तन मन जन: नीति आयोग का ‘विज़न 2035’ और जनस्वास्थ्य निगरानी के व्यापक मायने


हम भारत के लोग आज ऐसे दौर में जी रहे हैं जहां सरकार और नेता जुमलों और भाषणों में तो जनता की बात करते हैं लेकिन व्यवहार में पूरी तरह कारपोरेट को लाभ पहुंचा रहे हैं। मोदी शासन के छह वर्षों में देश की जनता ऐसे ही ठगी गई है। आज स्वास्थ्य और इलाज के मामले में भी यही देखा जा रहा है कि लोक लुभावन जुमले और झूठ के सहारे आम जनता को बरगला कर सरकार तेजी से स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण करती जा रही है।

अभी हाल ही में नीति आयोग ने ‘‘विजन 2035: भारत में जनस्वास्थ्य निगरानी’’ नाम से एक श्वेत-पत्र जारी किया है। इसका उद्देश्य भारत में जनस्वास्थ्य की निगरानी बढ़ाने के लिए एक विज़न दस्तावेज प्रस्तुत करना और भारत को इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका के लिए तैयार करना है। मुझे यकीन है कि हमारे सक्रिय मित्रों व पाठकों को पता होगा कि ‘‘श्वेत पत्र’’ वास्तव में एक सूचनात्मक दस्तावेज होता है जो प्रायः किसी कम्पनी या अलाभकारी संगठन द्वारा किसी खुलासे या सेवा अथवा उत्पाद के विशेषता को बढ़ावा देने या उसके महत्व को रेखांकित या स्पष्ट करने के उद्देश्य से जारी किया जाता है। कभी कभी ऐसे श्वेत-पत्रों का उपयोग किसी बात या नीति पर दबाव बनाने या जन समर्थन जुटाने के लिए भी किया जाता है। भारत में जन स्वास्थ्य की मौजूदा स्थिति के मद्देनजर आम लोगों को लग सकता है कि सरकार की यह पहल ‘‘स्वागतयोग्य’’ है लेकिन इसका निहित उद्देश्य और उसके पीछे का सच जानना भी जरूरी है।

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दरअसल, नीति आयोग ने नवम्बर 2019 में ‘‘नये भारत के लिये स्वास्थ्य प्रणाली: सुधार के सम्भवित तरीके’’ शीर्षक से संकल्पित चार वर्किंग पेपर जारी किए हैं। सरकार कह रही है कि यह भारत की जनस्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत बनाने की दिशा में यह एक क्रान्तिकारी कदम है। समझने की दृष्टि से हम इस श्वेत पत्र का जनपक्षीय विश्लेषण करेंगे ताकि इस ‘‘विज़न’’ को ठीक से समझा जा सके। सबसे पहले इस विज़न पत्र को तैयार करने वाले लोग और संगठनों को जान लें कि वे कौन हैं? इस विज़न के पीछे ‘‘हेल्थ केयर इन्फॉरमेशन टेक्नोलॉजी’’ और युनिवर्सिटी ऑफ मैनिरोबा (कनाडा) के लोग हैं। नीति आयोग स्वीकार करता है कि यह श्वेत पत्र भारत सरकार के लिए अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के तकनीकी विशेषज्ञों ने तैयार किया है। आयोग के अनुसार यह श्वेत पत्र त्रिस्तरीय है। इसमें प्राथमिक, द्वितीय और तृतीयक व्यवस्था है जो देश में जनस्वास्थ्य को आयुष्मान भारत नामक स्वास्थ्य बीमा (?) योजना से जोड़कर देश में जनस्वास्थ्य की निगरानी के लिए भारत को तैयार करना है। इस श्वेत पत्र में साफ लिखा गया है कि देश में हर आम व्यक्ति का व्यक्तिगत इलेक्ट्रॉनिक स्वास्थ्य प्रोफाइल बनाकर उसे निगरानी का आधार बनाया जाएगा। जाहिर है कि ‘‘जनस्वास्थ्य निगरानी’’ के नाम पर यह भारतीय संविधान के अनुच्‍छेद 21 (व्यक्ति के जीवन का अधिकार या दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण) को भी प्रभावित करेगा।

