जब तोप मुकाबिल हो तो अख़बार निकालोः 150 साल के लेनिन का ‘ईस्क्रा’


साइबेरिया की खानों में 
मान औ’ धैर्य की ज़रूरत अपार, 
व्यर्थ न जाएंगे दुखद संघर्ष 
और आपके उदात्त विचार।

ये पंक्तियाँ कवि पुश्किन ने नेरचिन्स्क, साइबेरिया में निर्वासित और खदानों में काम करने को मजबूर दिसम्बरवादी क्रान्तिकारियों को लिखी थीं। इसके उत्तर में कवि-दिसम्बरवादी ओदोयेव्स्की ने उन्हें लिखा:

न होगा व्यर्थ हमारा संघर्ष अथक,
चिनगारी से भड़केंगी ज्‍वालाएं!


एक

व्लादीमिर इल्यीच ने अख़बार का नाम ‘ईस्क्रा’ (चिनगारी) ही रखने का फ़ैसला किया।

शूशेन्स्कोये में रहते हुए ही उन्होंने उसकी पूरी योजना तैयार कर ली थी। अब उसे कार्यरूप देना था। साइबेरिया से लौटकर व्लादीमिर इल्यीच प्स्कोव में रहने लगे। अकेले ही। नदेज़्दा कोन्स्तान्तिनोव्‍ना (लेनिन की जीवनसाथी) की निर्वासन अवधि अभी ख़त्म नहीं हुई थी, इसलिए वह बाक़ी समय के लिए उफ़ा में ही रुक गयीं। व्लादीमिर इल्यीच को प्स्कोव में रहने की इजाज़त थी। वहां उन्होंने ‘ईस्क्रा’ निकालने के लिए तैयारियां शुरू कीं। वह विभिन्न शहरों की यात्रा करते। ‘ईस्क्रा’ में काम करने के लिए साथियों को ढूंढ़ते। अख़बार के लिए लेख लिखने वालों को ढूंढ़ना था। फि‍र ऐसे आदमियों की तलाश भी ज़रूरी थी, जो अख़बार का गुप्त रूप से वितरण करते। ‘ईस्क्रा’ को आम तरीक़े से दुकानों और स्टॉलों पर बेचा नहीं जा सकता था। और अगर कोई ऐसा करता, तो उसे तुरन्त जेल हो सकती थी। अख़बार निकालने के लिए पैसों की भी ज़रूरत थी।

ज़मीन-आसमान एक करके चार महीने में व्लादीमिर इल्यीच ने ‘ईस्क्रा’ की तैयारी पूरी कर ही ली। पर एक सवाल अभी बाक़ी था। अख़बार को छापा कहां जाए? रूस में रहते हुए भला कोई ज़ार के ख़िलाफ़, ज़मींदारों और उद्योगपतियों के ख़ि‍लाफ़, पुलिस के अफ़सरों के ख़ि‍लाफ़ अख़बार छापने के लिए तैयार होता? व्लादीमिर इल्यीच को इस बारे में भी काफ़ी सोचना पड़ा।

उन्होंने साथियों से परामर्श किया। अन्त में यह तय हुआ कि उसे विदेश में छापा जाए। बेशक वहां भी ऐसा अख़बार पूर्णतया गुप्त रूप से ही निकाला जा सकता था पर वहां रूसी पुलिस के भेदिये इतने अधिक नहीं थे।

व्लादीमिर इल्यीच ने जैसे-तैसे डॉक्टरी सर्टीफ़ि‍केट का इन्तज़ाम किया और इलाज के बहाने विदेश रवाना हो गये। इससे पहले वह नदेज़्दा कोन्स्तान्तिनोव्ना से भी मिल आये, जिनका निर्वासन नौ महीने बाद ख़त्म होना था। अब वह वतन से दूर जा रहे थे। क्या बहुत अरसे के लिए? जैसे कि बाद में पता चला, बहुत अरसे के लिए।

