संक्रमण काल: साहित्य का नया रास्ता


मित्र हरे प्रकाश उपाध्याय के ताजा कविता-संग्रह ‘नया रास्ता’[i] से गुजरते हुए कुछ अवांतर बातें घुमड़ती रहीं।

हरे बिहार के भोजपुर अंचल के वासी हैं तथा हिंदी के उन कवियों में शामिल हैं जिन्हें कम उम्र में ही सराहना मिली। ‘खिलाड़ी दोस्त और अन्य कविताएं’ (2009) उनका पहला कविता संग्रह था। ‘नया रास्ता’ उनका दूसरा संग्रह है। उन्हें कविता लेखन के लिए अंकुर मिश्र सम्मान से नवाजा जा चुका है लेकिन इस नए संग्रह की अधिकांश कविताएं साधारण हैं। उन्होंने इनमें भारत की गरीबी[ii], भूमंडलीकरण के दुष्प्रभाव[iii], जातिवाद की समस्या[iv] से संबंधित उन विषयों को उठाया है जिन पर इसी लहजे में पहले ही बहुत बात हो चुकी है। इसके अलावा, इन कविताओं में  कवि के लिए सुबह चाय बनाती[v] और दफ्तर से थक कर लौटने पर उसके चेहरे पर चिपका “गुस्सा, चिंता, धूल-पसीना” को “अपनी जीभ और होठों से पोंछ देना’[vi] चाहने वाली गुड़ीमुड़ी पतिव्रता है, कागज पर चिट्ठियां लिखने वाली प्रेमिका[vii] हैं। इन कविताओं में कवि टीवी और अखबार से त्रस्त है क्योंकि टीवी ‘गालियां देना’, ‘डिस्को’ जाना और ‘अवैध संबंध बनाना’[viii] सिखाता है और अखबारों में ‘अधनंगी नायिकाओं  का सिक्का’[ix] चलता है। 

हरेप्रकाश उम्र में मुझसे एक वर्ष छोटे हैं। उनका जन्म 1981 में हुआ है। यानी वे इस समय 41 वर्ष के हैं। पिछले लगभग डेढ़ दशक से मैंने कोई “चिट्ठी” नहीं लिखी। यह ईमेल और अन्य डिजिटल संदेशवाहक सेवाओं का दौर है। क्या आज प्रेम कर रही कोई लड़की “चिट्ठी” लिख रही इस प्रेमिका से जुड़ाव महसूस करेगी? क्या आज की किसी पत्नी के मानस को ये कविताएं छुएंगी या कोई पुरुष वास्तव में इसे अपने यथार्थ के निकट पाएगा? इंटरनेट के इस दौर में टीवी से “अवैध संबंध बनाना सीखना” और अखबार में “अधनंगी” लड़कियों की तस्वीर से त्रस्त रहना भी बताता है कि कविता की यह दुनिया समकालीन नहीं है। इंटरनेट के माध्यम से  जेंडर-विमर्श घर-घर पहुंच चुका है। भारत समेत दुनिया के अनेक देशों ने एलजीबीटीक्यू (LGBTQ) के अधिकारों को मान्यता दे चुकी है लेकिन आश्चर्य है कि इस दौर में भी हमारी कविता स्त्री के अपने मनपसंद कपड़े पहनने की आजादी से त्रस्त है! (अधनंगे लड़कों की तस्वीरों से उसे कोई गुरेज़ नहीं है)

मजेदार यह है कि इसी संग्रह की एक कविता ‘प्रथम मिलन’ में हरे प्रकाश प्रथम संभोग का चित्रण करते हैं, जिसमें “उधम मचाती देहगंध” है, कवि के “हाथों में उन अंगों की यादें” हैं’ और “होठों की हलचल है”। काम-क्रिया का चित्रण करने वाली इस कविता की निम्नांकित पंक्तियों में व्यक्त श्लेष में कवि क्या कहना चाहता है, यह भी पाठक से छुपा नहीं रहता:

तमतमाया था तुम्हारा चेहरा
पता नहीं वह क्या कहता था
तुम्हारी आंखों में इतना रस था
मैं पीता जाता था
तुम देती जाती थी
उसमें बहुत नशा था
[x]

