पत्रकारिता के दारा सिंहों! मदारी को खारिज कर दो, अब भी वक्त है!


इन दिनों पत्रकारिता के दारा सिंहों (ग्राहम स्टेंस और 6 साल की टिमोथी को जिंदा जला देने वाला) की बांछें खिली हुई हैं। ये वही दांत चियारने वाले दारा सिंह हैं जो गौरी लंकेश की हत्या पर जश्न मनाते हैं। ये वही दारा सिंह हैं जो गोविंद पानसरे, नरेंद्र दाभोलकर और एमएम कलबुर्गी की हत्याओं के हामी हैं।

उनकी बात विस्तार से बात करूंगा लेकिन पहले ये साफ कर दूं कि इसी वजह से मैंने कल रात मुरादाबाद में डॉक्टरों पर हुए हमले की पोस्ट वापस ली। इसलिए नहीं कि मैं उनसे मुकर गया हूं। इसलिए कि मैं नहीं चाहता था कि पत्रकारिता के दारा सिंह और माया कोडनानियां मेरी तार्किकता के कंधे का इस्तेमाल करके विमर्श को अपनी सुविधा के हिसाब से मोड़ लें। डॉक्टरों पर हमले के विरोध का मतलब ये नहीं कि मैं हिंदुत्ववाद का समर्थक हो गया हूं। दारा सिंहों को अपने दिमाग से ये जाला साफ कर लेना चाहिए।

छोटे-छोटे बच्चों को जलाकर मार डालने के हिमायती पत्रकारिता के दारा सिंह पटियाला में एक जवान की कलाई काट देने पर थूक सटकने लगते हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री सरदार बेअंत सिंह के हत्यारों को फांसी देने के नाम पर पत्रकारिता के दारा सिंहों के कान से धुआं निकलने लगता है। गंगापुत्र जीडी अग्रवाल की ‘हत्या’ (हां हत्या) की आलोचना के नाम पर पत्रकारिता के दारा सिंह अपने आकाओं का पिछुआ पकड़कर लटक जाते हैं। दारा तब भी कुछ नहीं बोलते जब बुलंदशहर में इंस्पेक्टर सुबोध सिंह को दंगाई हत्यारे मार डालते हैं। पत्रकारिता के दारा सिंह जातीय गौरवबोध के कटार से रोहित वेमुला को मार डालने की बर्बर नीचता पर पाताल में घुस जाते हैं। क्योंकि अपने जिन वरद पिताओं से वो निर्देशित होते हैं वहां जुबानों का एक ही काम है – उनके तलवे चाटना। तो आप शौक से चाटें।

मैंने हर तरह की कट्टरता का हमेशा विरोध किया है। मैंने हमेशा कहा है कि हर धर्म के पोंगापंथियों की खुराक यही कट्टरता है। मैंने हमेशा माना है कि धर्म एक अफीम है और इसे हरगिज नहीं चाटूंगा। लेकिन मैं पत्रकारिता के खोल में घुसे गुंडों, मवालियों, गिरहकटों, कसाईयों के हाथ में भांजने के लिए तलवार नहीं थमा सकता। क्योंकि इस तलवार को वो सुरक्षा के नाम पर हत्याओं के लिए इस्तेमाल करते हैं। यही उनका प्रशिक्षण है।

हर धर्म को अपने भीतर समाज सुधार की गुंजाइश खोजनी चाहिए। यह मानवीय होने की एक सतत परंपरा है। बिना धर्म से लड़े कोई भी समाज तरक्की नहीं कर सकता। यूरोप की पूरी लोकतांत्रिक बुनियाद ही चर्चों को चुनौती पर खड़ी है। गैलीलियो को इसी चुनौती के कारण जेल में डाला गया। जियोर्दानों ब्रूनो को चर्च ने जिंदा जलवा दिया था। राष्ट्रवाद नाम के निहायत फर्जी विमर्श की बुनियाद ही धर्म का खोखलापन है। क्या हिंदुओं में धर्म के नाम पर औरतों को सती होने पर मजबूर नहीं किया गया है? ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने बहुत चालाकी के साथ इसे परंपरा और वीरता में तब्दील करके पूजा का चबूतरा बना दिया। धर्म के नाम पर औरतों को पर्दे के भीतर रखा गया है, दलितों को मंदिरों में घुसने से रोका गया है, आदिवासी बच्चों को पढ़ने से रोका गया है और तो और जानवरों की सवारी करने से रोका गया है। एकलव्य का अंगूठा काटा गया है। ये सब किस धर्म की बातें हैं? पत्रकारिता के दारा सिंहों को इन सबसे कोई मतलब नहीं क्योंकि उनकी गुंडा प्रवृत्ति तार्किकता को मानवीय होने की इजाजत नहीं देती।

