हिंदी का पुराना संस्कार और नये मनुष्य का संकट
जीवन की विराटता में तकनीकी के रथ पर सवार तूफानी गति से भागता नया मनुष्य भी है जो हमारी – “सुनो तो! रुको!! ठहरो!!!” – की पुकार को सुनने को तैयार नहीं है। हिंदी के स्वरूप को, उसकी अभिव्यक्तियों को, उसके शब्द भंडार और प्रकृति को निर्धारित करने वाली शक्तियां हमारी सदिच्छा से कहीं अलग बाजार और तकनीकी के द्वारा निर्धारित हो रही हैं।
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