कवि में मौजूद जेंडर संबंधी कुंठा तथा वैचारिक विरोधाभास, समकालीन यथार्थ से दूरी और कविता में अब तक चले आ रहे रूपक और प्रतीकों का र्निबुद्धिपूर्ण स्वीकार तथा कहने की शैली तथा संवेदनात्मक-तर्क के दुहराव के कारण हरे की इन कविताओं ने मन को उतनी गहराई से नहीं छुआ, जितनी अपेक्षा मुझे थी। इन कमियों के बावजूद इन कविताओं के साथ समय गुजारना अच्छा लगा।

दरअसल, दिनों-दिन उपन्यास और कहानियां “पढ़ना” कठिन होता जा रहा है। साहित्य संबंधी लेखन-अध्यापन में लगे हम लोगों को पढ़ने काम अक्सर एक पेशागत काम की तरह करना पड़ता है। ऐसा साहित्य हिंदी में बहुत कम आ भी रहा है जिसे पढ़ कर बहुत कुछ नया मिलने की उम्मीद जगे। वस्तुत: बात सिर्फ हिंदी की नहीं है, परंपरागत रूप से जिसे हम विशुद्ध साहित्य कहते हैं, वह अब अपने समय की संवेदना, तेजी से बदलते यथार्थ और उपभोक्ता की जरूरतों की नब्ज पकड़ने में सफल नहीं हो रहा।

ऐसा क्यों है? लेखक पिछड़ गए हैं या प्रिंट नामक वह माध्यम पुराना पड़ गया है जिसमें हम पिछले लगभग छह सौ सालों से[xi] साहित्य को प्रसारित करने के आदी रहे हैं? या फिर ‘साहित्य’ ही अप्रासंगिक हो गया है? संभवत: संकट दुहरा है। एक ओर प्रिंट माध्यम में काम करने वाले लेखक अपने समय से पिछड़े हुए हैं, दूसरी ओर यह माध्यम भी पुराना पड़ गया है।

इंटरनेट और मल्टीमीडिया की तकनीक के कारण न सिर्फ सूचनाएं बल्कि ज्ञान और संवेदना तक पहुंच सहज हो गई है। आज पढ़ने, जानने, गुनने के लिए चीजें बहुत ज्यादा हैं जबकि समय बहुत कम। अध्येताओं का कहना है कि लेखन के साढ़े पांच हजार सालों के संपूर्ण इतिहास में जितना लिखा गया, उससे कहीं ज्यादा इंटरनेट और सोशल मीडिया के आगमन के बाद आज एक दिन में लिखा जा रहा है।

इस कारण पाठक का अधिक समय लेने और उसके एवज में उसे बहुत कम देने वाली विधाएं पीछे छूटती जा रही हैं और स्वाभाविक तौर पर उनके लेखक भी अप्रासंगिक हुए जा रहे हैं। 7 मिनट की एक छोटी-सी लघु-फिल्म आज हमें वह दे सकती है जिसकी अपेक्षा एक उपन्यास या लंबी कहानी से की जाती थी, बल्कि अनेक मामलों में वे लिखित साहित्य की तुलना में ज्यादा देती हैं। यह सोचना खामखयाली है कि इन नए माध्यमों में व्यक्त यथार्थ जटिल नहीं है या उस संवेदना को नहीं उभारता जिसे लिखित साहित्य उभारता है, बल्कि बहुआयामी होने के कारण वह यथार्थ की उन परतों को छूने में सक्षम हो जाता है जहां प्रिंट नहीं पहुंच सकता। ये नए माध्यम जैविक रूप से भी हमारे हारमोन्स को, हमारे भाव जगत के छुपे हुए कोनों को उद्वेलित करने में प्रिंट की तुलना में अधिक समर्थ हैं। ये अब तक अलक्षित रहे संवेदना के अनेक अनूठे बिंदुओं को उभारते हैं, और प्रिंट की तुलना में अधिक गहरी छाप छोड़ते हैं। वस्तुत: ये नई विधाएं साहित्य का ही विस्तार हैं, कथा और काव्य तत्व इनमें भी है और इन्हें इस रूप में देखने-समझने की कोशिश करनी चाहिए।