मेरे सैकड़ों मुसलमान दोस्त हैं और हजारों हिंदू, सिख और ईसाई। उनमें एक फीसद भी नहीं हैं जो धर्म के नाम पर किसी को मार डालने को जायज ठहराएं। जिस समाज में हम रहते हैं उसमें तो ऐसे लोग और भी कम हैं। लेकिन फेसबुक और ट्विटर जैसे माध्यमों पर यही हिस्सा ट्रोल आर्मी बन जाता है। हिंदुओं, मुसलमानों सबको समझना होगा कि वो इस एक फीसद के हाथों इस्तेमाल तो नहीं हो रहे हैं। इनके ट्रैप में मत फंसिए। ये एक संगठित गिरोह है जो आपको मेरे जैसे तमाम लोगों के खिलाफ उकसाकर ये दिखाना चाहता है कि हमने उन्हें सही मान लिया। उनकी मक्कारियों को समझने की जरूरत है।

ये चैंपियंस गाइड पढ़कर इतिहास में जैसे-तैसे बीए करके अपने आपके को इतिहासकार समझ लेने वाली वो जमात है। ये जमात कभी इरफान हबीब, केएन पणिक्कर, रोमिला थापर, नॉम चॉम्स्की को हजम नहीं कर पाती। बाकी छोडि़ए ज्योतिबा फुले और अंबेडकर तक को नहीं। इनकी बौद्धिक हैसियत नहीं है। ये करणी सेनाओं की लठैती को ही इतिहास समझते हैं। ऐसे ऐसे दारा सिंहों के हाथ से लेकर दिमाग तक में लाठी भर दी गई है। ये अलग अलग मौकों पर आपको पार्कों में इसे फटकारते हुए मिल जाएंगे। इनकी कुंठाओं पर तार्किक प्रश्न करेंगे तो ये बौखला जाते हैं।

मैं हमेशा कहूंगा कि लेखकों, पत्रकारों, चिंतकों, अध्यापकों को धर्म के नाम पर लिखने से रोकना एक आपराधिक प्रवृत्ति है। ऐसे लोग हर धर्म में हैं। अगर तसलीमा नसरीन और सलमान रश्दी की गर्दन काट लेने के फरमान हैं तो दूसरी तरफ रामानुजन के लेख के लिए उपिंदर सिंह पर हमला बोलने की मानिसकता। महान पेरियार की किताबों पर पाबंदी लगाने वाले कौन थे? पत्रकारिता के दारा सिंहों की फितरत है करणी सेनाओं और ब्रह्मर्षि सेनाओं की पादुकाएं उठाना। जो एक फिल्म तक को बर्दाश्त नहीं कर कर सकते वो समाज में अपने हगने-मूतने को ही विमर्श समझकर फेसबुक और ट्विटर की दीवारों पर लीपने लगते हैं, उसकी दुर्गंध को इत्र समझते हैं। उन्हें अपने विशेषाधिकार के साथ जीने का पूरा अधिकार है।

