सबके लिए स्वास्थ्य: विश्व स्वास्थ्य दिवस पर WHO के चार दशक पुराने घिसे-पिटे जुमले का सच


सन् 1977 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की तीसवीं विश्व स्वास्थ्य सभा ने सत्रह दिनों की (2-17 मई 1977) मैराथन बैठक के बाद ‘’सन् 2000 तक सबको स्वास्थ्य’’ का संकल्प स्वीकार किया था। दुनिया भर में इस घोषणा और पहल की सराहना हुई थी। इस बैठक में 194 सदस्य देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। लक्ष्य के 23 वर्षों के बावजूद ‘’सन् 2000 तक सबको स्वास्थ्य’’ का नारा जुमला सिद्ध हुआ। उस दौरान सरकारों की पहल और स्वास्थ्य सम्बंधी कार्यक्रमों को देख कर जन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने स्थिति का अंदाजा लगा लिया था और तब ‘’लोगों के स्वास्थ्य के अधिकार’’ की गारंटी की मांग उठने लगी थी। इस दौरान ‘’सबके लिए स्वास्थ्य’’ के संकल्प के प्रति सरकार कितनी गंभीर थी इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि तब सरकार स्वास्थ्य पर कुल जीडीपी का एक फीसदी भी खर्च नहीं कर पा रही थी। स्पष्ट है कि संकल्प और घोषणा के बावजूद लोगों का स्वास्थ्य सरकार की प्राथमिकता सूची में नहीं था। बाद में सन् 2000 से 2015 तक “मिलेनियम डेवलपमेंट गोल” की घोषणा कर दी गई। यह समय भी बीत गया। हुआ कुछ खास नहीं। फिर सन् 2015 से 2030 तक के लिए “सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल” का लक्ष्य तय कर दिया गया। यानी अमल हो या न हो, जुमलों की घोषणा होती रही।

वर्ष 2023 के विश्व स्वास्थ्य दिवस (7 अप्रैल) का थीम डब्लूएचओ ने फिर से “सब के लिए स्वास्थ्य” तय किया है। आम लोगों को लगेगा कि यह तो बहुत सराहनीय है। वैसे भी कथित तेज आर्थिक विकास के दौर में लोगों का स्वस्थ रहना जरूरी है, व्यवहार में भले ही यह संभव न हो लेकिन जुमले छोड़ते ही रहने चाहिए। कम से कम लोग नाउम्मीद तो नहीं होंगे!

भारत सरकार के नीति आयोग ने विगत 27 दिसंबर 2021 को राज्य स्वास्थ्य सूचकांक का चौथा संस्करण जारी किया है। इस रिपोर्ट के अनुसार देश का सबसे ज्‍यादा आबादी वाला राज्य उत्तर प्रदेश (30.57 अंक के साथ) सबसे निचले पायदान पर है जबकि कम आबादी वाला राज्य केरल (82.2 अंक के साथ) राज्य सूचकांक में सबसे ऊपर है। हिन्दी पट्टी के लगभग सभी राज्य स्वास्थ्य सूचकांक में अच्छी स्थिति में नहीं हैं। बिहार (31), मध्य प्रदेश (36.72), हरियाणा (49.2), असम (47.74), झारखंड (47.55), ओडिशा (44.31), उत्तराखंड (44.21), राजस्थान (41.33) आदि राज्यों का इंडेक्स स्कोर 50 से कम ही है। जाहिर है कि स्वास्थ्य सूचकांक की यह दशा “सबके लिए स्वास्थ्य” के जुमले को यथार्थ में कैसे बदल पाएगी? बिना मजबूत स्वास्थ्य प्रणाली के जन जन तक स्वास्थ्य को पहुंचाना भला कैसे संभव होगा?