इस ख्याल से देखें तो साहित्य एक नए रास्ते पर चल पड़ा है। प्रिंट की एकरसता की जगह वह बहुआयामी माध्यमों के बीच निर्मित-प्रसारित हो रहा है और करोड़ो-करोड़ लोग उसके साथ चल रहे हैं, लेकिन पारंपरिक आलोचकगण पीछे छूट गए हैं। साहित्य के प्रसारण के नए माध्यमों को, इसके नए-नए रूपों को, इसके मूल्यों के नए वाहकों को वे रेखांकित नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि साहित्य को पसंद करने वाले लोग बहुत कम हो गए हैं।

अभी तक आलोचना की प्रवृत्ति एकांतिक रही है। मलतब यह कि एक आलोचक अपने व्यक्तिगत ज्ञान के आधार पर कुछ कहता रहा है। लेकिन नई तकनीक, विशेषकर इंटरनेट  के कारण सूचनाओं, ज्ञान और संवेदना का जो बहुवर्णी संसार निर्मित हुआ है, उसमें आलोचक के आप्त-वाक्य  एकरस और महत्वहीन प्रतीत होने लगे हैं। 

आलोचना के क्षेत्र में भी कुछ नई कोशिशों पर पिछले दिनों मेरी नजर गई, जिसमें से एक का जिक्र सिर्फ बानगी के लिए कर रहा हूं। विशेषकर इसलिए क्योंकि यह प्रयास हिंदी में हो रहा है।

पोषम पा[xii] नामक हिंदी साहित्य पर केंद्रित वेबसाइट ने आलोचना का पॉडकास्ट[xiii] शुरू किया है, जिसका नाम है – “अक्कड़ बक्कड़”[xiv]। इसमें अनेक नई-पुरानी साहित्यिक कृतियों, फिल्मों, डॉक्युमेंटरियों पर सधी हुई आलोचनाएं प्रसारित हो रहीं हैं। यह आलोचना एकांतिक नहीं होती, बल्कि एक कृति पर तीन-चार लोग एक साथ चर्चा करते हैं और उसके विभिन्न पहलुओं को सामने लाते हैं। ये वे आलोचक नहीं हैं जिन्हें हम साहित्यिक पत्रिकाओं में किसी कृति का प्रशस्ति पाठ करते तो किसी लेखक को दुर्वाशा-शाप देते देखते हैं। ये युवा आलोचक अकादमिक साहित्यिक जगत के लिए प्राय: अनाम हैं। इनमें से कुछ के नाम हैं – पुनीत कुसुम, शिवा, सोनल, सहज अजीज आदि। इनकी आवाज में खनक है और बातों में दम है। इनकी आलोचना में मौलिकता और बौद्धिक-तीक्ष्णता है।

इस पर प्रसारित आलोचना-कार्यक्रमों के विषयों की बानगी देखिए: “चंदन पांडेय का वैधानिक गल्प”[xv], “दो फिल्में: ओडिसी (1984) और ट्वेल्व इयर्स अ स्लेव (2013)”[xvi], “विद्या बालन की फिल्म शेरनी”[xvii], “मृदुला गर्ग का नाटक जादू की कालीन”[xviii], “भारतीय मध्यवर्ग पर विमर्श: संदर्भ हिंदी की समकालीन कहानियां”[xix], “सुजाता का उपन्यास एक बटा दो”[xx], “अ सीरियन लव स्टोरी (डॉक्युमेंटरी फिल्म, 2015)”[xxi], “गुलजार का उपन्यास दो लोग”[xxii] आदि।

इन विषयों में आप देख सकते हैं कि कैसे प्रिंट साहित्य, सिनेमा, डॉक्यूमेंटरी सब मिले-जुले हैं। कार्यक्रम ताजगी भरी हिंदी में होता है, जैसा कि इस पॉडकास्ट के नाम “अक्कड़-बक्कड़” से ही जाहिर है, लेकिन विषय के लिए यह भाषा पर निर्भर नहीं है। यहां हिंदी, अंग्रेजी, स्पेनिश, उर्दू, फ्रेंच किसी भी भाषा के साहित्य और सिनेमा पर चर्चा होती है। इन आलोचकों के लिए कोई भी माध्यम कम या अधिक गंभीर नहीं है। वे इन्हें समान सहज भाव से लेते हैं। यह आलोचना का नया बहुआयामी माध्यम है, जो अधिक समावेशी, अधिक सार्थक और कारगर है।

