राज्य, सरकार, कानून और समाज की जटिल गुत्थी: अनिल चौधरी का एक व्याख्यान


पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने पेगासस जासूसी कांड में राज्‍य के ऊपर टिप्‍पणी करते हुए जॉर्ज ऑरवेल के उपन्‍यास 1984 से उद्धृत किया और सत्‍ता-समाज के ‘ऑरवेलियन’ होते जाने पर चिंता जाहिर की। इस संदर्भ में समाज, राज्य और कानून के बीच परस्‍पर संबंधों पर छिटपुट चर्चाएं कहीं देखने को मिली हैं। राज्य, सरकार, समाज और कानून के आपसी संबंधों पर आज से आठ साल पहले लखनऊ में एक गोष्ठी हुई थी। उक्‍त गोष्ठी में सामाजिक बदलाव की ताकतों के सहयात्री अनिल चौधरी ने एक महत्‍वपूर्ण भाषण दिया था। उस भाषण का एक अंश जनपथ के पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत है। यह अंश राज्य और सरकार की अवधारणा सहित कानून और समाज के साथ उसके संबंध को स्पष्ट करने में मददगार साबित हो सकता है। यह भाषण समकालीन तीसरी दुनिया के जनवरी 2013 अंक में प्रकाशित हुआ था और वहीं से साभार है।

संपादक
अनिल चौधरी

…कानून, सरकार और समाज की बात करूं तो पहले मैं ये करेक्शन लगाना चाहूंगा कि जो विषय है वास्तव में वो समाज, राज्य और कानून है। और सबसे बड़ी समस्या- चूंकि मैं मार्क्सवादी परंपरा से आता हूं और जब पार्टी के लिए फील्ड में काम करना शुरू किया तो इसी मुद्दे को लेकर समस्याएं आती रहीं- कि लोग राज्य और सरकार के बीच भेद नहीं करते। ये केवल दो शब्द नहीं हैं बल्कि दो अवधारणाएं हैं,  दो अलग चीजें हैं। राज्य बहुत बड़ा दायरा है और सरकार बहुत संकुचित है। सरकार जो है राज्य का एक अंग है, सरकार अपने आप में राज्य नहीं है। राज्य उन ताकतों से बनता है जो व्यापक समाज के अंदर अपना असर रखती हैं। इसको स्पष्ट करने के लिए उदाहरण लूं।

जैसा कि आप सब जानते हैं कि तमाम कानून ऐसे हैं जो सरकारें बनाती हैं लेकिन वो लागू नहीं हो पातेः 1951-52 का जमींदारी उन्मूलन कानून, 1974 का भूमि हदबंदी कानून, दहेज निरोधक कानून, महिला हिंसा के खिलाफ कानून ये सब बने। उत्तर प्रदेश का एक उदाहरण लें तो जमींदारी उन्मूलन के बाद जमींदारी ही खत्म नहीं हुई, हदबंदी कानून तो लागू ही नहीं हुआ। चार लाख एकड़ के करीब जमीन है जो चिन्हित है हदबंदी से अतिरिक्त, लेकिन उसके आगे उस पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। इसका मतलब है सरकार, जिसने कानून बनाए, उसके अधिकारी जो बैठे हुए हैं, उनसे भी बड़ी कोई ताकत है जो इतनी बड़ी है कि कानून बन जाने के बाद भी, सरकारी तामझाम के बाद भी, अदालतों के बाद भी कानून को लागू नहीं होने देती। तो ये बड़ी ताकत कौन है?

जो मैं उदाहरण रख रहा हूं उससे स्पष्ट हो जाना चाहिए कि सरकार अंतिम नहीं है- सरकार से ज्यादा ताकतवर कुछ है! इसलिए यह समझना जरूरी है कि वो जो कुछ है वही राज्य का निर्माण करती है। जो किताबों में पढ़ाया जाता है उसमें भी चार चीजें बताई जाती हैं जिनसे मिलकर राज्य बनता है। एक तो सीमा होती है, एक सीमा के अंदर रहने वाला समाज, एक सीमा के अंदर रहने वाले लोग और संप्रभुता यानी जो अपने जीवन को प्रभावित करने वाले फैसले लेने का हक रखते हैं और यह ऐसा हक है जिसे दूसरे मान्यता देते हैं, चौथा है सरकार यानी इन सबको चलाने वाला और प्रबंधन करने वाला तंत्र। तो ये चार चीजें तो कम से कम किताबों में लिखी हुई हैं, विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं जिनके हिसाब से राज्य बनता है। इसके हिसाब से भी देखें तो सरकार चार में से भी एक है।

