सरकार के लिहाज का नया न्‍यायिक शिष्‍टाचार


पिछले सप्‍ताह (पढ़ें महीने) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्‍ली में नये संसद भवन का वृहद् भूमि पूजन किया। सुप्रीम कोर्ट ने इस भवन के शिलापूजन समारोह को मंजूरी दी थी। सर्वोच्‍च अदालत ने प्रधानमंत्री को पंडितों के सहारे इतिहास बनाने की यह अनुमति जिस तरीके से दी, उससे लगता है गोया वह किसी लिहाज का प्रदर्शन कर रही थी। मुख्‍य न्‍यायाधीश जस्टिस एएम खानवलकर की बेंच ने सरकार द्वारा अदालत के निर्देशों की बेपरवाही पर निराशा जतायी। दि हिंदू में 8 दिसंबर को प्रकाशित एक रिपोर्ट ‘’एससी नॉड फॉर सेंट्रल विस्‍टा इनॉग्रेशन’’ के मुताबिक बेंच ने कहा था: ‘’हमने सोचा था कि वादी विवेकवान है और वह लिहाज का प्रदर्शन करेगा… हमने आपका लिहाज रखा और आपसे भी विवेकपूर्ण तरीके से व्‍यवहार की अपेक्षा की थी। अदालत के प्रति ऐसी ही लिहाज दिखाया जाना चाहिए और कोई विध्‍वंस या निर्माण नहीं होना चाहिए।‘’

जस्टिस खानवलकर की बेंच की ओर से आयी यह अद्भुत टिप्‍पणी उद्घाटक थी। माननीय न्‍यायाधीशों का साधुवाद कि उन्‍होंने सार्वजनिक रूप से यह बता दिया कामधाम का नया हिसाब किताब क्‍या है। अचानक ही हाल के वर्षों में आए और आने से रह गए तमाम न्‍यायिक फैसलों के मायने लिहाज के इस शिष्‍टाचार (प्रोटोकॉल) के आलोक में साफ़ होते दिखते हैं। बेंच के किए इस उद्घाटन पर कुछ सवाल भी खड़े होते हैं। मसलन, अव्‍वल तो यही कि शीर्ष न्‍यायालय किसके प्रति लिहाज प्रदर्शित कर रहा है? एक व्‍यक्ति? एक प्रधानमंत्री या एक विधि मंत्री? मौजूदा राजनैतिक सत्‍ता के प्रति? एक संस्‍थान के रूप में कार्यपालिका के प्रति? फिर दूसरे छोर से सवाल उठता है कि यह लिहाज कौन प्रस्‍तावित कर रहा है? एक जज, चाहे कोई भी हो? या फिर न्‍यायपालिका का मौजूदा नेतृत्‍वकारी समूह? या फिर, समूची न्‍यायपालिका, जिसके शीर्ष पर बतौर संवैधानिक संस्‍था सुप्रीम कोर्ट बैठी है? इन सवालों के जवाब आसान नहीं हैं।

अमेरिका से तुलना

इस लिहाज प्रदर्शन को अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट की न्‍यायपारायणता के सामने रखकर देखें। बस कुछ महीने पहले तक जो अदालत अमेरिकी राष्‍ट्रपति डोनाल्‍ड ट्रम्‍प के अधीन मानी जाती थी, आज उसने उनकी चुनावी गुंडागीरी को मानने से इनकार कर दिया है। हो सकता है कि अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के ज्‍यादातर जजों की नियुक्ति रिपब्लिकन राष्‍ट्रपतियों ने ही की हो, लेकिन अब वे वाइट हाउस में बैठे एक रिपब्लिकन के इशारों पर चलने को अपना संस्‍थागत कर्तव्‍य नहीं मानते। उनका न्‍यायिक उद्यम अब उनकी संवैधानिक अंतर्दृष्टि और नैतिक संकल्‍प से अनुप्राणित है, न कि सत्‍ता में बैठे नेताओं की जरूरत से। ऐसे में किसी भी अमेरिकी राष्‍ट्रपति के लिए यह सोचना ही विवेकहीनता होगी कि सुप्रीम कोर्ट उसके प्रति लिहाज दिखाएगा। यह भी अकल्‍पनीय है कि सुप्रीम कोर्ट का कोई जज इस बारे में सोच भी पाए कि वाइट हाउस किसी लिहाज का पात्र है। एक संस्थान दूसरे संस्‍थान का सम्‍मान करता है, लेकिन ये लिहाज क्‍या बला है, जनाब?   

लिहाज का यह प्रोटोकॉल गूढ़ और घुमावदार चीज़ है। किसी को तेल लगाना या खुश करना एक जज का काम नहीं है। लिहाज अपने मूल में मौन सम्‍मति की द्योतक है जहां कोई संवैधानिक कुतुबनुमा नदारद होता है। सोचिए, इस लिहाज के पीछे शर्तें क्‍या-क्‍या हो सकती हैं?