…तंग सड़कों, नुकीली छतों वाले मकानों और प्रोटेस्टेण्ट गिरजों वाले जर्मन शहर लाइप्ज़िग में बहुत अधिक कल-कारख़ाने और उनसे भी अधिक छापेख़ाने और हर तरह की किताबों की दुकानें थीं। वहां कोई पैंतीस साल की उम्र का गेर्मन राऊ नाम का एक जर्मन रहता था। शहर के बाहर एक छोटे-से गांव में उसका छापाख़ाना था। उसमें मशीन के नाम पर सिर्फ़ एक ही– हालांकि काफ़ी बड़ी– छपाई मशीन थी और वह भी बहुत पुरानी। उस पर मज़दूरों का खेलकूद अख़बार, तरह-तरह के पोस्टर और पैम्फ़लेट छापे जाते थे।

गेर्मन राऊ सामाजिक-जनवादी था। एक दिन लाइप्ज़िग के सामाजिक-जनवादियों ने उसे बताया कि रूस से एक मार्क्सवादी आया है। रूसी मार्क्सवादी अपना क्रान्तिकारी अख़बार निकालना चाहते हैं और यह तय किया गया है कि उसका पहला अंक लाइप्ज़िग में छपे।

”रूसी साथियों की मदद करनी चाहिए,” लाइप्ज़िग के सामाजिक-जनवादियों ने गेर्मन राऊ से कहा।

लाइप्ज़िग आने वाला रूसी मार्क्सवादी और कोई नहीं, व्लादीमिर इल्यीच ही थे। उन्होंने शहर के छोर पर एक कमरा किराये पर लिया। वह हमेशा मुंह अंधेरे ही उठ जाते थे, जब हर कहीं निस्तब्धता होती थी। यहां तक कि फ़ैक्टरियों के भोंपू भी नहीं बजते होते थे। कमरा बहुत ठण्डा था। दिसम्बर का महीना चल रहा था।

व्लादीमिर इल्यीच ने स्पिरिट के चूल्हे पर पानी उबाला, टिन के मग में चाय बनाकर गरम-गरम पी और हमेशा की तरह घर से निकल पड़े। जाना दूर था, गेर्मन राऊ के छापेख़ाने तक। यही कोई पांच-छह किलोमीटर का रास्ता होगा। घोड़ाट्राम वहां नहीं जाती थी, इसलिए पैदल ही जाना होता था। रास्ते में पैदल या साइकिलों पर सवार मज़दूर और बाज़ार जाने वाले किसानों के ठेले मिलते थे। शहर की सीमा आ गयी। आगे बर्फ़ से ढंके खेत थे। दूर, क्षितिज के पास जंगल का काला साया दिखायी दे रहा था। शहर के छोर पर बसी बस्तियों की बत्तियां जल रही थीं। गेर्मन राऊ के छापेख़ाने की खिड़की से लालटेन का उजाला दिखायी दे रहा था।

सारा छापाख़ाना एक बड़े-से कमरे में समाया हुआ था, जिसके आधे हिस्से में पुरानी छपाई मशीन खड़ी थी। कमरे में दो कम्पोज़ि‍ग बॉक्स भी थे। लोहे की अँगीठी में लकड़ियां जलते हुए चटक रही थीं। लपटें कँपकँपाती थीं, तो उनके साथ ही दीवारों पर पड़ने वाले साये भी काँप जाते थे।

”आज महत्त्वपूर्ण दिन है,” गेर्मन राऊ ने जर्मन में व्लादीमिर इल्यीच से कहा।

व्लादीमिर इल्यीच ने सिर हिलाकर सहमति प्रकट की। सचमुच आज महत्त्वपूर्ण दिन था। अब तक तो तैयारियां ही होती रही थीं, पर आज…

कम्पोज़िटर ने भारी ब्लॉक उठाकर मशीन पर चढ़ाया। गेर्मन राऊ ने हत्था घुमाया। मशीन घड़घड़ायी। सिलेण्डर घूमने लगा और अख़बार के पन्ने मशीन से बाहर निकलने लगे। इस तरह ‘ईस्क्रा’ का पहला अंक छपकर तैयार हुआ।

व्लादीमिर इल्यीच ने एक अंक उठाया। इस घड़ी का वह कब से और कितनी उत्कण्ठा से प्रतीक्षा कर रहे थे!

