवं निर्विकार बौद्धिकता को मानने की क्षमता देश के अंदर नहीं आयी तो भावात्मक एकता कभी नहीं आएगी। महमूद गजनवी को जब एक वर्ग अपना पुरखा मानता रहेगा, तो दूसरा वर्ग अपनी घृणा और अपमान को बिल्कुल भूलकर चुप रहेगा, यह सामाजिक मनोविज्ञान के प्रतिकूल है।” प्रधानमंत्री इसी बिना पर अपनी जड़ों की तलाश करने निकले हैं।

अमीश त्रिपाठी के पास इस सवाल का क्या जवाब है कि यूपी, बिहार में हिंदू अपनी भाषा-भोजपुरी, मैथिली या मगही लिखते हैं, पर मुसलमान चाहे वह मेरे गाँव का हो या बक्सर का, अपनी निरक्षरता के बावजूद ‘उर्दू’ को ही अपनी भाषा घोषित करता है।

भगीरथ प्रयास महज एक मुहावरा नहीं है। इस बात को आदरणीय प्रधानमंत्री ठीक से समझते हैं। यहाँ भी लेखक नायक के साथ न्याय कर पाने में असमर्थ रहा है। प्रधानमंत्री को पता है कि राजा भगीरथ भारत के सर्वोत्तम सिविल इंजीनियर रहे हैं। पानी की कमी से जूझ रहे अपने राज्य के लिए उन्होंने हिमालय से नदी-धारा को निकालकर मैदानी इलाकों तक पहुंचाया था। गंगा की यात्रा में अनेक ऐसे स्थल हैं जहां आज का सिविल इंजीनियर भी उस तकनीक को समझ पाने में असमर्थ है कि यह रास्ता आखिर बना कैसे। भगीरथ की इसी अंतर्दृष्टि को पकड़ने और उससे प्रेरणा ग्रहण करते हुए श्री नरेंद्र मोदी देश में रेल, सड़क, पुल, तीर्थ और मंदिर स्थल आदि अनेक अध:संरचना को मजबूत करने के लिए अहर्निश प्रयास कर रहे हैं। मंदिर आदि उनके लिए न केवल अध्यात्म अपितु कला और शिल्प के लिए जीवनदायिनी भी है जिसकी ओर एक सदी पूर्व भारतीय कला के भगीरथ कुमारस्वामी ने हमारा ध्यान आकृष्ट किया था।

काशी और विश्वनाथ मंदिर की चर्चा करते हुए अमीश की नजर थोड़ी संकुचित हो गयी है। शहर में कुछ सुधार और सौंदर्यीकरण जरूर हुआ है, लेकिन इससे कोई ऐसा गर्वीला भाव नहीं उभरता है जिससे आँख भर जाये। उससे कई गुना भौतिक विकास अहमदाबाद, मुंबई, गुड़गांव, दिल्ली आदि शहरों में हुआ है। काशी की ख्याति दूसरे कारणों से है। दक्षिण भारत शैव संप्रदाय का अनुगामी है तो उत्तर भारत वैष्णव संप्रदाय का। दक्षिण भारत के निवासियों की यह मान्यता है उन्हें जीवन में एक बार काशी अवश्य जाना चाहिए। भारत मोक्षकामी देश है। भारत कैसे एक रह सके उसके लिए यह शानदार व्यवस्था हमारे पूर्वजों की उदात्त और दूरदर्शी सोच को इंगित करती है। प्रधानमंत्री की असल चिंता देश को एक बनाए रखने की है। इसीलिए उनकी नजर दूर खोह में बैठे ‘अब्बे डुबोयस’ और ‘चार्ल्स ट्रेवेल्यान’ जैसों की आलोचना को सहजतापूर्वक स्वीकार करती हुई उससे समाधान निकालने की कोशिश करती है। आलोचना को समाधान में बदलने, उसे उत्तर पंथा की ओर अग्रसर करने की यह कला उन्हें जन्मजात लब्ध है। इसलिए वे देश के समग्र विकास के साथ-साथ तीर्थस्थलों के माध्यम से देशात्मबोध को जागृत करने के लिए कोशिश कर रहे है। हाँ, गुजराती होने के नाते नफा-नुकसान की समझ भी खूब रखते हैं। इसलिए अध्यात्म के साथ-साथ पर्यटन को भी वे अपने नजर से ओझल नहीं होने देते हैं। 

बीस पृष्ठों के इस आलेख में कुछ एक ऐसी त्रुटियाँ हैं जो इस आलेख को अगंभीर बना देती हैं। काशी शहर पर भावुक अमीश त्रिपाठी लेखक का यह बताना कि बीएचयू के दर्शन विभाग में ‘हिन्दू अध्ययन’ पाठ्यक्रम शुरू किया गया है, तथ्यों के प्रति उनकी शुक-दृष्टि को दर्शाता है। इसी तरह इस आलेख में गैर-जरूरी ढंग से आठ पंक्तियों को सद्य: दुहरा दिया गया है। यह न केवल विषय को हल्का बनाता है अपितु आधुनिक भारत के शानदार शिल्पी के प्रति लेखकीय अगंभीरता को भी हमारे सामने लाता है। इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री के भाषाई गौरव की चर्चा करते हुए भी लेख के अंत में ‘मदर इंडिया’ का उद्बोधन भी कान में कर्कश-संगीत ही पैदा करता हैं। भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय क्षितिज पर आगमन को ‘राष्ट्रीय स्तर की परिघटना’ के रूप में देखा है, लेकिन इसके उलट इस आलेख में अमीश त्रिपाठी द्वारा सिलसिलेवार ढंग से की गयी तथ्यगत भूलें, दुहराव, सही भारतबोध का अभाव उनके प्रमाद का परिचय कराते हैं।

कला और संस्कृति में गहरी रुचि और उसके प्रकटीकरण के लिए नए-नए प्रतीकों को गढ़ने में माहिर प्रधानमंत्री को केंद्र में रखकर लिखा गया यह आलेख अतिरिक्त श्रम और संस्कृतिबोध की समझ के साथ-साथ दूसरी आवृत्ति से पूर्व प्रकाशक से तथ्यों और हिज्जों की गलतियों पर भी नजर दौड़ाने की भी मांग करता है।


लेखक महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के गांधी एवं शांति अध्ययन विभाग से सम्बद्ध हैं


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