हमारे देश में स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे कभी आर्थिक सुधारों के केन्द्र में नहीं रहे बल्कि इन्हें सुधारों के मुख्य लक्ष्य, निवेश और विकास की राह में बाधक माना जाता है। देखा जा सकता है कि विभिन्न संक्रामक रोगों में आर्थिक सुधार एवं सरकार की नई आर्थिक नीतियों का ‘जन स्वास्थ्य’ पर गहरा असर है। भारत ने 1978 में ‘‘अल्माअता घोषणा पत्र’’ पर हस्ताक्षर कर ‘‘वर्ष 2000 तक सबके लिए स्वास्थ्य’’ लक्ष्य पाने की प्रतिबद्धता जताई थी। सन् 1981 में आइसीएसएसआर (इंडियन काउंसिल फॉर सोशल साइन्स रिसर्च) तथा आइसीएमआर (इंडियन काउन्सिल फॉर मेडिकल रिसर्च) के संयुक्त पैनल ने ‘सबके लिए स्वास्थ्य- एक वैकल्पिक राजनीति’’ शीर्षक से एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की थी। सन् 1983 में भारतीय संसद ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति को पारित कर इस लक्ष्य को प्राप्त करने का संकल्प लिया था, लेकिन आज तक इस नीति पर न तो अमल हुआ है और न ही किसी भी राजनीतिक दल के मुख्य एजेण्डा में यह मुद्दा शामिल हुआ।

विश्व स्वास्थ्य दिवस: एक साफ, स्वस्थ विश्व के निर्माण का संकल्प

यह वैश्विक आपदा का दौर है। इसमें जहां देश के लोग सरकार से वैश्विक स्तर के पहल की उम्मीद कर रहे हैं वहां सरकार सम्पन्न और बाजार को अहमियत देने वाले देशों की मात्र नकल कर रही है। सवाल है कि जन स्वास्थ्य की इतनी महत्ता और जरूरत के बावजूद भारत में इसकी उपेक्षा की मुख्य वजहें क्या हैं। सरकार चाहे किसी भी राजनीतिक दल की हो, जन स्वास्थ्य की हालत एक जैसी ही है। देश में ‘‘सबको स्वास्थ्य’’ के संकल्प के बावजूद विगत दो दशक में हम देश में स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे को भी खड़ा नहीं कर पाए। उल्टे ‘सबको स्वास्थ्य’ के नाम पर हमने गरीब बीमारों को ‘‘बाजारू भेड़ियों’’ जैसे निजी स्वास्थ्य संस्थानों के हवाले कर दिया। आम आदमी की सेहत को प्रभावित करने वाले रोग टीबी, मलेरिया, कालाजार, मस्तिष्क ज्वर, हैजा, दमा, कैंसर आदि को रोक पाना तो दूर हम इसे नियंत्रित भी नहीं कर पाए। उल्टे जीवन शैली के बिगाड़ और अय्याशी से उपजे रोगों को महामारी बनने तक पनपने दिया। अब स्थिति यह है कि रोगों का भी एक वर्ग और टी.बी., मस्तिष्क ज्वर, पोलियो गरीबों के रोग कहे जाने लगे और मधुमेह, उच्च रक्तचाप, थायराइड, हृदय रोग आदि अमीरों के रोग मान लिए गए। कोरोना वायरस जैसे संक्रमण को मुसलमानों के मरकज़ से जोड़ दिया गया तो एचआइवी/एड्स को अश्वेतों से फैलने वाला रोग बता दिया गया। हम भूल गए कि जन स्वास्थ्य की पहली शर्त है रोग से बचाव। इसमें जातिधर्म और नस्ल तलाशने के बजाय यदि समाज और सरकार व्यापक बचाव की राह बढ़ते और इसके समग्र पहलुओं पर विचार करते तो स्थिति कुछ और होती।