बहरहाल, मौजूदा दौर में लिखे जा रहे उपन्यास और कहानी-संग्रह के बजाय कविता-संग्रह मुझे अपनी ओर अधिक खींचते हैं। ऐसा नहीं है कि आज कहानियों की तुलना में कविताएं अच्छी लिखी जा रही हैं, लेकिन कविता-संग्रहों में स्फुलिंग की तरह ही सही, कुछ न कुछ विशेष मिल जाने की उम्मीद अधिक रहती है और सबसे महत्पूर्ण यह कि वे समय कम लेती हैं।

जैसे औद्योगिक-क्रांति के कारण उपन्यास की ओर रुझान बढ़ा था और काव्य किंचित पीछे हो गया था; संभव है कि सूचना-क्रांति के परवर्ती काल में काव्य की महत्ता फिर से बढ़े। मुझे लगता है कि खासकर छोटी कविताओं में विचार और संवेदना का सूत्रीकरण अधिक पसंद किया जाएगा और ऐसे वैचारिक-साहित्य की पूछ सबसे अधिक बढ़ेगी, जो पाठक के सम्मुख तीक्ष्ण और सम्यक विश्वदृष्टि रखे। वाक्जाल और अनावश्यक दृश्य-चित्रण; जो कि अभी कहानी और कविता का एक आवश्यक अंतर्निहित तत्व है, को अस्वीकार कर दिया जाएगा। मेरा मतलब है कि कोई विधा पाठक का जितना समय लेती है, अगर वह उसी अनुपात में पाठक को वे चीजें देती हैं जिसकी तलाश में वह है, तो वह विधा आगे बढ़ेगी। चाहे वह कविता हो या मल्टीमीडिया पर आधारित कोई बिल्कुल नई चीज। प्रिंट के अतिरिक्त साहित्य के प्रसार के अनेकानेक नए माध्यम भी विकसित और स्वीकृत होंगे, बानगी के तौर पर जिनका जिक्र मैंने ऊपर अक्कड़-बक्कड़ के संदर्भ में किया।

बात हरे प्रकाश के कविता संग्रह से शुरू हुई थी। हरे के इस संग्रह में भी कुछ ऐसी कविताएं हैं जो उनकी काव्य-प्रतिभा का पता देती हैं। तीन कविताएं फेसबुक की जिंदगी पर केंद्रित हैं। इनके विषय का नयापन रेखांकित करने योग्य है। उनमें से एक देखें :

आज कुछ मित्रों को अमित्र बनाया
यह काम पूरी मेहनत और समझदारी से किया
जरूरी काम की तरह
जिंदगी में जरूरी है मित्रताएं
तो अमित्रता भी गैरजरूरी नहीं
जो अमित्र हुए
हो सकता है वे मित्रों से बेहतर हों
मेरी शुभकामना है कि वे और थोड़ा सा बेहतर हों
किसी मित्र के काम आएं
इतना कि अगली बार जब कोई उन्हें अमित्र बनाने की सोचे
तो उसकी आत्मा उनकी रक्षा करे
तब तक मेरी यह प्रार्थना है
अमित्रों का दिल
उनके दल से मेरी रक्षा करे

अमित्र उन संभावनाओं की तरह हैं
जिन्हें अभी पकना है
जिनका मित्र मुझे फिर से बनना है।[xxiii]

अमित्रता, हरे प्रकाश उपाध्याय

इस कविता में फेसबुक की जो दुनिया है, वह इसे प्रासंगिक बनाती है। कविता आभासी दुनिया के नए लोकाचार को रेखांकित करती है और ट्रोल नामक नई प्रजाति को कविता की दुनिया का हिस्सा बनाती है। अमित्र कर देना, ब्लॉक कर देना, आभासी दुनिया में जारी हिंसा, सांप्रदायिकता आदि के प्रतिकार का एक तरीका है। हरेप्रकाश की यह कविता चुपचाप इसे एक सैद्धांतिक आधार प्रदान करती है और ‘अमित्रता’ जैसा एक नया शब्द भी हिंदी को देती है। (मसलन, मैं “ब्लॉक कर देना” के लिए अमित्रता जैसा सटीक हिंदी शब्द ढ़ूढने में असमर्थ हूं)