सुनो ‘दारा सिंहों’ मैं अपनी बात पर कायम हूं। लेकिन तुम्हारे जैसे घुंघरू सेठों को उसका इस्तेमाल नहीं करने दूंगा। मेरे कुछ दोस्तों ने तुम्हारी कारगुजारियों के तमाम पोस्टों के छायाचित्र बचा रखे हैं। उनका जिक्र आया तो तुम्हारे इतिहास और सामाजिक बोध का कचरा बिखर जाएगा और चेहरा छिपाने की जगह नहीं मिलेगी। “दारा” ने मेरे एक दोस्त के लिखने-पढ़ने के लिए नौकरी न करने के चयन का “असफल” कहके मजाक उड़ाया था। मेरा वो दोस्त आज जमकर लिख पढ़ रहा है। एक शानदार संस्थान में शानदार काम कर रहा है और अपनी शर्तों पर जी रहा है। मेरे उस दोस्त ने जब दारा के इतिहासबोध की धज्जी उड़ाई तो वो अपने सारे पोस्ट और कमेंट्स डिलीट करके भाग गया। उसे ब्लॉक कर दिया। लेकिन मेरे दोस्त के पास दारा की जड़बुद्धि के सारे सबूत मौजूद हैं। फिर भी मैं अनुरोध करूंगा उसे सार्वजनिक न किया जाए। ऐसे लोगों के अस्तित्व को नकार देना ही उनकी सजा है।

अभी भी समय है दारा सिंहों कि मदारियों को खारिज कर दो। अपने नहीं तो अपने बाल बच्चों के लिए। हमारी आने वाली नस्लों के लिए। डमरू के इशारे पर नाचते-नाचते भूल चुके हो कि तुम भालू नहीं, तुम्हारे भीतर भी एक इंसान है जो मर चुका है। और जिसके अपने भीतर का इंसान नहीं बचता वो पूरे समाज को मरा हुआ समझने की भूल कर बैठते हैं। चलते-फिरते, सांस लेते, पोस्ट लिखते रहने का मतलब जिंदा रहना हरगिज नहीं होता। लेकिन पत्रकारिता के दारा सिंह और माया कोडनानियां इसे नही समझेंगी। तुम्हारे हाथ तार्किकता के खून से रंगे हुए हैं। और तुम्हारे राक्षसी दांत तुम्हारे इरादों का एलान कर रहे हैं। मैं इतना कायर नहीं कि अपनी बात रखने के लिए किसी के कंधे का इस्तेमाल करूं। लेकिन औरतों, बच्चों और बुजुर्गों के हत्यारों पर अट्टाहास करने वाले इसी को वीरता समझते हैं। तुम्हारी वीरता तुम्हारे मुबारक दारा।

दाराओं की फितरत है अपने आकाओं के लिए हत्याएं करना, बच्चों को जलाना, औरतों की हत्याओं का जश्न मनाना। मानवता का माखौल उड़ाना। “दारा” पूरे समाज को दारा बनाने के सपने देखता है लेकिन ये उसका दु:स्वप्न है। हम उन्हें विचारों से परास्त करेंगे।

हम एक तार्किक, प्रगतिशील और मानवीय समाज की स्थापना के लिए ऐसे दारा सिंहों और माया कोडनानियों से लड़ते रहेंगे। इसकी कीमत चाहे जो हो।


About नवीन कुमार

View all posts by नवीन कुमार →

10 Comments on “पत्रकारिता के दारा सिंहों! मदारी को खारिज कर दो, अब भी वक्त है!”

  1. Ahaa, its pleasant discussion about this article at
    this place at this webpage, I have read all that,
    so now me also commenting at this place. Everyone loves what you
    guys are up too. This kind of clever work and reporting!
    Keep up the terrific works guys I’ve included you guys to my blogroll.

    You’ve made some really good points there. I looked on the
    internet for more information about the issue and found most people will go along
    with your views on this site. http://Foxnews.org/

  2. My brother recommended I might like this blog.
    He was entirely right. This post actually made my day. You can not imagine simply how much time I had spent for this info!
    Thanks!

  3. When some one searches for his vital thing,
    thus he/she desires to be available that in detail, thus
    that thing is maintained over here.

  4. You can definitely see your skills within the work you write.
    The sector hopes for more passionate writers
    like you who aren’t afraid to mention how they believe.
    At all times go after your heart.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *