3 जनवरी, 1976: ‘सोशलिस्ट’ और ‘सेकुलर’ संविधान के 45 साल


भारतीय लोकतंत्र में आज के दिन का विशेष ऐतिहासिक महत्त्व है. 3 जनवरी 1976 को 42वें संविधान संशोधन के जरिये संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़े गये थे. यह संशोधन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था.

संविधान के 42वें संशोधन (1976) द्वारा संशोधित यह उद्देशिका कुछ इस तरह है:

हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की और एकता अखंडता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प हो कर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई० “मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हज़ार छह विक्रमी) को एतद संविधान को अंगीकृत, अधिनियिमत और आत्मार्पित करते हैं.

पहले प्रस्तावना के मूल रूप में तीन महत्वपूर्ण शब्द थे- सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न (सॉवरेन), लोकतांत्रिक (डेमोक्रेटिक) गणराज्य (रिपब्लिक). इसके बाद 42वें संशोधन में बदलाव करके समाजवाद (सोशलिस्ट), पंथनिरपेक्ष (सेक्युलर) शब्द जोड़ दिए गए. कुछ लोगों की नजर में ये सकारात्मक बदलाव था तो कुछ इसे सरकार की ओर से भ्रम पैदा करने वाले बताए जाने लगे. 

भारत जैसे बहुधार्मिक/बहुजातीय लोकतंत्र में इन शब्दों विशेषकर पंथनिरपेक्ष का महत्त्व बहुत अधिक है, किंतु आज इसी पर सबसे अधिक खतरा है. देश की केन्द्रीय सत्ता में मौजूद भारतीय जनता पार्टी के नेता और समर्थक समय-समय पर सेकुलर शब्द पर हमला करते रहते हैं.

25 दिसंबर 2017 को बीजेपी नेता और तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री आनंत कुमार हेगड़े ने कर्नाटक के कोप्पल ज़िले में ब्राह्मण युवा परिषद संबोधित करते हुए संविधान की इसी पंथनिरपेक्षता (सेक्युलरिज़्म) पर हमला बोला था. उन्होंने कहा था: “कुछ लोग कहते हैं कि ‘सेक्युलर’ शब्द है तो आपको मानना पड़ेगा. क्योंकि यह संविधान में है, हम इसका सम्मान करेंगे लेकिन यह आने वाले समय में बदलेगा. संविधान में पहले भी कई बदलाव हुए हैं. अब हम हैं और हम संविधान बदलने आए हैं.”

हेगड़े ने कहा था- सेक्युलरिस्ट लोगों का नया रिवाज़ आ गया है. अगर कोई कहे कि वो मुस्लिम है, ईसाई है, लिंगायत है, हिंदू है तो मैं खुश होऊंगा क्योंकि उसे पता है कि वो कहां से आया है. लेकिन जो खुद को सेक्युलर कहते हैं, मैं नहीं जानता कि उन्हें क्या कहूं. ये वो लोग हैं जिनके मां-बाप का पता नहीं होता या अपने खून का पता नहीं होता.

वहीं वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 के लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा था- चुनाव में किसी विपक्षी दल को सेकुलरिज्म का चोला ओढ़ने तक की हिम्मत नहीं हुई. मोदी ने कहा था: तीस साल से देश में, विशेष रूप से, वैसे ये ड्रामेबाज़ी तो लंबे समय से चल रही है- एक टैग था, जिसका नाम था सेक्युलरिज्म, जिसका चोला ओढ़ते ही सारे पाप दूर हो जाते थे. नारे लगते थे कि सारे सेक्युलर एक हो जाओ. आपने देखा होगा कि 2014 से 2019 आते आते उस पूरी जमात ने बोलना ही बंद कर दिया. इस चुनाव में एक भी राजनीतिक दल सेक्युलरिज़्म का नकाब पहनकर देश को गुमराह करने की हिम्मत नहीं कर पाया.

यह बात उन्होंने किस संदर्भ में कही थी उसे समझना बहुत कठिन नहीं है. गुजरात से लेकर दिल्ली तक उनके पूरे कार्यकाल को देख कर इसका अंदाजा लगाया जा सकता है.

इन दिनों बीजेपी शासित राज्यों में लव में ‘जिहाद’ खोजने का काम और उस पर सजा देने की प्रक्रिया पर काम तेजी से चालू है. इससे भी काफी कुछ समझा जा सकता है.