भारत में स्वास्थ्य की स्थिति पर नजर डालें तो सूरते हाल और चिन्ताजनक है। स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति भी खस्ता है। अन्य देशों की तुलना में भारत में कुल राष्ट्रीय आय का लगभग 4 प्रतिशत ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च होता है जबकि चीन 8.3 प्रतिशत, रूस 7.5 प्रतिशत तथा अमेरिका 17.5 प्रतिशत खर्च करता है। विदेशों में स्‍वास्‍थ्‍य की बात करें तो फ्रांस में सरकार और निजी सेक्टर मिलकर फंड देते हैं जबकि जापान में हेल्थकेयर के लिए कम्पनियों और सरकार के बीच समझौता है। ऑस्ट्रिया में नागरिकों को फ्री स्वास्थ्य सेवा के लिए ”ई-कार्ड“ मिला हुआ है। हमारे देश में फिलहाल स्वास्थ्य बीमा की स्थिति बेहद निराशाजनक है। अभी यहां महज 28.80 करोड़ लोगों ने ही स्वास्थ्य बीमा करा रखा है। इनमें 18.1 प्रतिशत शहरी और 14.1 प्रतिशत ग्रामीण लोगों के पास हेल्थ इंश्योरेंस है। इसमें शक नहीं है कि देश में महज इलाज की वजह से गरीब होते लोगों की एक बड़ी संख्या है। अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान एम्स के एक शोध में यह बात सामने आई है कि हर साल देश में कोई आठ करोड़ लोग महज इलाज की वजह से गरीब हो जाते हैं। यहां की स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था ऐसी है कि लगभग 40 प्रतिशत मरीजों को इलाज की वजह से खेत-घर आदि बेचने या गिरवी रखने पड़ जाते हैं। एम्स का यही अध्ययन बताता है कि बीमारी की वजह से 53.3 प्रतिशत नौकरी वाले लोगों मे से आधे से ज्यादा को नौकरी छोड़नी पड़ जाती है।

हमारे देश में आम लोगों के स्वास्थ्य की चिंता में महत्त्वपूर्ण है ‘‘आम आदमी की अपने भविष्य के प्रति आशंका’’। इसके अलावा बढ़ते रोग, एलोपैथिक दवाओं का बेअसर होना, रोगाणुओं-विषाणुओं का और घातक होना, नये विषाणुओं का आक्रमण, बढ़ती आबादी, बढ़ता कुपोषण, गरीबी आदि गम्भीर समस्याएं खड़ी कर रहे हैं। इन सबमें सबसे ज्यादा दिक्कतें कुछ लोगों की बढ़ती अमीरी और उसकी वजह से बढ़ती विषमता से खड़ी हो रही हैं। समाधान के रूप में डब्लूएचओ तथा विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) ‘‘स्वास्थ्य में निवेश’’ की बात करता है। उक्त दोनों अन्तरराष्ट्रीय संगठनों ने इसके लिए पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) मॉडल को अपनाने का सुझाव दिया। इसके विगत तीन दशकों में रोग भी जटिल हुए और विषमता भी बढ़ी। डब्लूएचओ की शुरूआती रिपोर्ट पर गौर करें तो पता चलता है कि सम्पन्न देशों में लोगों की स्वास्थ्य समस्याएं ज्यादातर अत्यधिक अमीरी से उत्पन्न हुई जबकि तीसरी दुनिया का विकासशील व अविकसित देशों में बीमारी की वजह संसाधनों की कमी, कुपोषण और गन्दगी ही है। डब्लूएचओ को अन्ततः यह मानना पड़ा था कि ‘‘अत्यधिक गरीबी’’ भी एक रोग है और इसे खत्म किए बगैर ‘‘सबको स्वास्थ्य’’ का सपना कभी पूरा नहीं हो सकता।

महामारियों के दौर में रूप बदलते वायरस: H3N2 और H1N1 का ताजा खतरा

बहरहाल, जहां देश को स्वस्थ बनाने के लिए गैर-बराबरी, आर्थिक असमानता को खत्म कर जनस्वास्थ्य को जनसुलभ बनाने की योजना पर काम करना था वहां स्वास्थ्य के लिए निजी कम्पनियों को मनमानी की छूट देना, बीमारी से बचने के लिए सोशल डिस्टेन्सिंग एवं धार्मिक/नस्लीय भेद खड़े करना जैसे उपाय प्रस्तुत किए जाएं और स्वास्थ्य के नाम पर चिकित्सकों को मुख्य भूमिका देने की बजाय पुलिस को और ताकत दे दी जाए तो समझा जा सकता है कि सरकार के लिए यह ‘‘आपदा में अवसर’’ उसके राजनीतिक स्वार्थपूर्ति का हथियार भर हो सकता है, महामारी से बचने का उपाय नहीं। जन स्वास्थ्य के लिए जन आन्दोलन, जन चेतना और जन भागीदारी की ज्यादा जरूरत है। यदि इसमें जन को दुश्मन के रूप में पेश किया जाएगा तो देश में सेहत को स्थापित करना आसान नहीं होगा। यदि सरकारें पहल नहीं करतीं तो समाज और लोग अपनी सेहत के लिए एकजुट हों और जनस्वास्थ्य की स्वयं उद्घोषणा करें। यदि हम ऐसा नहीं करते तो महामारी के साथ-साथ बाजार भी हमारा शोषण करता रहेगा और हम कभी स्वास्थ्य हासिल नहीं कर पाएंगे।