नीति आयोग के इस ‘‘श्वेत पत्र’’ की खास बातों में यह लिखा है कि ‘‘इससे असंचारी रोगों की पहचान, नियंत्रण और उसके रोकथाम से सम्बन्धित प्रयासों को मजबूती मिलेगी और स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले आम लोगों के और उनके परिवारों के खर्च को कम किया जा सकेगा।’’ इसे एकीकृत रोग निगरानी कार्यक्रम (आईडीएसपी) कहा गया है। इससे सरकार एक केन्द्रीकृत स्वास्थ्य सूचना प्लेटफार्म बना पाएगी जिससे प्रत्येक आम व्यक्ति का व्यक्तिगत स्वास्थ्य डाटा सरकार के पास होगा यानि एक कम्पनी जो सरकार के लिए काम करेगी, उसके डाटाबेस में आपके स्वास्थ्य सम्बन्धी सूचना के नाम पर आपकी हर बुनियादी जानकारी दर्ज की जाएगी। यह भी कहा गया है कि यह दस्तावेज राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2017 तथा ‘‘नेशनल डिजिटल हेल्थ ब्लूप्रिंट’’ (एनडीएचबी) के व्यक्ति केन्द्रित सूचना अवधारणा के अनुरूप है। इस श्वेत पत्र में साफ लिखा है गया है कि ‘‘जनस्वास्थ्य निगरानी में निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ाने के लिए क्लिनिकल इस्टैब्लिशमेन्ट (रजिस्ट्रेशन एण्ड रेगुलेशन) एक्ट 2010 जैसे कानूनों के दायरे में व्यक्तियों व चिकित्सकों को बांधने के लिए भी प्रयास होगा। जाहिर है कि यह प्रक्रिया स्वास्थ्य और इलाज के क्षेत्र में पूंजीकरण के लिए है, इसलिए इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि ‘‘स्वास्थ्य सेवाओं का पूंजीकरण’’ ही इस विज़न पत्र का लक्ष्य है।

इस प्रयास के लिए देश की कई तकनीकी एजेन्सियां लगी हैं। इस श्वेत पत्र को तैयार करने में कनाडा के विशेषज्ञ, डब्ल्यूएचओ, डब्लूटीओ, विश्व बैंक आदि संस्थानों की विशेष भूमिका है। आपको मैं याद दिलाना चाहूंगा कि नब्‍बे के दशक में जब विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) का प्रभाव बढ़ रहा था तब सन 1995 में डेविड कार्टन की एक किताब बहुत चर्चित हुई थी, ‘‘व्हेन कार्पोरेशन रूल द वर्ल्ड’’ अर्थात् जब दुनिया पर कम्पनियों का राज होगा। यदि आपकी पढ़ने में रुचि है तो मैं सुझाव दूंगा कि आप ‘‘जान केनेथ गालब्रेथ’ को भी पढ़ें ताकि आप समझ सकें कि पूंजीवाद की ताकत और उसके परिणाम क्या होते हैं। आपको बताया जा रहा है कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजी भागीदारी बढ़ाने के पीछे सरकार को आपके सेहत की चिंता है लेकिन वास्तव में यह आपके सेहत और जीने की स्वतंत्रता को बाजार के क्रूर हाथों नीलाम कर देना है। प्रो. गालब्रेथ स्पष्ट बताते हैं कि पूंजीवाद अपने टेक्नो स्ट्रक्चर के सहारे मानव जीवन पर कब्जा करता है और उसका इस्तेमाल अपने मुनाफे के लिए करता है।