कोई भी संस्‍थान तभी तक अपनी धार कायम रख सकता है जब तक उसका नेतृत्‍व सशक्‍त चरित्र वाले व्‍यक्तियों के हाथों में हो। यह भी आसानी से माना जा सकता है कि सारे जज उत्‍कृष्‍टता के मानक पर खरे नहीं उतर सकते। एक जज अपनी बौद्धिक गहराई, नैतिक अंतस, निजी आग्रहों, राजनीतिक प्राथमिकताओं और न्‍यायिक मिजाज की सीमाओं के भीतर काम करता है। हर जज ऐसे गुणों और प्रवृत्तियों से युक्‍त नहीं होता कि अपना खुद का न्‍यायिक पौरुष विकसित कर सके।

नियंत्रण और संतुलन

इन सब के बावजूद हमारे न्‍यायाधीश एक संवैधानिक ढांचे और संस्‍थागत इंतज़ामिया से बंधे होते हैं तो केवल इसलिए ताकि वे अपनी निजी सीमाओं से पार जाकर अखंडता और सम्‍मान के साथ अपना धर्म निबाह सकें। हमारे गणराज्‍य के निर्माताओं ने बिलकुल यही परिकल्‍पना तो की थी।

इस गणराज्‍य के बनने के आरंभिक दिनों की बात है जब सरदार वल्‍लभभाई पटेल ने एक बार प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सत्‍ता की सीमाओं की याद दिलाते हुए कहा था: ‘’हमारे समक्ष अब एक संविधान है… इसका मतलब यह है कि कार्यपालिका की प्रत्‍येक कार्रवाई को विधिक मंजूरी होनी चाहिए और उसका एक न्‍यायिक तर्क होना चाहिए।‘’

व्‍यावहारिक स्‍तर पर देखें तो कार्यपालिका की अपनी भूमिका में हमारे राजनीतिक वर्ग ने अपनी सत्‍ता और अधिकारों का इस्‍तेमाल मनमाफिक प्रभुत्‍व कायम करने में किया है, भले ही राष्‍ट्रीय सुरक्षा समेत दूसरे सरोकार कितने ही विकट रहे हों।

इसके उलट, हमारे राष्‍ट्रीय राजनैतिक नेतृत्‍व को एक ऐतिहासिक प्रतिबद्धता और लोकतांत्रिक उत्‍कृष्‍टता की भावना से खुद को, अपने आचार व्‍यवहार को और अपनी नीतियों को न्‍यायपालिका की निगरानी पर छोड़ देना चाहिए था। ज़रूरत पड़ती तो न्‍यायपालिका की ओर से इनकार के लिए भी उसे खुद को तैयार रखना चाहिए था। बुनियादी बात यह थी कि इस गणराज्‍य की लोकतांत्रिक और नैतिक सेहत का संस्‍थागत संरक्षण किया जाना था, न कि एक राष्‍ट्रीय मसीहा का लबादा ओढ़े किसी ऐरे गैरे नायक के रहमोकरम पर छोड़ा जाना था।

परंपरा से विक्षेप

भला हो इस लिहाज के न्‍यायशास्‍त्र का, कि जवाबदेह कार्यपालिका की मूल भावना ही नष्‍ट हो चली है। इससे भी बुरा यह हुआ है कि शीर्ष न्‍यायपालिका बड़ी आसानी से कार्यपालिका के इस आग्रह में बह गयी है कि एक बार कोई कानून अगर संसद से पारित हो गया तो उसे लोकतंत्र में चुनौती नहीं दी जा सकती। उदाहरण के लिए, नागरिकता (संशोधन) कानून का विरोध और आलोचना करने वालों के प्रति उच्‍च न्‍यायालयों का निष्‍ठुर रवैया देखा जा सकता है।

लिहाज का यह प्रोटोकॉल इमरजेंसी के बाद प्रबल तरीके से दोबारा हासिल और अब तक कायम रही आजादी और खुद-एतमादी की गौरवशाली परंपरा से एक विक्षेप है।

अब, चूंकि सिक्‍का ज़मीन पर अचानक गिर गया है और हमें लिहाज की अनुगूंज सुनायी दे गयी है, तो शायद हम इस बात का अर्थ समझ सकें कि आखिर भारत के एक मुख्‍य न्‍यायाधीश ने क्‍यों कोर्ट संख्‍या 1 को देखने की प्रधानमंत्री की इच्‍छा पूरी की रही होगी। हाल ही में रिटायर हुए मुख्‍य न्‍यायाधीश को राज्‍यसभा में मिली सीट इस कहानी का दूसरा सिरा पूरा करती है।

फिर इसमें कोई अचरज नहीं कि न्‍यायिक सक्रियता की अवधारणा कितनी आसानी से हमारे संवैधानिक आचार से अचानक नदारद हो गयी, एक संस्‍थागत औज़ार और एक स्‍वयंसिद्ध उक्ति दोनों के ही रूप में। शोक मनाना तो दूर, किसी को इसकी भनक तक नहीं लगी। बेंच पर कभी न्‍यायिक अतिसक्रियता के आरोप लगते थे, आज उन दिनों से हम कितनी दूर आत्‍मनिषेध की मंत्रबिद्ध अवस्‍था में पहुंच चुके हैं।

लिहाज का यह नया शिष्‍टाचार हमारे गणराज्‍य की सेहत के लिए हानिकारक है। इसने हमारी लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था में घातक असंतुलन पैदा कर दिया है। हम शायद यह भूल रहे हैं कि चुनाव का सम्‍बंध केवल पद प्राप्ति से होता है, उससे संतत्‍व नहीं मिल जाता। किसी संतुलनकारी न्‍यायिक निरोध की अनुपस्थिति में भ्रष्‍ट अहंकारोन्‍माद और मजबूत होता है। सत्‍ताधारी गिरोह में दंभ तो वैसे भी पैठ चुका है। अब ऐसा लगता है कि नैतिक बेरुखी पूरे तंत्र को निगलती जा रही है। यही वजह है कि सिंघू बॉर्डर पर किसानों को बैरिकेडों का सामना करना पड़ रहा है।


(साभार: दि हिंदू, 17 दिसंबर 2020, अनुवाद: अभिषेक श्रीवास्‍तव, समयान्तर के जनवरी अंक में प्रकाशित)


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