अब रोगों की वर्तमान स्थिति पर थोड़ी चर्चा कर लें। भारत में कैंसर, मधुमेह, उच्च रक्तचाप, श्वास की बीमारियाँ, तनाव, अनिद्रा, चर्मरोगों व मौसमी महामारियों में बेइन्तहा वृद्धि हुई है। बढ़ते रोगों के दौर में जहां मुकम्मल इलाज की जरूरत थी वहां दवाओं को महंगा कर स्वास्थ्य एवं चिकित्सा को निजी कम्पनियों के हाथों में सौंप दिया गया। सन् 2000 के आसपास निजी अस्पतालों की बाढ़ सी आ गई। कारपोरेट अस्पतालों की संख्या बढ़ी और धीरे-धीरे आम मध्यम वर्ग अपने उपचार के लिए निजी व कारपोरेट अस्पतालों का रुख करने लगा। प्राथमिक स्वास्थ्य व्यवस्था एक तो मजबूत भी नहीं हो पाई थी ऊपर से ध्वस्त होने लगी और दूसरी ओर बड़े सरकारी अस्पतालों में भीड़ बढ़ने लगी। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थाओं में इलाज एवं निदान के लिए एक-दो वर्ष की वेटिंग मिलने लगी। भीड़ का आलम यह कि अस्पतालों में अफरातफरी और अव्यवस्था का आलम आम हो गया। निजीकरण की वजह से अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान जैसे सुपर स्पेशिलिटी अस्पतालों में भी इलाज महंगा कर दिया गया। लोग सरकारी स्वास्थ्य सेवा के बजाय निजी अस्पतालों का रुख करने लगे। महंगे इलाज की वजह से ‘‘स्वास्थ्य बीमा’’ लोगों के लिए तत्काल जरूरी लगने लगा और देखते-देखते कई बड़ी कारपोरेट कम्पनियां स्वास्थ्य बीमा के क्षेत्र में कूद पड़ीं और स्वास्थ्य बीमा का क्षेत्र मुनाफे का एक बड़ा अखाड़ा सिद्ध हो गया।

कहने को निजीकरण व वैश्वीकरण के लिए कांग्रेस की सरकारें जिम्मेवार हैं लेकिन बाद में भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए की सरकारों ने तो और भी जोरशोर से निजीकरण एवं बाजारीकरण बढ़ाया। कहने को भाजपा एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने स्वदेशी जागरण मंच के नाम पर स्वदेशी के नारे तो लगाए लेकिन बाजारीकरण एवं निजीकरण को बेशर्मी से आगे बढ़ाया। नतीजा स्वास्थ्य और शिक्षा का क्षेत्र निजी मुनाफे के लिए सबसे बेहतरीन प्रोडक्ट के रूप में बढ़ने लगा। अब जब बीमारियां लाइलाज हैं, दवाएं महंगी हैं और आम लोग इतनी महंगी दवाएं और इलाज नहीं ले सकते तो उन्हें स्वास्थ्य बीमा की मीठी चटनी के बहाने तसल्ली दी जा रही है।

भारत में स्वास्थ्य पर कुल व्यय अनुमानतः जीडीपी का 5.2 फीसदी है जबकि सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय पर निवेश केवल 0.9 फीसदी है, जो गरीबो और जरूरतमंद लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से काफी दूर है जिनकी संख्या कुल आबादी का करीब तीन-चौथाई है। पंचवर्षीय योजनाओं ने निरंतर स्वास्थ्य को कम आवंटन किया है (कुल बजट के अनुपात के संदर्भ में)। सार्वजनिक स्वास्थ्य बजट का बड़ा हिस्सा परिवार कल्याण पर खर्च होता है। भारत की 75 फीसदी आबादी गांवों में रहती है फिर भी कुल स्वास्थ्य बजट का केवल 10 फीसदी इस क्षेत्र को आवंटित है। उस पर भी ग्रामीण क्षेत्र में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा की मूल दिशा परिवार नियोजन और शिशु जीविका व सुरक्षित मातृत्व (सीएसएसएम) जैसे राष्ट्रीय कार्यक्रमों की ओर मोड़ दी गई है जिन्हें स्वास्थ्य सेवाओं के मुकाबले कहीं ज्यादा कागजी लक्ष्यों के रूप में देखा जाता है।