सन 1990 में ही जब मैं चिकित्सा स्नातक की अपनी पढ़ाई पूरी कर चुका था, तभी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दुनिया में बढ़ते प्रभाव पर मेरा अध्ययन और तब चल रहे साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलनों में मेरी शिरकत ने मुझे आगाह कर दिया था कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियां धीरे-धीरे दुनिया की व्यवस्था पर कब्जा कर लेंगी। भारत के सन्दर्भ में भी मुझे तभी लग गया था कि नयी आर्थिक नीति, निजीकरण तथा वैश्वीकरण की तेज होते प्रभाव में आगे चलकर देश की शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था पर कम्पनियां आधिपत्य जमाएंगी और आम आदमी एक गुलाम की तरह इन कम्पनियों/एजेन्सियों के रहमोकरम पर जियेगा। यहां मैं यह भी बताना चाहूंगा कि सन 1990 से 2000 के बीच जब हम लोग बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और विश्व बैंक अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के नीतियों के खिलाफ अध्ययन और आन्दोलन कर रहे थे तब भी उच्च मध्यम वर्ग के खाये-पिये अघाये लोग हमारी आलोचना करते थे। उसी दौरान हम लोगों ने दवा के अभाव में मरते लोगों को देखा और भूख से आत्महत्या करते हजारों परिवारों के बारे में पढ़ा। हम लोग तब एक पुस्तिका बांटते थे, ‘‘बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की जंजीरों में जकड़ा दैनिक जीवन।’’ इलाहाबाद के जाने-माने गणितज्ञ तथा आजादी बचाओ आन्दोलन के संस्थापक प्रो. बनवारी लाल शर्मा हमारे प्रेरणा थे। प्रो. शर्मा ने ही डेविड कार्टन की किताब का हिन्दी में अनुवाद भी किया था। तब नयी आर्थिक नीति के नाम पर शोषणकारी बहुराष्ट्रीय कम्पनी का राज का रास्ता साफ करने के लिए हम तात्कालीन सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस के खिलाफ लगातार आन्दोलन चला रहे थे। विडम्बना देखिए कि तब भाजपा/संघ समर्थित संगठन भी हम लोगों की ही भाषा बोल रहे थे। अब यही संघ और भाजपा जब सत्ता में हैं तब जितनी तेजी से निजीकरण व वैश्वीकरण के रास्ते गुलामीकरण की प्रक्रिया चल रही है और हम अवाक हैं।

नीति आयोग के इस ‘‘विज़न 2035’’ के बहाने भारत में जनस्वास्थ्य की निगरानी की यह परियोजना बेहद डरावनी है। भारत सरकार जिस प्रकार से नागरिकों की सेवा को निजी कम्पनियों के हवाले करती जा रही है उसमें जल्द ही नागरिकों को स्वास्थ्य व शिक्षा से केवल इसलिए महरूम होना पड़ेगा कि उनके पास शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त साधन नहीं होंगे। आप आज की ही कल्पना करें। विगत कई महीनों में देश में लगभग 45 करोड़ लोग अपनी आजीविका में गिरावट महसूस कर रहे हैं। लोगों की आय घटकर आधी से भी कम हो चुकी है। एक औसत आदमी की आमदनी महज 6.10 हजार रुपये महीने ही रह गया है। स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के बाद सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं एक तो कायदे से रही नहीं, उल्टे दुर्लभ हो गई हैं। कोरोना काल में हर गरीब अमीर ने इसे अच्छी तरह अनुभव कर लिया कि जैसे तैसे धन की व्यवस्था कर निजी अस्पतालों में ही जाकर जान बचायी जा सकती है। कुछ अपवादों को छोड़कर पूरे देश में लोगों ने 5,10,15 लाख रुपये खर्च कर कोरोना संक्रमण से बचने या इलाज के लिए निजी अस्पतालों को ही उपयुक्त माना। निजी अस्पतालों ने भी बेशर्मी से इस आपदा में अवसर को भुनाया और अकूत कमाई की। आदमी की जान की कीमत वसूल कर इन निजी अस्पतालों ने भविष्य की स्वास्थ्य सेवाओं की झलक भी पेश कर दी। नीति आयोग के ‘‘विज़न 2035’’ को आप इस परिप्रेक्ष्‍य में भी देख सकते हैं।

‘‘विज़न 2035’’ के श्वेत पत्र में साफ लिखा है कि जन स्वास्थ्य मामलों के प्रबन्धन में वैश्विक नेतृत्व को सुनिश्चित किया जाएगा। यानि कि अब आपकी सेहत और सेहत के नाम पर आपके शरीर का पूरा डाटा एक वैश्विक मामला है। जैसे नागरिकता रजिस्टर होगा वैसे ही आपका डिजिटल हेल्थ ब्लू प्रिंट होगा! इस ब्लू प्रिंट में प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तिगत शारीरिक व मानसिक डाटा संग्रहित होगा। इस विज़न-2035 श्वेत पत्र में एक चैप्टर पब्लिक हेल्थ सर्विलान्स यानि ‘‘जनस्वास्थ्य निगरानी’’ का है। इसका मतलब है कि यह पूरी प्रक्रिया कार्यान्वयन एवं मूल्यांकन के लिए व्यक्ति के स्वास्थ्य और शरीर से सम्बन्धित डाटा का व्यवस्थित संग्रहण करेगी। कम्पनी इन डाटा का विश्लेषण और विवेचन करेगी। इस अध्याय में साफ लिखा है कि निगरानी का मतलब है ‘‘कार्रवाई के लिये सूचना संग्रहित करना।’’ इसके निहितार्थ समझिए- आपके शरीर का डाटा कभी भी आपको समाज के लिए अवांछित घोषित कर आपको मुख्यधारा से काट सकता है। इस आशंका को काल्पनिक मानना उचित नहीं होगा। वैश्वीकरण से त्रस्त देशों को देख लें। चिली, अफ्रीका, इन्डोनेशिया, घाना या भारत ही जहां वैश्वीकरण का असर साफ देखा जा सकता है।