”अब हमारे पास अपना, मज़दूरों का क्रान्तिकारी अख़बार है! उड़ चलो, हमारे अख़बार, वतन की तरफ़! करो पैदा जागृति और उभारो लोगों को क्रान्ति के लिए!”

व्लादीमिर इल्यीच ने सबको सुनाते हुए अख़बार का नाम पढ़ा :

”ईस्क्रा”।

दायीं तरफ़ ऊपर कोने में छपा था :

”चिनगारी से भड़केंगी ज्वालाएं!”


दो

Photo Courtesy Left Voice

मुसाफ़ि‍र गाड़ी केनिग्सबर्ग जा रही थी। तीसरे दर्जे के डिब्बे में एक कोने में खिड़की के पास एक नौजवान बैठा था। वह म्यूनिख़ में सवार हुआ था और तब से सारे रास्ते भर ऊंघता रहा था। उसके पैरों के पास एक काफ़ी बड़ा सूटकेस रखा था।

गाड़ी केनिग्सबर्ग पहुंच गयी। यह पत्थर के वि़फले, गिरजाघरों और लाल खपरैल की छतों वाला पुराना शहर था। बाल्टिक सागर के तट पर होने के कारण यहां बन्दरगाह भी था, जिसमें दसियों जहाज़ खड़े थे। उनमें से एक का नाम था ‘सेण्ट मार्गरीता’। म्यूनिख़ से आये जर्मन ने इधर-उधर ताका-झांका और फि‍र बन्दरगाह की ओर न जाकर पास ही के एक बीयरख़ाने में घुस गया। बीयरख़ाने में भीड़ बहुत थी। चारों तरफ़ तम्बाकू का भूरा, कड़वा धुआं छाया हुआ था। जर्मन एक ख़ाली जगह पर बैठ गया और सूटकेस को उसने मेज़ के नीचे खिसका दिया। फिर बैरे से सॉसेज मंगाकर बीयर के साथ धीरे-धीरे खाने लगा। इतने धीरे-धीरे कि मानो उसके पास फालतू वक़्त बहुत हो। या हो सकता है कि वह किसी का इन्तज़ार कर रहा था?

हां, उसे सचमुच ‘सेण्ट मार्गरीता’ के जहाज़ी का इन्तज़ार था। उससे मिलने के लिए ही वह म्यूनिख़ से आया था, हालांकि उसे पहले कभी नहीं देखा था। जब भी कोई नया आदमी बीयरख़ाने में आता, म्यूनिख़ से आया हुआ जर्मन दायें हाथ से बालों को दायें कान की तरफ़ सहलाते हुए टकटकी लगाकर उसे देखता। इस तरफ़ किसी का ध्यान भी नहीं जा सकता था, क्योंकि बालों को सहलाना कोई अस्वाभाविक बात नहीं थी। मगर यह एक इशारा था।

आख़िरकार जहाज़ी आ ही गया। समुद्री हवा और धूप से उसका चेहरा ताँबई हो गया था। दरवाज़े पर खड़े-खड़े उसने सभी लोगों पर नज़र डाली और बालों को सहलाते हुए आदमी को देखकर सीधे उसकी तरफ़ बढ़ चला। मेज़ के पास बैठकर उसने पैर से सूटकेस को टटोला और बोला :

”उफ़्फ़, कितनी भयंकर हवा है!”

”अगर अपने रास्ते की तरफ़ है, तो कोई बात नहीं,” म्यूनिख़ से आये जर्मन ने जवाब दिया।

”ठीक ही पहचाना, भैया, अपने ही रास्ते की तरफ़ है।”

यह पहचान-वाक्य था। तुरन्त ही दोनों के बीच आत्मीयता पैदा हो गयी। दोनों का एक ही ध्येय था, जिसकी ख़ातिर वे यहां बीयरख़ाने में इकट्ठा हुए थे।

बातचीत जल्दी ही ख़त्म हो गयी और दोनों बीयरख़ाने से बाहर निकल आये। अब सूटकेस जर्मन के हाथ में नहीं, बल्कि जहाज़ी के हाथ में था। किसी ने इस बदलाव पर ध्यान नहीं दिया। आख़िर किसी को इससे मतलब भी क्या था? दो साथी जा रहे हैं, बातें कर रहे हैं। चौराहे पर दोनों अलग हो गये। म्यूनिख़ से आया जर्मन स्टेशन की ओर चल पड़ा और सूटकेस ‘सेण्ट मार्गरीता’ पर बाल्टिक सागर से होते हुए स्वीडन की राजधानी स्टाकहोम की ओर।