वर्चुअल दुनिया से संबंधित इन कविताओं और अक्कड़-बक्कड़ जैसे पॉडकास्टों व साहित्य और तकनीक के सम्मिश्रण के लिए जारी अनेकानेक कोशिशों से गुजरते हुए आशा बनती है कि पुराने मिजाज का हिंदी साहित्य भी देर-सबेर साहित्य के नए रास्तों को स्वीकार करेगा।

हरेप्रकाश के संग्रह की शीर्षक- कविता ‘नया रास्ता’ की पंक्तियां है :

जब सारे जाने हुए रास्ते बंद हो जाते हैं
तो आदमी एक नए रास्ते के बारे में सोचता है
[xxiv]

साहित्य के बारे बात करते हुए उनकी पंक्तियों को कुछ ऐसे भी कहा जा सकता है :

जब सारे जाने हुए माध्यम पुराने पड़ जाते हैं
तो साहित्य नए रास्तों के बारे में सोचता है।


[प्रमोद रंजन की दिलचस्पी संचार माध्यमों की कार्यशैली और ज्ञान के निर्माण की प्रक्रिया के अध्ययन व विश्लेषण में रही है। वे असम विश्वविद्यालय के रवीन्द्रनाथ टैगोर स्कूल ऑफ़ लैंग्वेज एंड कल्चरल स्टडीज़ में सहायक प्रोफ़ेसर हैं। संपर्क : +919811884495, janvikalp@gmail.com ]

संदर्भ सूची

[i] उपाध्याय हरेप्रकाश. नया रास्ता. प्रथम संस्करण. रशिम प्रकाशन, लखनऊ, 2021. Web. <https://www.amazon.in/-/hi/Hare-Prakash-Upadhyay/dp/8195072151>.Print.

[ii] उपाध्यायहरेप्रकाश. “इंतजार.” नया रास्ता. रश्मि प्रकाशन, लखनऊ. 18. Print.

[iii] उपाध्यायहरेप्रकाश. “अब यह देश.” नया रास्ता. रश्मि प्रकाशन, लखनऊ. 11. Print.

[iv] उपाध्यायहरेप्रकाश. “खंडहर -1.” नया रास्ता. रश्मि प्रकाशन, लखनऊ. 21–23. Print.

[v] उपाध्याय हरेप्रकाश. “दफ्तर.” नया रास्ता. रश्मि प्रकाशन, लखनऊ. 43–49.Print.

[vi] उपाध्याय हरेप्रकाश. “बॉस और बीबी.” नया रास्ता. रश्मि प्रकाशन, लखनऊ. 48–49. Print.

[vii] उपाध्याय हरेप्रकाश. “अधूरे प्रेम का अंधेरा.” नया रास्ता. रश्मि प्रकाशन, लखनऊ. 87–89. Print.

[viii] उपाध्याय हरेप्रकाश. “दफ्तर.” नया रास्ता. रश्मि प्रकाशन, लखनऊ. 43–49.Print.

[ix] उपाध्याय हरेप्रकाश. “आंसू.” नया रास्ता. रश्मि प्रकाशन, लखनऊ. 65–66. Print.

[x] उपाध्याय हरेप्रकाश. “प्रथम मिलन”. नया रास्ता. रश्मि प्रकाशन, लखनऊ, 2021, पेज : 93-95.

[xi] जर्मनी के जॉन गुटनबर्ग 1440 से 1450 ईसवी के बीच तैलीय स्याही से मुद्रण की तकनीक खोजी थी, जिससे मौजूदा मुद्रण कला का जन्म हुआ।