तन मन जन: नीति आयोग का ‘विज़न 2035’ और जनस्वास्थ्य निगरानी के व्यापक मायने

एक अध्ययन के अनुसार पीएचसी का 85 फीसदी बजट कर्मचारियों के वेतन में खर्च हो जाता है। नागरिकों को स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने में प्रतिबद्धता का अभाव स्वास्थ्य अधिरचना की अपर्याप्तता और वित्तीय नियोजन की कम दर में परिलक्षित होता है, साथ ही स्वास्थ्य संबंधी जनता की विभिन्न मांगों के प्रति गिरते हुए सहयोग में यह दिखता है। यह प्रक्रिया खासकर अस्सी के दशक से बाद शुरू हुई जब उदारीकरण और वैश्विक बाजारों के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को खोले जाने का आरंभ हुआ। चिकित्सा सेवा और संचारी रोगों का नियंत्रण जनता की प्राथमिक मांगों और मौजूदा सामाजिक-आर्थिक हालात दोनों के ही मद्देनजर चिंता का अहम विषय है। कुल सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय के साथ इन दोनों उपक्षेत्रों में भी आवंटन लगातार घटता हुआ दिखा। चिकित्सीय शोध के क्षेत्र में भी ऐसा ही रुझान दिखता है। कुल शोध अनुदानों का 20 फीसदी कैंसर पर अध्ययनों को दिया जाता है जो कि 1 फीसदी से भी कम मौतों के लिए जिम्मेदार है जबकि 20 फीसदी मौतों के लिए जिम्मेदार श्वास संबंधी रोगों पर शोध के लिए एक फीसदी से भी कम राशि आवंटित की जाती है।

हमारे देश में स्वास्थ्य व्यवस्था के साथ साथ सरकारी स्तर पर स्वास्थ्य चिंतन का भी अभाव लगता है। जब देश की जनता का काम लच्छेदार भाषणों और हसीन सपनों से ही चल जाता है तो बाकी के हकीकत की क्या जरूरत! आज के नेता यह बखूबी समझते हैं। अपने क्रमशः दिए राष्ट्रीय भाषणों में प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कर दिया था कि महामारी का खतरा बढ़ने वाला है मगर उससे बचाव की जिम्मेवारी जनता खुद वहन करे। ऐसे ही इस महामारी की वजह से होने वाले आर्थिक नुकसान की भरपाई का भी कोई रोडमैप उनके पास नहीं था। इस दौरान देश में अन्तरराष्ट्रीय आवाजाही भी बिना किसी खास एहतियात के जारी रही। एयरपोर्ट पर कहने को तो चाक चौबन्द इन्तजाम था लेकिन हकीकत सिर्फ हवा में थी। जाहिर है कि देश में स्वास्थ्य व्यवस्था खुद इतनी बीमार है कि उससे महामारी नियंत्रण, मुकम्मल उपचार जैसी उम्मीदें करना बेकार है। प्रदूषण, गन्दगी, साफ पानी की पर्याप्त अनुपलब्धता, स्वास्थ्य सम्बन्धी चेतना और जागरूकता का अभाव किसी भी महामारी या रोग के प्रसार के लिए अनुकूल वातावरण रखते हैं।