रात में हवा बहुत तेज़ हो गयी। लहरें आसमान छूने लगीं। तूफ़ान ‘सेण्ट मार्गरीता’ को कभी इधर तो कभी उधर फेंकने लगा। अंधेरा ऐसा था कि हाथ को हाथ नहीं सूझता था।

जहाज़ छह घण्टे देर से स्टाकहोम पहुंचा। फ़ि‍निश जहाज़ ‘सुओमी’ शायद कभी का हेल्सिंगफ़ोर्स के लिए रवाना हो चुका होगा।

”समय पर नहीं पहुंच पाया,” जहाज़ी को अफ़सोस हो रहा था।

अचानक उसे ‘सुओमी’ दिखायी दिया। वह स्टाकहोम के बन्दरगाह में खड़ा भाप छोड़ रहा था। शायद तूफ़ान की वजह से उसे भी रुक जाना पड़ा था और अब लंगर उठाने की तैयारियां कर रहा था।

”आहिस्ता से आगे!” कप्तान ने आदेश दिया।

चक्कों के नीचे पानी खौलने लगा। जहाज़ चल पड़ा।

”वाइस-कप्तान साहब!” भारी सूटकेस को खींचते हुए जहाज़ी चिल्लाया, ”केनिग्सबर्ग से आपकी चाची ने पार्सल भेजा है!”

दौड़ने की वजह से जहाज़ी हांफ रहा था। सूटकेस बहुत भारी था। उसे लगा कि उसकी सारी कोशिश बेकार हो गयी है, क्योंकि ‘सुओमी’ तट से हट चुका था।

लेकिन नहीं, कोशिश बेकार नहीं गयी। चमत्कार-सा हुआ। कप्तान ने उसका चिल्लाना सुन लिया और…

”आहिस्ता से पीछे!” ‘सुओमी’ पर आदेश सुनायी दिया। ”स्टॉप!”

”वाइस-कप्तान साहब!” जहाज़ी पूरे ज़ोर से चिल्लाया, ”आपकी चाची ने गरम स्वेटर भेजे हैं और नया सूट भी।”

घाट पर खड़े सभी लोग ठहाका लगाकर हंस पड़े। न जाने क्यों, सभी ख़ुश थे कि ‘सुओमी’ पार्सल लेने के लिए वापस लौट आया है। वाइस-कप्तान ने सूटकेस लिया, हाथ हिलाकर जहाज़ी को धन्यवाद दिया और ”पार्सल” को अपने केबिन में छिपा लिया

सूटकेस की यात्रा जारी रही।

जब जहाज़ हेल्सिंगफ़ोर्स पहुंचा, तो मूसलाधार बारिश हो रही थी। वाइस-कप्तान ने बरसाती पहनी और सूटकेस उठाकर तेज़ी से घोड़ाट्राम के स्टाप की ओर बढ़ चला। पानी इतना अधिक बरस रहा था कि जैसे बाढ़ ही आ गयी हो। ओह, कहीं बक्से में पानी न चला जाये! वाइस-कप्तान ने इधर-उधर झांका, पर वह मज़दूर कहीं नहीं दिखायी दिया, जिससे उसे स्टाप पर मिलना था। जहाज़ कुछ घण्टे देर से पहुंचा था। ऊपर से यह मूसलाधार बारिश! सड़कें सुनसान थीं। कहीं वह पीटर्सबर्ग का मज़दूर इन्तज़ार करते-करते ऊब न गया हो! क्या किया जाये?

तभी घोड़ाट्राम आती दिखायी दी… पर वह मज़दूर उसमें भी नहीं था। अचानक वाइस-कप्तान ने देखा कि सामने के घर के फाटक से एक आदमी बाहर निकल इधर-उधर देखते हुए उसकी ओर आ रहा है। यही वह मज़़दूर था, जिससे उसे मिलना था।

”कैसी बदकिस्मती है! खड़े-खड़े अकड़ गया हूं,” मज़दूर बड़बड़ाया।

”तूफ़ान के कारण देर हो गयी। कब जाएंगे?”

