सत्ता-प्राप्ति पर केंद्रित चुनाव बनाम लेबर चौक पर खड़ा लोकतंत्र: कुछ जरूरी सवाल


उन्नति व उत्थान की योजनाओं के विपरीत प्रलोभन के वायदों को राजनीति का आदर्श व आयाम बना कर जिस तरह लोकतंत्र मे सत्ताएं स्‍थापित की गयीं, आने वाले समय में यह दौर लगभग विदाई के पायदान तक पहुँच चुका है। इंतजार और सब्र एक अवधि तक ही बना रह सकता है। समाज की मूलभूत आवश्कताओं को दरकिनार करके सत्ताएं निरंतरता बनाये रखने में हमेशा असफल रही हैं।

राजनीतिक दल अपने मूल सिद्धांत और उद्देश्य को छोड़ कर नये लक्ष्य के सहारे जब-जब चले, उसके परिणाम कहीं सार्थक प्रगति तय नहीं कर पाये। लोकतांत्रिक पद्धति में ऐसे प्रयोगों से विसंगतियां ही उपजी हैं जिसके कारण वृहद समाजिक ठहराव व असंतोष से प्रगति बाधित हुई। जनसमुदायों की अपेक्षाओं के अनुरूप शासन व्यवस्था न दे पाने की असफलता को प्रलोभनों की भव्यता से ढंका नहीं जा सकता।

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में यह असंतोष अब धरातल पर स्पष्ट उभरता दिखायी देने लगा है। सशक्त समर्थन से सत्ता में आयी पार्टी एक प्रदेश में अपने कार्यकाल की नीतियों के कारण बड़ी चुनौतियों के चक्रव्यूह मे नज़र आने लगी है।

पंजाब विधानसभा चुनाव: उद्देश्य व लक्ष्य-बिन्दु

  • कृषि संकट से कैसे उबारा जाएगा
  • कृषि आधारित राज्य में कृषि को सुदृढ़ कैसे किया जाएगा
  • समय अनुरूप राज्य द्वारा फसल उत्पाद की खरीद को कैसे स्‍थापित किया जाएगा
  • किसानों के उत्थान के लिए किन योजनाओं को लागू किया जाएगा

स्वस्थ्य, शिक्षा, रोजगार के समाधान

  • स्वास्थ्य के क्षेत्र में आवश्यक संस्थागत ढांचे को कैसे निर्मित किया जाएगा
  • रोजगार की समस्या का समाधान कैसे और कब तक किया जाएगा
  • रोजगार सृजन किस प्रकार किन योजनाओं से किया जाएगा
  • शिक्षा के स्तर के सुधार के लिए सरकारी व्यवस्थाओं में क्या किया जाएगा

आर्थिक उन्नति

  • कर्ज में डूबे राज्य को किस प्रकार उन्नति की राह पर लाया जाएगा
  • प्रदेश से युवा पलायन को कैसे रोका जाएगा
  • व्यापार व उत्पादन क्षेत्र को किस तरह से बढ़ाया जाएगा
  • नशे की सामाजिक बुराई को नियंत्रित कर के प्रदेश को कैसे सुरक्षित किया जाएगा
  • विभिन्न तरह की आर्थिक व्यवस्था को कैसे सुधारा जाएगा
  • प्रदेश के नियमित आय के संसाधनों को कैसे सहेजा जाएगा

वर्तमान राजनीतिक परिदृश्‍य में सत्ता हासिल करने के लिए चल रहे प्रचार-प्रसार से ये सब मुद्दे गायब हैं।

किसान जत्‍थेबन्दियों ने सक्रिय राजनीति में आने का फैसला तो कर लिया है और उसका उद्देश्य स्पष्ट करते  हुए कारण आम जनता के दबाव को बताया है, लेकिन अपनी एक सैद्धांतिक संयुक्त राजनीतिक विचारधारा को स्पष्ट नहीं किया। जिस अन्दोलन की अगुवाई इन जत्‍थेबन्दियों ने की थी उसका सीधा टकराव पूंजीपति व्यवस्था की नीतियों से रहा। साथ ही सामाजिक न्याय, समानता, लोकहित कल्याणकारी नीतियों को मुख्य आधार बनाया।

इनके आक्षेप पूर्व व वर्तमान सता पर रहे हैं कि नीतियों के स्तर पर सत्ताओं ने समाज के कमेरे वर्गों की अनदेखी की है। अब इन जत्‍थेबन्दियों को उन्‍हीं चुनौतियां का सामना करना होगा। इसमें किस तरह से ये सफल होंगे ये तो समय ही बताएगा।

पंजाब में एक ‘अघोषित गठबंधन’  चुनाव में पुरजोर ताकत से काम कर रहा है। अबकी बार योजना अनुसार  सफलता से दूरी की आशंका में मतदाताओं को गुमराह करने के प्रयास इनकी राजनीति में प्रत्‍यक्ष तौर पर दिखने लगे हैं।

चुनाव केवल सत्ता प्राप्ति‍ पर केंद्रित होकर रह गए हैं।

लेबर चौक पर खड़ा लोकतंत्र का नुमाइंदा क्या चेहरों को देख कर ही इस बार भी मतदान करेगा या कुछ और भी सोच पाने की स्थिति में इन गर्दिशों के दौर में आ चुका है? बार-बार ठगे जाने को कहीं अपनी नियति मान एक दिहाड़ी के एवज में नीतियों को नकार कर अपने भाग्य को कोसता रहेगा या जूझने की ताकत और यकीन को फिर से गिरवी रख देगा?

हालात में ऐसी निराशा क्या पहले भी कभी रही है? बेबस सा समाज किन उम्‍मीदों के सहारे चल रहा है?

ये महोत्सव, ये उत्सव, किसके भविष्य को संवारेंगे? ये सवाल कभी लोकतंत्र को क्‍यों नहीं कचोटता?



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