[xii] “ पोषम पा. <https://poshampa.org/>

[xiii] पॉडकास्ट उस डिजिटल ऑडियो फाइल को कहते हैं जिन्हें श्रोता अपने डिवाइस में डाउनलोड कर सकता है तथा कहीं भी, कभी भी सुन सकता है। इस माध्यम में अपनी पसंद का  कार्यक्रम आसनी से पाया सकता है तथा अपनी जरूरत के अनुसार उन फाइलों को सुनाने का क्रम बनाया सकता है । ये एक प्रकार से रेडियो-ब्रॉडकास्टिंग की तरह है लेकिन उसकी तुलना में उपभोक्ता को बहुत अधिक सहुलियत प्रदान करता है तथा इनका निर्माण भी बहुत आसानी से किया जा सकता है। इसके निर्माण के लिए सामान्यत: एक कंप्यूटर, एक माइक्रोफोन और एक शांत कमरे की आवश्यकता होती है। पॉडकास्ट के आविषकार के शुरूआती बीज सन् 2000 में अमेरिकी लेखक व इंटरनेट एक्टिविस्ट ट्रिस्टन लुइस द्वारा तैयार किए गए एक ड्राफ्ट में थे, जिसमें उन्होंने आरएसएस फीड में ऑडियो और विजुअल फाइलों को समाहित करने की जरूरत बतायी थी। उनके ड्राफ्ट को अमली जामा सॉफ्टवेयर डेवलपर, उद्यमी और लेखक डेव वाइनर ने इसके लिए विशिष्ट तकनीक की खोज कर पहनाया। शुरू-शुरू में इसे ‘ऑडियो ब्लॉगिंग’ कहा जाता था। फरवरी, 2004 में द गार्डियन में प्रकाशित एक लेख में इसे पहली बार “पॉडकास्टिंग” कहा गया। यह शब्द एप्पल के मीडियो प्लेयर सॉफ्टवेयर आईपॉड और ब्रॉडकास्टिंग को मिलाकर बना है। बाद में यही नाम प्रचलित हो गया। 2005 में एप्पल ने आईट्यून 4.9 नामक एक नया मीडिया प्लेयर सॉफ्टवेयर जारी किया, जिसमें पॉडकास्ट को विशेषतौर पर होस्ट करने की सुविधा थी। उसके बाद से पॉडकास्टिंग दुनिया भर में तेजी से लोकप्रिय हुई तथा एप्पल के अतरिक्त अन्य कंपनियों ने भी इसके लिए प्लेटफार्म विकसित किए। एप्पल द्वारा जारी किए जाते ही 2005 में ही यह भारत भी पहुंचा। 2020 में जारी प्राइस वाटर हाउस कूपर्स की मीडिया एंड एंटरटेनमेंट आउटलुक रिपोर्ट  के अनुसार भारत में पॉडकास्ट के 5.8 करोड़ श्रोता थे। भारत आज चीन और अमेरिका के बाद पॉडकास्ट सुनने वालों का तीसरा सबसे बड़ा बाजार है। उपरोक्त रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि भारत अगले पांच वर्षों में पॉडकास्ट के श्रोताओं की संख्या में मासिक आधार पर 30 प्रतिशत चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर का गवाह बनेगा।

[xiv] “Akkad Bakkad • A Podcast on Anchor.” <https://anchor.fm/poshampaorg>.

[xv] Kusum, Puneet, and Sahej Aziz. Books: Vaidhanik Galp | a novel by Chandan Pandey. N.p. Audio Recording. Akkad Bakkad.

[xvi] Kusum, Puneet, Sahej Aziz, and Vijay Sharma. Movies: Solomon Northup’s Odyssey (1984) and Twelve Years A Slave (2013). N.p. Audio Recording. Akkad Bakkad.

[xvii] Aziz, Sahej, Shiva, and Sonal. Movies: Sherni (2021). N.p. Audio Recording. Akkad Bakkad.

[xviii] Aziz, Sahej, and Puneet Kusum. Books: Jadu Ka Kaaleen | a play by Mridula Garg. N.p. Audio Recording. Akkad Bakkad.

[xix] Shiva et al. Stories: Discussing the ‘Middle Class’ through three Hindi stories. N.p. Audio Recording. Akkad Bakkad.

[xx] Kusum, Puneet, and Sahej Aziz. Books: Ek Bata Do | a novel by Sujata. N.p. Audio Recording. Akkad Bakkad.

[xxi] Kusum, Puneet, and Sahej Aziz. Documentary Film: A Syrian Love Story (2015). N.p. Audio Recording. Akkad Bakkad.

[xxii] Kusum, Puneet, Sahej Aziz, and Pathik Gheewala. Books: Do Log | a novel by Gulzar. N.p. Audio Recording. Akkad Bakkad.

[xxiii] उपाध्याय हरेप्रकाश. ‘अमित्रता’. नया रास्ता. रश्मि प्रकाशन, लखनऊ. 70. Print.

[xxiv] उपाध्याय हरेप्रकाश. ‘नया रास्ता’. नया रास्ता. रश्मि प्रकाशन, लखनऊ. 60. Print.


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