कोरोना वायरस क्या एक बहुत बड़ी साज़िश है? सुनिए और पढ़िए प्रोफेसर मिशेल चोसुदोव्सकी को

कोविड 19 में WHO जनवरी 2020 के मध्य तक यह मानने को तैयार नहीं था कि यह बीमारी मनुष्य से मनुष्य के बीच संचारित होती है लेकिन इसके कुछ ही दिन बाद उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है।

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अलबर्ट आइंस्टीन हम सब के क्यों हैं?

हिंदी में अलबर्ट आइंस्टीन और उनके काम पर लिखी गयी दुर्लभ पुस्तकों में एक, जो इसी साल छपकर आयी है, उसका नाम हैः “सबके आइंस्टीन”।

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इंसानियत का लॉकडाउनः मिनिसोटा से सीतापुर वाया आनंद विहार

हमारी सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक व्यवस्था में अगर इतनी बुनियादी इंसानियत होती तो इस लॉकडाउन में अनगिनत इंसानों और इंसानियत का दम वैसे नहीं घुटता जैसे इस वक़्त घुट रहा है।

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कोरोना ने सत्तर साल बाद अमीरबाई कर्नाटकी को जिंदा कर दिया…

इस गीत को लता मंगेशकर और अमीरबाई कर्नाटकी ने मिलकर गाया था। लता तो अभी जीवित हैं लेकिन इस गीत ने पचपन साल बाद गुज़रे ज़माने की दिलकश गायिका कर्नाटकी को ज़िंदा कर दिया है। खास बात ये है कि उस वक्त की तरह इस गीत को ब्लैक एंड व्हाइट ही पेश किया गया है.

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पत्रकारिता के दारा सिंहों! मदारी को खारिज कर दो, अब भी वक्त है!

दाराओं की फितरत है अपने आकाओं के लिए हत्याएं करना, बच्चों को जलाना, औरतों की हत्याओं का जश्न मनाना। मानवता का माखौल उड़ाना। “दारा” पूरे समाज को दारा बनाने के सपने देखता है लेकिन ये उसका दु:स्वप्न है। हम उन्हें विचारों से परास्त करेंगे।

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सब कुछ ठप पड़ा है, फिर विश्व बैंक को ग्रोथ कहां दिख रही है?

इस बार सारा मामला मनोवैज्ञानिक है। कुछ तो जेनुइन भी है। हर आदमी को डर लग गया है कि कहीं मेरी ही मौत न हो जाए। इसके चलते एक दिमागी लॉकडाउन रहेगा लंबे समय तक। खेल, मनोरंजन, पार्टियां, सिनेमाहॉल, यात्रा, पर्यटन, सब कुछ पोस्टपोन हो जाएगा। लॉकडाउन उठ भी गया तो लोग खुद ही इस पर लगाम लगाएंगे। सबसे बड़ा सवाल शिक्षा का है कि स्कूल कॉलेज कब खुलेंगे।

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कोरोनाकाल में गणित के सामने दण्डवत् जगत और आत्मनिर्वासित ग्रेगरी पेरेलमैन!

जिन एप्लाइड मैथमेटीशियन को मैथ वाले कमतर मानते थे और कहा करते थे कि यह भी कोई मैथ जानते हैं जी! उनकी आज दुनिया भर में पूछ हो रही है. हर तरफ मैथेमेटिकल मॉडलिंग का शोर है. दुनिया विश्वयुद्ध के बाद पहली बार इस तरह से गणित के सामने दण्डवत हुई है.

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‘भूख से मरने पर, साबुन हमें नहीं बचा पाएंगे’!

पालघर जिले के कवटेपाड़ा में रहने वाले अधिकांश आदिवासी परिवार निर्माण स्थलों पर दैनिक मज़दूरी करके जीवनयापन करते हैं। कोविड-19 लॉकडाउन के कारण यह काम बंद हो गया है, और अब उनके पैसे और राशन तेज़ी से ख़त्म होने लगे हैं

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(फ्री) सेक्स विमर्श को यहां से देखो राष्ट्रवादियों!

यौन संतोष और आर्थिक फायदा – विवाह के ये दो अहम स्तंभ हैं. सैकड़ों सालों से ऐसा ही चला आ रहा है लेकिन अब स्थितियां अदृश्य रूप से बदल रही हैं.  दरअसल, उत्पादन संबध बदल रहे हैं इसीलिए. तेजी से पसरते हुए मध्यवर्ग का एक तबका फ्री सेक्स के विचार को सैद्धांतिक तौर पर भले ही न माने लेकिन इसकी व्यावहारिकता से शायद ही परहेज करेगा.

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