दो सदी के आदिवासी इतिहास पर शोध करने वाले इस युवा का कैद होना अकादमिक जगत का नुकसान है

हम महज़ उम्मीद कर सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट उसकी जिंदगी में ऐसा अनुकूल समय लेकर आए, उमर सहित उन तमाम युवाओं को रिहा करे जिन्हें अन्यायपूर्ण तरीके से कैद किया गया है, सिर्फ इसलिए कि वे अपने घरो और परिसरों से बाहर निकले और सीएए के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शनों में शामिल हुए। इनकी अकादमिक स्‍वतंत्रता स‍ुनिश्चित करने में न्‍यायपालिका का पक्ष निर्णायक होगा।

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क्या नये भारत में राज्य की इच्छा ही न्याय है?

अंतरराष्ट्रीय संधियों की बाध्यता को आधार बनाकर अपनी सुविधानुसार सत्ता नागरिक अधिकारों में कटौती कर रही है जबकि अंतरराष्ट्रीय कानून के उन उदार अंशों को रद्दी की टोकरी में डाला जा रहा है जो शरणार्थियों एवं अल्पसंख्यकों के अधिकारों से संबंधित हैं। ऐसे समय में मानवाधिकारों की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट से उम्मीद लगाये आम आदमी की हताशा स्वाभाविक ही है।

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राज्य, सरकार, कानून और समाज की जटिल गुत्थी: अनिल चौधरी का एक व्याख्यान

यह जो समय था अंदर से चीजों को बदलने का वो पूरा हो चुका है। वो दिन लद चुके हैं जब इस इमारत को ठोक पीटकर रिपेयर किया जा सकता था, ठीक किया जा सकता था। हमारे बाप दादाओं की पीढ़ी ने कोशिश करके देख लिया। हम भी लास्ट स्टेज में पहुंच चुके हैं।

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तिर्यक आसन: परिवार और सामुदायिकता में लगा परजीवी स्टेट का कीड़ा

अपने प्रतिनिधियों की सरकार और अपने आविष्कारों पर जनता की निर्भरता देख स्टेट चिंतामुक्त हो गया है। हमारी चेतना पर वो तमाम पट्टियाँ बाँध चुका है। एक पट्टी खुलती है, तब तक राजनीति और धर्म के प्रतिनिधियों के सहयोग से नई पट्टी बाँध देता है।

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राग दरबारीः पंत से लेकर अंत तक राजसत्ता की मज़हबी जंग के सात दशक

पॉल ब्रास के अनुसार, पंडित पंत की नीति का ही यह परिणाम था कि आने वाली आधी शताब्दी तक मुसलमानों की भागीदारी उत्तर प्रदेश की सरकारी सेवाओं और पुलिस में लगातार कम होती चली गयी.

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