इसी तरह आरएसएस प्रचारक और बीजेपी से राज्यसभा सदस्य राकेश सिन्हा संविधान से ‘समाजवादी’ शब्द को हटाने के लिए राज्यसभा में प्रस्ताव तक ले आये थे.

संविधान की प्रस्तावना को ‘संविधान की कुंजी’ कहा जाता है. प्रस्तावना के अनुसार संविधान के अधीन समस्त शक्तियों का केंद्रबिंदु अथवा स्रोत ‘भारत के लोग’ ही हैं, लेकिन बीजेपी अब संविधान में बदलाव चाहती है. कैसा बदलाव उसका अंदाजा आनंत कुमार हेगड़े के शब्दों और राकेश सिन्हा के प्रस्ताव से लगाया जा सकता है.

2014 के बाद से गाय के नाम पर जिस तरह से मुस्लिम समुदाय के लोगों के साथ लिंचिंग हुई और पुलिस का रवैया और अदालतों के फैसले आये उसके बाद से कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी दलों, प्रगतिशील और बुद्धिजीवियों के मन में बीजेपी के प्रति संदेह और तेज हो गया है.

इन दिनों समय-समय पर सोशल मीडिया पर ‘हिन्दू राष्ट्र’ ट्रेंड करता रहता है. कोरोना के समय सत्ता समर्पित कथित राष्ट्रवादी मीडिया चैनल और दूषित मानसिकता के एंकरों और पत्रकारों ने तब्लीगी जमात के बहाने मुसलमानों के बारे में जिस तरह से झूठ फैलाकर उन्हें बदनाम करने की कोशिश की और सरकार ने सुप्रीमकोर्ट में उनके बचाव में जो तर्क दिया उससे भी इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि बीजेपी संविधान में क्यों और किस तरह का बदलाव चाहती है.

संविधान को लोकतंत्र की आत्मा कहा जाता है क्योंकि वही दस्तावेज लोकतंत्र की गारंटी है. हाल ही में एक मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीमकोर्ट को जस्टिस जोसफ ने कहा था कि ‘सेकुलरिज्म’ संविधान के अन्य बुनियादी स्तंभों की तरह है जिस पर यह संविधान टिका हुआ है. जिस तरह से कोई चीज पांच स्तंभों पर खड़ी हो तो उनमें से किसी भी एक स्तंभ को हटाया या हिलाया नहीं जा सकता. ऐसा होने पर उसकी बुनियाद हिल जाएगी. इसलिए उसे हटाया नहीं जा सकता.

जिस तरह संविधान भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद है उसी तरह भारत जैसे बहुधार्मिक देश के लिए पंथनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द बहुत महत्वपूर्ण है. इसलिए आज के दिन का भारतीय संसदीय लोकतंत्र में ऐतिहासिक महत्त्व है.

गौरतलब है कि, संविधान की प्रस्तावना से समाजवाद और पंथनिरपेक्ष शब्द हटाने की मांग को लेकर इस साल जुलाई में सुप्रीमकोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी. याचिका में कहा गया है कि संविधान की प्रस्तावना में बाद में जोड़े गए दो शब्द समाजवाद और पंथनिरपेक्ष को हटा दिया जाए. यह याचिका तीन लोगों ने वकील विष्णु शंकर जैन के जरिये दाखिल की थी. याचिकाकर्ता बलराम सिंह और करुणेश कुमार शुक्ला पेशे से वकील हैं.

याचिका में प्रस्तावना से समाजवाद और पंथनिरपेक्ष शब्दों को हटाने की मांग करते हुए कहा गया है कि ये दोनों शब्द मूल संविधान में नहीं थे. इन्हें 42वें संविधान संशोधन के जरिये 3 जनवरी 1977 को जोड़ा गया. जब ये शब्द प्रस्तावना में जोड़े गए उस समय देश में आपातकाल लागू था. इस पर सदन में बहस नहीं हुई थी, ये बिना बहस के पास हो गया था. कहा गया है कि संविधान सभा के सदस्य केटी शाह ने तीन बार पंथनिरपेक्ष (सेकुलर) शब्द को संविधान में जोड़ने का प्रस्ताव दिया था लेकिन तीनों बार संविधान सभा ने प्रस्ताव खारिज कर दिया था. बीआर अंबेडकर ने भी प्रस्ताव का विरोध किया था.


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