”आज।”

”ठीक है। मैं अभी तार से सूचित कर दूंगा।”

मज़दूर ने सहमति में सिर हिलाया और सूटकेस उठाकर घोड़ाट्राम पर चढ़ गया।

कुछ घण्टे बाद सूटकेस रेलगाड़ी से पीटर्सबर्ग जा रहा था।

गाड़ी ख़ाली पड़े वसन्तकालीन खेतों, बारिश से भीगे गांवों और निर्जन दाचों की बग़ल से गुज़र रही थी। पीटर्सबर्ग का मज़दूर इन जगहों को भली-भांति जानता था, इसलिए चुपचाप बैठा अख़बार पढ़ रहा था और बेलोओस्त्रोव स्टेशन की प्रतीक्षा कर रहा था।

बेलोओस्त्रोव से रूस की सीमा शुरू होती थी। वहां हमेशा कस्टम चेकिंग होती थी।

कस्टम का आदमी कम्पार्टमेण्ट में आया।

”कृपया अपने सूटकेस दिखाइए।”

पीटर्सबर्ग के मज़दूर ने बिना कोई जल्दबाज़ी दिखाए अपना सूटकेस खोला।

एक जोड़ी कपड़े, पुराना चारख़ानेदार कम्बल और मिठाई का डिब्बा। बस। कस्टम वाले ने सूटकेस के किनारे ठकठकाये, पर सन्देहजनक कुछ भी न मिला।

उसी दिन मज़दूर पीटर्सबर्ग में था और वसील्येव्स्की द्वीप पर एक पत्थर के मकान की सीढ़ियां चढ़ रहा था। दूसरी मंज़िल पर दरवाज़े़ पर ताँबे की प्लेट लगी थी: ‘दाँतों का डॉक्टर’

आगन्तुक ने घण्टी बजायी। दो लम्बी और एक छोटी। इसका मतलब था कि डरने की कोई बात नहीं, अपना ही आदमी आया है।

दाँतों के डॉक्टर ने दरवाज़ा खोला।

”आइए, आपका ही इन्तज़ार था।”

क्रान्तिकारी गुप्त मुलाक़ातों के लिए यहीं एकत्र हुआ करते थे।

डॉक्टर के कमरे में एक लड़की मज़दूर का इन्तज़ार कर रही थी।

”लाइए,” उसने कहा और मज़दूर के हाथ से सूटकेस ले लिया। बेचारे ने रास्ते में क्या-क्या नहीं झेला था! तूफ़ान, बारिश, कस्टम चेकिंग…

लड़की ने सूटकेस से चारख़ानेदार कम्बल और दूसरी चीज़ें निकालीं। लेकिन यह क्या? आगन्तुक ने सफ़ाई से सूटकेस का तला दबाया और वह ढक्कन की तरह खुल गया। सूटकेस में दो तले थे। निचले तले में कसकर तह किये हुए अख़बार रखे हुए थे। लड़की ने एक अख़बार उठाया।

‘ईस्क्रा’!

अच्छा, तो यह है वह चीज़, जिसे केनिग्सबर्ग, स्टाकहोम, हेल्सिंगफ़ोर्स से होते हुए इतनी मेहनत और इतने गुप्त रूप से म्यूनिख़ से पीटर्सबर्ग पहुंचाया गया है!

लड़की सूटकेस से ‘ईस्क्रा’ निकालकर अपने टोप के डिब्बे में रखने लगी। जब सब अख़बार आ गये, तो उसने फ़ीते से डिब्बे को बांध दिया और पीटर्सबर्ग के छोर पर सक्रिय मज़दूर मण्डलियों को बांटने चल पड़ी।

वह ‘ईस्क्रा’ की एजेण्ट थी। ‘ईस्क्रा’ के गुप्त एजेण्ट रूस के सभी बड़े शहरों में थे।

‘ईस्क्रा’ को गुप्त रूप से जहाज़ों से, रेलगाड़ियों से लाया जाता, सीमा के इस पार पहुंचाया जाता।

‘ईस्क्रा’ मज़दूरों और किसानों की आँखें खोलता, उन्हें दिखाता कि उनका वास्तविक जीवन क्या है।

‘ईस्क्रा’ उन्हें सिखाता: ”ज़ारशाही के ख़ि‍लाफ़ लड़ो! मालिकों के ख़ि‍लाफ़ लड़ो!”

‘ईस्क्रा’ उन्हें पार्टी का निर्माण करने के लिए, क्रान्ति के लिए ललकारता।

शीघ्र ही रूस में ‘ईस्क्रा’ की प्रेरणा से एक शक्तिशाली मज़दूर आन्दोलन शुरू हो गया।

इस विराट आन्दोलन के नेता, मार्गदर्शक और ‘ईस्क्रा’ के मुख्य सम्पादक व्लादीमिर इल्यीच थे।

व्लादीमिर इल्यीच को रूस से मज़दूरों और ‘ईस्क्रा’ के एजेण्टों से बड़ी संख्या में पत्र, लेख, आदि मिलते थे और लगभग सब कूट भाषा में लिखे होते थे। वह उन्हें ‘ईस्क्रा’ में छापते, मज़दूरों के पत्रों के जवाब देते, ‘ईस्क्रा’ के लिए लेख तैयार करते और साथ ही राजनीति और क्रान्तिकारी संघर्ष के बारे में किताबें लिखते।

दिसम्बर, 1901 से व्लादीमिर इल्यीच अपने लेखों और किताबों को लेनिन नाम से छापने लगे।

यह महान नाम था, एक ऐसा नाम, जिससे शीघ्र ही सारी दुनिया परिचित होने वाली थी।


ये कहानियां लेनिन कथा में संकलित हैं और इन्हें मजदूर बिगुल के आरकाइव्स से साभार छापा गया है। प्रसिद्ध सोवियत लेखिका मरीया प्रिलेज़ायेवा की यह पुस्तक बड़ी सरल, आत्मीयतापूर्ण और भावोत्त्तेजक शैली में लिखी गयी छोटी-छोटी कहानियों के ज़रिये क्रान्तिकारी नेता और व्यक्ति के रूप में लेनिन का सर्वांगीण और जीवन्त चित्र प्रस्तुत करती हैं।

आवरण चित्रः रबीउल इस्लाम


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जनपथ हिंदी जगत के शुरुआती ब्लॉगों में है जिसे 2006 में शुरू किया गया था। शुरुआत में निजी ब्लॉग के रूप में इसकी शक्ल थी, जिसे बाद में चुनिंदा लेखों, ख़बरों, संस्मरणों और साक्षात्कारों तक विस्तृत किया गया। अपने दस साल इस ब्लॉग ने 2016 में पूरे किए, लेकिन संयोग से कुछ तकनीकी दिक्कत के चलते इसके डोमेन का नवीनीकरण नहीं हो सका। जनपथ को मौजूदा पता दोबारा 2019 में मिला, जिसके बाद कुछ समानधर्मा लेखकों और पत्रकारों के सुझाव से इसे एक वेबसाइट में तब्दील करने की दिशा में प्रयास किया गया। इसके पीछे सोच वही रही जो बरसों पहले ब्लॉग शुरू करते वक्त थी, कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों के लिए अखबारों में स्पेस कम हो रही है। ऐसी सूरत में जनपथ की कोशिश है कि वैचारिक टिप्पणियों, संस्मरणों, विश्लेषणों, अनूदित लेखों और साक्षात्कारों के माध्यम से एक दबावमुक्त सामुदायिक मंच का निर्माण किया जाए जहां किसी के छपने पर, कुछ भी छपने पर, पाबंदी न हो। शर्त बस एक हैः जो भी छपे, वह जन-हित में हो। व्यापक जन-सरोकारों से प्रेरित हो। व्यावसायिक लालसा से मुक्त हो क्योंकि जनपथ विशुद्ध अव्यावसायिक मंच है और कहीं किसी भी रूप में किसी संस्थान के तौर पर पंजीकृत नहीं है।

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