तो राज्य क्या है? सारी समस्या यह है कि राज्य मूर्त नहीं है अमूर्त है। साकार और निराकार वाली बात होती है न। तो सरकार तो साकार है लेकिन राज्य निराकार है। उसको देखा नहीं जा सकता इसलिए वो हमारे दिमाग से फिसल जाता है। अंग्रेजी में कहा जाता है कि जो आंख के सामने नहीं है वो विचार से भी गायब हो जाता है। चूंकि यह अमूर्त धारणा है इसलिए यह गायब हो जाती है। जो असली मसला है और हम लोग जिस परिप्रेक्ष्य में बात करने का प्रयास कर रहे हैं, वह यह है कि जो दमनकारी कानून बनते आए हैं, अंग्रेजों के समय के कानून भी जो आज तक लागू हैं, जबकि आजादी के 65 साल हो चुके हैं और उन दमनकारी कानूनों का परिष्कार किया जा रहा है उन्हें और अधिक मजबूत बनाया जा रहा है और ज्यादा सक्रियता के साथ उनका इस्तेमाल किया जा रहा है। इसलिए हम लौटकर के इस पूरे रिश्ते के ऊपर देखने की कोशिश कर रहे हैं।

राज्य की उत्पत्ति और विकास को लेकर दो तरह के विचार और धारणाएं हैं। एक धारणा का सीधे-सीधे कहना है कि राज्य कुछ और नहीं बल्कि एक समय विशेष पर व्यापक समाज के अंदर जो सत्ता समीकरण है, उसके अंदर जो शासक वर्ग है उसका यह हथियारबंद संगठन है। जो शासक वर्ग है उसका समाज के अंदर दबदबा चलता है, जिसकी जरूरतें, जिसके विचार पूरे समाज को संचालित करते हैं। ऐसे शासक वर्ग के संगठित हथियारबंद गिरोह की परिभाषा राज्य के रूप में दी जाती है।

दूसरी धारणा जो रही है वह यह बताने की कोशिश करती है कि मानव समाज के विकास की धारा में एक स्थिति ऐसी आयी कि समाज जो है उसका दायरा बड़ा होता गया। पहले कबीला था फिर कुछ बड़ा हुआ फिर और बड़ा हुआ, भौगोलिक रूप से विस्तार होता चला गया तो यह मामला सामने आया कि सार्वजनिक जीवन का संचालन कैसे हो? तो सार्वजनिक जीवन के लिए एक अनुबंध हुआ। इस अनुबंध के अनुसार लोगों ने अपनी सामान्य इच्छा के जरिये कुछ लोगों को यह काम सौंप दिया कि आप हमारी देखभाल करेंगे और हम आपकी मानेंगे। अब इसमें कई तरह के पेंच रहे हैं। कई दार्शनिकों ने इसे अपने अपने तरीकों से बयान किया लेकिन कुल मिलाकर राज्य को इन्हीं दो तरीकों से देखा जा सकता है। अभी तक राज्य को देखने का कोई तीसरा तरीका सुनने में नहीं आया है।

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एक नजरिया बिल्कुल साफ है कि राज्य का मतलब शासक वर्ग का सशस्त्र संगठन और जिसे हम आजकल अपनी रोजाना की जिंदगी में महसूस करते हैं। जब मैं बहुत पहले 1974 में मथुरा में मजदूर यूनियन के लिए काम करता था तो सोचता थे कि कैसे लोगों को राज्य समझाएं तो उनसे पूछता था कि अमुक घटना के समय पुलिस किसकी तरफ से आयी थी? हर कोई तो राजनीतिशास्त्र पढ़ा हुआ होता नहीं तो उसे बात कैसे पकड़ में आएगी। इसलिए अगर शासक वर्ग उसकी समझ में आ जाय तो सशस्त्र संगठन अपने आप दिखाई देने लगता है।

