बादशाह के बरक्स किसानों की ताकत का सच गरिमा के साथ स्वीकारने का विवेक क्या शेष है?

समुद्र की लहर किसी भी शाही हुक्मनामे से ज्यादा ताकतवर होती है. इस सहज सी सचाई को समझाना उस समय का विवेक था. हमारे समय का विवेक आज कह रहा है कि किसानों का उमड़ा सैलाब संसद द्वारा पास किसी भी कानून से ज्यादा ताकतवर है.

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3 जनवरी, 1976: ‘सोशलिस्ट’ और ‘सेकुलर’ संविधान के 45 साल

भारत जैसे बहुधार्मिक/बहुजातीय लोकतंत्र में इन शब्दों विशेषकर पंथनिरपेक्ष का महत्त्व बहुत अधिक है, किंतु आज इसी पर सबसे अधिक खतरा है. देश की केन्द्रीय सत्ता में मौजूद भारतीय जनता पार्टी के नेता और समर्थक समय-समय पर सेकुलर शब्द पर हमला करते रहते हैं.

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किसानों से शुरू होकर यह आन्दोलन सिर्फ़ किसानों का नहीं रह गया है!

यह आवश्यक है कि आन्दोलन लम्बे समय तक डटा रहे और चुनावों पर भी वांछित प्रभाव डाले. अपने तात्कालिक हितों और उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए भी आन्दोलन को राजनैतिक तौर पर कुशल और सचेत होना पड़ेगा. इसके लिए यह भी आवश्यक है कि फ़ासीवाद और सम्प्रदायवाद की विरोधी जनपक्षधर शक्तियाँ भी किसान आंदोलन से सीख लें और राजनैतिक सूझ-बूझ का परिचय दें.

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प्रधानमंत्री जी! लोकतांत्रिक सरकार की गाड़ी बिना रिवर्स गियर के चलाने की कोशिश मत करिए!

आदरणीय मोदी जी बोले तो अवश्य किंतु उनके लंबे भाषण में प्रधानमंत्री को तलाश पाना कठिन था। कभी वे किसी कॉरपोरेट घराने के कठोर मालिक की तरह नजर आते जो अपने श्रमिकों की हड़ताल से नाराज है; कभी वे सत्ता को साधने में लगे किसी ऐसे राजनेता की भांति दिखाई देते तो कभी वे उग्र दक्षिणपंथ में विश्वास करने वाले आरएसएस के प्रशिक्षित और समर्पित कार्यकर्त्ता के रूप में दिखते।

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बहुत हो चुका ओली जी! अब विश्राम कीजिए…

पिछले तीन-चार दशकों के बाद पहली बार किसी ऐसी सरकार का गठन हुआ था जो बिना किसी बाधा के अपना कार्यकाल पूरा कर सकती थी। एक स्थायी और स्थिर सरकार ही विकास की गारंटी दे सकती है- इसे सभी लोग मानते हैं। यही वजह है कि व्यापक जनसमुदाय ने इस सरकार से बहुत उम्मीद की थी- बहुत ही ज्यादा।

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अडानी-अम्बानी से बयाना मोदी ने लिया है, सांसदों ने नहीं, इसलिए वे इस्तीफ़ा दें: शिवाजी राय

पूर्वांचल के बड़े किसान नेता, किसान मजदूर संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष और किसान आंदोलन समर्थन समिति, लखनऊ के संयोजक शिवाजी राय मंगलवार को टिकरी बॉर्डर पर किसानों के मंच पर थे. जनपथ की ओर से पत्रकार नित्यानंद गायेन ने इस मौके पर उनसे बात की है.

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जब तमाम राजनीतिक दलों का आर्थिक दर्शन एकसमान है, ऐसे में किसान आंदोलन का हासिल क्या होगा?

सरकार यह जानती है कि ये सारे जनसंघर्ष यदि एकीकृत हो जाएं तो फिर कोई बड़ा परिवर्तन होकर रहेगा। इसलिए वह इस किसान आंदोलन को कमजोर करना चाहती है। वह उन सारी रणनीतियों का सहारा ले रही है जो अभी तक उसके वर्चस्व को बनाए रखने और बढ़ाने में सहायक रही हैं।

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कच्छ के सिख किसान तो 15 तारीख को विरोध कर रहे थे, फिर PM के साथ बैठक में कौन था?

15 दिसंबर को कच्‍छ में जो बैठक हमें प्रधानमंत्री और पीड़ित सिख किसानों के बीच की बतायी गयी, वह दरअसल एक सुप्रीम नेता और उसके कार्यकर्ताओं के बीच की सामान्‍य शिष्‍टाचार बैठक थी।
इस बैठक का न तो किसान कानूनों से कोई लेना देना था, न ही कच्‍छ में बसे सिख किसानों की समस्‍या से।

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कृषि पर कॉर्पोरेट कब्ज़ा संवैधानिक अधिकारों और लोकतंत्र के निगमीकरण की शुरुआत है

अगर आपने मुख्यधारा की मीडिया में होने वाली विशेषज्ञ चर्चाओं और वहां परोसे जाने वाले दृश्यों को अपनी सारी बुद्धि पहले से ही गिरवी नहीं रखी है, तो आप परी कथा की तरह सवाल पूछ सकते हैं: “आईना, दीवार पर आईना, मुझे दिखाओ कि इन सबके पीछे कौन है”। और फिर, आईना सत्तारूढ़ पार्टी के दो सबसे शक्तिशाली राजनेताओं (दोनों गुजरात से) को नहीं दिखाएगा, बल्कि दो अन्य चेहरे, देश के दो सबसे अमीर कारोबारी (दोनों ही गुजरात से) को दिखाएगा।

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किसान आंदोलन की पृष्ठभूमि में तीन नए कृषि कानूनों का एक विश्लेषण

ये तीनों सुधार मौजूदा कृषि उत्पादों के बाजार की संरचना पर से सरकार का नियंत्रण हटाने के मकसद से किये गए हैं। जब कोविड और लॉकडाउन की वजह से खेती में पहले से चले आ रहे संकट में और भी इज़ाफ़ा हो गया, और जब वंचितों और हाशिये पर मौजूद परिवारों को राज्य की सहायता की जरूरत थी ताकि निर्दयी और निरंकुश बाजार की अनिश्चितताओं और क्रूरताओं से राज्य उनकी रक्षा करे तब मोदी सरकार ने बाजार को और अधिक खोलकर और अपना नियंत्रण हटाकर समाज के कमजोर तबकों को बाजार के सामने पूरी तरह असहाय छोड़ दिया। वास्तव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का देश की जनता को आत्मनिर्भर बनाने का एजेंडा यही था।

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