हालांकि ‘‘विज़न 2035’’ को लेकर सरकार और एजेन्सियां भी मानती हैं कि भारत में डाटा संग्रह इतना आसान नहीं होगा लेकिन हाल के वर्षों में कुकरमुत्ते की तरह उपजे अंधभक्तों की वजह से कम्पनियों का काम मुश्किल भी नहीं रहेगा। इस श्वेत पत्र में चुनौतियों के रूप में यह भी रेखांकित किया गया है कि डाटा संग्रह, उसका साझाकरण, डाटा की गुणवत्ता, महामारियों के बारे में ऐपिडेमिक इन्टेलिजेन्स का अभाव, व्यावसायिक स्वास्थ्य निगरानी का अभाव, ऐसे कई मसले हैं जो विज़न-2035 की लाइन लेन्थ बिगाड़ेंगे। मेरे लिए तो यही सही है कि इस सेहत और इलाज के ‘‘बाजारीकरण’’ का बेड़ा गर्क हो, लेकिन आधी अधूरी तैयारी से चल रही इस निजीकरण के अपने दूसरे खतरे भी हैं। खतरा वही नीम हकीमी वाला। बनने के चक्कर में चौबे जी दूबे भी नहीं बन पाएंगे?

‘‘विज़न 2035’’ पर विचार करने से पहले उन नारों का भी हिसाब पूछिए जो सन 1990 में लगाए गए थे, ‘‘सन 2000 तक सबको स्वास्थ्य।’’ हजारों करोड़ रुपए खर्च भी कर दिए गए मगर सरकार ने डकार भी नहीं ली। फिर ‘‘मिलेनियम हेल्थ गोल-2015’’ का झुनझुना बजाया गया। इसमें भी हजारों करोड़ रुपये उड़े। 2015 बीत गया, फिर मिलेनियम हेल्थ गोल के बाद सतत विकास लक्ष्य 2030 सस्टेनेबल डेवलपमेन्ट गोल (एसडीजी) 2030 उछाला गया। विकास योजना की मूसलाधार बारिश के बावजूद देश की 70 फीसद जनता को न विकास दिखा और न ही स्वास्थ्य। विगत 75 वर्षों में देश की जनता ने अपनी सरकारों से जो बेहतरी की उम्मीदें की थीं उन्हें अनावश्‍यक दंगे, फसाद, मंदिर-मस्जिद व थोथे नारों में उलझाकर रखा गया। सरकारों ने अपने स्वार्थ और संकीर्ण एजेन्डे के लिए लोगों को जाति-धर्म के नाम पर आपस में उलझा कर अपनी रोटियां सेंकी और हम तू-तू मैं मैं में फंसे रहे। देश मिटता रहा और संकीर्ण स्वार्थ वाले छुटभैये उभरते रहे। अज्ञानता और अन्धभक्ति में हमने कब अपने अन्दर के इन्सान को मार दिया और कब हम इन्सान से हैवान हो गए – पता ही नहीं चला। अब हमें न तो रोजगार की चिंता है और न स्वास्थ्य की।

हिन्दू धर्म के प्रबल युवा उद्घोषक युवाओं के आदर्श स्वामी विवेकानन्द को उद्धृत करते हुए मैं यह लेख यहीं समाप्त करता हूं- ‘‘साम्प्रदायिकता से संसार की उन्नति नहीं हो सकती। एक ही साम्प्रदायिक विचार के लोग सब काम नहीं कर सकते, संसार की यह अनंत शक्ति कुछ थोड़े लोगों से नहीं चल सकती।’’

लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं


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