अगर हम यह मानकर चलें कि बड़े उद्योगपति, बड़े जमींदार और अंतर्राष्ट्रीय पूंजी का मिलकर आजकल दबदबा चल रहा है और यह दबदबा जो चल रहा है शासक वर्ग को उसके साथ मिलाकर देखने की कोशिश करें कि आज जो सशस्त्र संगठन है- सेना, पुलिस, अर्द्धसैनिक बल ये क्या हैं तो बात साफ होने लगती है। ये सशस्त्र संगठन का मूर्त रूप हैं और यह मूर्त रूप किसके लिए काम कर रहा है? अगर ऐसे चार उदाहरण निकल कर सामने आएं जिससे यह सिद्ध कर दिया जाय कि ये सशस्त्र संगठन जनता के लिए काम कर रहे हैं तो यह सिद्धान्त गलत हो जाएगा। लेकिन आज की तारीख में अगर यही उदाहरण निकल कर सामने आए कि जो शासक वर्ग है उसी की रक्षा के लिए, उसी के हित साधने के लिए इस सशस्त्र संगठन का इस्तेमाल हो रहा है तो यह सिद्धान्त साफ दिखाई देगा। जो अनुबंध का नाटक है कि किसी समय जनता ने यह कह दिया था कि हमारा ध्यान रखना हम इसके बदले में आपको अपने ऊपर शासन करने का अधिकार देते हैं तो उसकी जो थोड़ी बहुत संभावना थी वह तो इस युग में समाप्त हो चुकी है। अब तो इस दौर में पुलिया सड़क भी बनती है तो उस पर चंदा यानी फीस देकर जाना पड़ता है… तो राज्य की तरफ से क्या मिलता है?

एक बार दिल्ली में एक जनसुनवाई हो रही थी। उसका फॉरमेट था बयान देने का तो उसमें मैंने अपनी बात बयान के तौर पर शुरू की कि मेरी पढ़ाई प्राथमिक शिक्षा से लेकर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय तक चार आने से लेकर 18 रुपये के बीच हुई। उस समय जेएनयू की फीस 18 रुपये थी और चवन्नी प्राइमरी स्कूल की फीस थी। पचास पैसे का कार्ड जिला चिकित्सालय में बनता था। उसमें डाक्टर तो मिल ही जाता था दवाई मिलने में पंगा हो तो बात अलग है लेकिन फिजीशियन से मिलने में दिक्कत नहीं थी। तो इस तरह की तमाम चीजें हम अपनी जिंदगी में देख सकते हैं, लेकिन आज ऐसा नहीं हो पा रहा है। जब हमें अपना बच्चा पढ़ाना पड़ रहा है, तो चवन्नी और 18 रुपए से काम चलने वाला नहीं है। प्राइमरी की फीस भी बहुत ज्यादा हो गई है। मुझे ऐसा लगता है जो अनुबंध का सिद्धांत था उसका मेरे पिताजी के लिए कुछ और मतलब था, मेरी जिंदगी आते-आते अनुबंध गायब हो गया। अब अनुबंध एकतरफा है। टैक्स आप दिए चले जाओ, 12.5 प्रतिशत वैट है, इनकम टैक्स है, ये टैक्स है वो टैक्स है लेकिन टैक्स के एवज में क्या है? टैक्स के एवज में जो पचास पैसे के कार्ड पर डाक्टर मिल जाता था वो नहीं मिलता। जो चवन्नी में पढ़ाई हो जाती थी, वो आजकल नहीं हो पाती।

सड़क पर चलने के लिए तीन तरह के टैक्स हैं- एक है गाड़ी का पंजीकरण कराया तो रोड टैक्स दिया, फिर उसमें तेल भरवाया तो रोड डेवलपमेंट कर डेढ़ रुपए प्रति लीटर पर देना पड़ता है और जिस नाके से निकलते हो टोल देना पड़ता है। टोल जा रहा है प्राइवेट कंपनी को। तो ये सब पैसा सरकार लिए बैठी है और कंपनियां कमा रही हैं। तो अनुबंध कैसा रह गया! यह तो एकतरफा है। हमारा काम है मेहनत करो, खटो और सरकार को चंदा दो और उनका काम है उस चंदे के इस्तेमाल से अपने सशस्त्र संगठन को मजबूत करना यानी सेना, पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों को मजबूत करना और ऐसे तरीके निकालना जिससे कारपोरेशन और कंपनियां अधिक लाभ कमा सकें। जिन चीजों में पहले कमाई नहीं होती थी उनमें भी कमाई कर सकें। भोजन, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य से भी मोटा मुनाफा कमा सकें– सिर्फ मोटरसाइकल, गाड़ी, रेफरिजरेटर आदि बनाकर ही सीमित न रहें। इस तरह एकतरफा कार्यक्रम चल रहा है। वो लोग कहते हैं नहीं जी नरेगा भी तो चल रहा है। लोगों को रोजगार दिया जा रहा है। हर परिवार के एक सदस्य को सौ दिन का काम दिया जा रहा है। इसका कैल्कुलेशन करें तो सौ दिन का सौ रुपए के हिसाब से दस हजार रुपए होते हैं। परिवार का साइज देश की जनगणना के हिसाब से पांच सदस्य प्रति परिवार है, तो पांच सदस्यों के परिवार के लिए साल का दस हजार एक के हिस्से में कितना बनता है! उसमें कोई जी सकता है? और कहने को हमारे यहां दुनिया का सबसे बड़ा प्रोग्राम चल रहा है।