सन् 1990 के बाद स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की प्रक्रिया तेज होने से आम लोगों को सर्वसुलभ स्वास्थ्य की सम्भावनाएं तो एक तरह से छिन ही गई है। जब स्वास्थ्य सेवाएं कंपनियों के मुनाफे का जरिया हों तब यह कैसे भरोसा करें कि सबको स्वास्थ्य का सपना साकार हो पाएगा? अभी बीते बरस जब कोरोना महामारी जानलेवा तांडव मचा रही थी तब निजी क्षेत्र के अस्पताल और डॉक्टर क्या कर रहे थे यह लोगों को बताने की ज़रूरत नहीं है। कोरोनाग्रस्त व्यक्ति निजी अस्पताल में 25-35 लाख रुपये चुकाकर इलाज करा रहा था। धन के अभाव में बताते हैं कि 60 फीसदी से ज्‍यादा मरीजों की मौत हुई। आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी सरकारी अस्पतालों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव था। इसी दौरान देश में मंदिर बनाने के लिए लोग हजारों करोड़ रुपया दान में दे रहे थे लेकिन वही लोग कोरोना संक्रमण के बाद आक्सीजन और दवा के लिए दर दर की ठोकरें खा रहे थे। जब अस्पतालों और रोगियों के लिए दवा और ऑक्सीजन प्लॉट खरीदे जाने थे तब सत्ताधारी राजनीतिक दल चुनाव और विधायक खरीद रहे थे। यदि देश में सबके लिए स्वास्थ्य का अधिकार कानून होता तो शायद उस दौरान लाखों लोगों की मौतें न होती और न ही सरकार को मौतों के आंकड़े छुपाने पड़ते।

निजीकरण की विफलता के बाद क्या हम क्यूबा के स्वास्थ्य मॉडल से सबक लेंगे?

निजीकरण के दौर में सबके लिए स्वास्थ्य का सपना देखने से पहले एक सच का दर्शन कर लीजिए। विश्व मलेरिया रिपोर्ट 2013 के अनुसार 207 मिलियन मामले दर्ज किए गए थे जिसमें 6 लाख 27 हज़ार लोग बीमारी के कारण मारे गए थे। मलेरिया के दो-तिहाई मामले विकासशील देशों में पाए जाते हैं। भारत में राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम (एनएमईपी) सन् 1966 में शुरू किया गया। इसके पूर्व सन् 1953 में राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम (एनएमसीपी) शुरू किया गया था। समस्या जस की तस रही। सन् 1990 में विश्व बैंक के दबाव में सरकार ने कार्यक्रम को बदल कर राष्ट्रीय मलेरिया विरोधी कैंपेन (एनएएमपी) कर दिया यानी मलेरिया न तो खत्म करना है और न ही नियंत्रित, इसे तो बस जुमले तक रखना है। यह है निजीकरण का दबाव। अब सरकारें केवल जनता का वोट लेने और जुमले फेंकने के लिए हैं इसलिए अपना स्वास्थ्य आप ख़ुद ही संभालें।

विश्व स्वास्थ्य संगठन डब्लूएचओ का संकल्प “सबके लिए स्वास्थ्य” सुनने में अच्छा लगता है और महसूस होता है कि संस्थाएं हमारी सेहत के लिए वास्तव में बहुत चिंतित हैं लेकिन यथार्थ है कि वैश्वीकरण और स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के दौर में यह विशुद्ध छलावा है। जनता इस छलावे/झांसे को समझ नहीं पा रही। समझना आसान भी नहीं है क्योंकि सरकारों ने जनता की आंख पर धर्म, जाति और झूठ की पट्टी बाँध रखी है और दिमाग में गैरजरूरी बातों को ऐसे भर दिया है मानो उनके लिए सेहत, शिक्षा, रोजगार आदि कोई मायने नहीं रखते। आज़ादी के बाद से अब तक हमने सरकारों की लोकलुभावन घोषणाओं का कभी मूल्यांकन तक नहीं किया। हमने कभी यह जरूरी नहीं समझा कि आजादी के बाद हम कितने आजाद हुए और लोकतंत्र में हम कितने मजबूत हुए। आजकल देश ही नहीं पूरी दुनिया में इंसानियत और लोकतंत्र खतरे में है। विडंबना यह है कि इंसानियत और लोकतंत्र के नाम पर कट्टरता और फासीवाद बड़ी तेजी से फल-फूल रहा है। बीच-बीच में लोकतंत्र व जन कल्याण का शिगूफा भी छोड़ा जाता है ताकि जनता में भ्रम बना रहे। एक ही थोथे नारे को बार-बार उछालने के पीछे का सच यही है कि क्रूर तानाशाही सहज लोकतंत्र दिखे। यदि हम लोग अपने जीवनरक्षा के बुनियादी हक को पाना चाहते हैं तो स्वास्थ्य की गारंटी की मांग के साथ-साथ निजीकरण का पुरजोर विरोध भी करना होगा।   

लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं


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