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सरकार सोचती है कि हमें लोगों ने दो बार जिता दिया। 2014 में भी इसीलिए जिता देगी कि हमारे यहां दुनिया का सबसे बड़ा प्रोग्राम चल रहा है। जब सरकार के खुद के बनाए कानून मिनिमम वेजेज से भी नरेगा के तहत मिलने वाली राशि कम ठहरती है तो यह तो कानून का उल्लंघन है, लेकिन चल रहा है। एक तरफ ये है और दूसरी तरफ देख रहे हैं आप कोयले की खानें अलॉट कर दीं पैसा नहीं लिया देश हित में। विकास दर को कायम रखने के लिए बिना पैसे लिए ही लाखों एकड़ जमीन खनन के लिए दे दी। इसमें क्या चरित्र निकल कर आता है? किसके लिए काम हो रहा है? इन तीनों चीजों के बीच में जो रिश्ता है वह व्यापक समाज में जो सत्ता समीकरण है, जिसका दबदबा चलता है, वो प्रतिबिंबित होता है।

सरकार में किसी को भी आप चुनकर भेज दो या आप खुद चले जाओ। बहुत लोग चुनकर गए हैं। एक बहुत पुराने सी.पी.एम. के एमपी रहे हैं ए. के. गोपालन साहब। उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी थी जिसे पहले मेरे पिताजी ने पढ़ी थी बाद में मैंने पढ़ी। यह जीवनी कई जगहों पर अंडरलाइन की हुई थी। इसमें गोपालन जी ने अपने अनुभवों का बखान किया है कि जब वो एमपी बनकर दिल्ली गए तो वहां क्या हो रहा था और क्या नहीं। यह बहुत अच्छा चित्रण है और लगभग एक उपन्यास जैसा है। उसके बाद धीरे-धीरे वह यह निकालने की कोशिश करते हैं कि यह सब ऐसी सुविधाएं हैं जो हमें सोचने पर मजबूर करती हैं कि दूसरी बार और एमपी बन जाते तो अच्छा रहता। ऐसा नहीं कि ईमानदार लोग राजनीति में नहीं गए। समझदार, बुद्धिजीवी लोग गए हैं। एक समय था जब कम्युनिस्ट लोग सरकार में शामिल होकर कांग्रेस को अंदर से बदलने गए थे। कुमारमंगलम के पिताजी भी उसी लिस्ट में शामिल हैं और कई बड़े लोग भी इस लिस्ट में शामिल हैं।

कई लोग इस मैदान में उतरे हैं। इस क्षेत्र में प्रयोग भी बहुत किए गए लेकिन कुल मिला कर मामला यही निकलता है कि जो लेनिन बाबा ने अपनी किताब में लिखा है। उन्होंने लिखा था कि जिसको हम जनतंत्र कहते हैं वह पूंजी के फलने-फूलने का अभेद्य कवच है। इसी लेख में आगे चलकर वो लिखते हैं कि व्यक्ति और दलों के बदलने से इसके अंदर कोई बदलाव नहीं आता है। उनके लेख ‘स्टेट ऐंड रिवोल्यूशन’ की ये दोनों बातें पिछले 30 साल से, जब भी हमारे यहां उथल पुथल मचती है, मेरे दिमाग में आती हैं और फिर से खोल कर पढ़ता हूं और सही निकलती हैं। इस ढांचे के अंदर जो भी प्रयास किए गए हैं वो इसकी धार को कम नहीं कर पाए हैं- इसकी एक्सेप्टेबिलिटी को बढ़ाने का काम जरूर किया है, इसमें आस्था पैदा करने का काम किया है।

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इसलिए जो हमारा विषय है उसका क्रम बदल कर देखने की जरूरत है। पहले समाज को लें क्योंकि राज्य का जन्म भी समाज से ही हुआ है। समाज बुनियाद है। समाज में जो सत्ता समीकरण है, जिनका दबदबा चलता है उनके हिसाब से राज्य का चरित्र निर्माण होता है और राज्य के चरित्र के हिसाब से उनके अनुकूल कानून बनते हैं। इसको उल्टा देखने से बात पकड़ में नहीं आती है।

आज यह देखकर ताज्जुब होता है कि इस विषय पर हम लोग कितनी बहस करते है, कितने सेमिनार करते हैं, काले कानून पर सम्मेलन किए जाते हैं, लिस्ट प्रस्तुत करते हैं कि यह धारा कितनी जनविरोधी है इन सबमें बहुत समय लगाते हैं। सवाल यह उठता है कि इसमें ताज्जुब की कौन सी बात है। जिस समाज में हम जी रहे हैं उसमें डेली लेवल पर सत्ता समीकरण क्या है? मुहल्ला स्तर पर देख लीजिए, गांव के स्तर पर देख लीजिए, शहर के स्तर पर देख लीजिए, जिले के स्तर पर देख लीजिए कि किन लोगों का दबदबा चलता है और जो सशस्त्र संगठन है वो उन्हीं के लिए काम करता है या नहीं करता। कभी मजबूरी में फंस जाय आदमी, धरना प्रदर्शन करके कचहरी से कोई ऑर्डर पास हो जाए, कोई मंत्री जेल चला जाय- यह सब अपवाद है, यह नियम नहीं है। नियम हो तो पूरी कैबिनेट जेल में बैठी होनी चाहिए थी। अपवाद के तौर पर चार पांच साल में इक्का दुक्का नमूना कभी सामने आ जाता है।

हमारे सत्ता वर्ग के भी तो अंतर्विरोध हैं। आपस में दबंगों की लड़ाई नहीं है क्या। हर शहर में शहर बदमाशों में पूरे उत्तर प्रदेश में लड़ाइयां होती हैं कि नहीं। हर शहर में एक शहर-बदमाश होता है जो मारा जाता है तो उसकी जगह लेने के लिए लड़ाइयां होती हैं। फिर एक स्थापित होता है और उसके मारे जाने के बाद और कोई यह जगह लेता है, मैं तो यही देखता आ रहा हूं। बिल्कुल इसी तरह से राज्य का चरित्र है। राज्य जो है वह सरकार का बाप है सरकार उसका एक पिद्दी सा हिस्सा है। यह बात आपको तब महसूस होती है जब व्यापक समाज में उन लोगों के सामने, जिनकी चलती है, सरकारें मजबूर दिखाई देती हैं। आज सब्जी, खाने के सामान की कीमतें बढ़ती जा रहीं हैं और प्रधानमंत्री से लेकर अर्थशास्त्री सभी परेशान हैं। क्या उनको नहीं पता कि जो खाने की चीजों पर सट्टेबाजी हो रही है, जिसे कमोडिटी स्टॉक मार्केट बोलते हैं, यह सब उसकी वजह से है। हमारे देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने खुद यह शुरू कराया था। उनका योगदान महंगाई में है कि नहीं लेकिन पूरी दुनिया में किसी देश की सरकार की इतनी हिम्मत नहीं है कि वह अपने देश में खाद्य पदार्थों पर चल रही सट्टेबाजी पर रोक लगा दे। जो लोग खाद्य पदार्थों के सट्टे का कारोबार करते हैं, जिन्सों की कीमत ऊपर-नीचे करने का काम कर रहे हैं, वे सरकार से अधिक ताकतवर हैं। उनके मुकाबले सरकार कमजोर है। तो इसका मतलब है राज्य सामाजिक ताकतों से बनता है। जो सामाजिक ताकतें जिस समय में ताकत रखती हैं राज्य की ताकत उनके पास होती है, सरकार उनका प्रतिबिंब होती है और कानून उसका प्रतिबिंब होते हैं इसलिए कानून बनते हैं। अंग्रेजों ने 1918 में प्रिवेंटिव डिटेंशन कानून बनाया। क्यों बनाया? उस समय दबदबा किसका था? उन्होंने कब्जा किया हुआ था तो जो उनकी जरूरतें थी उसके हिसाब से सरकार चलती थी। अब लोग सवाल उठाते हैं कि आजादी मिलने के बाद भी यह कानून हटाया क्यों नहीं गया तो इस बात पर गौर करने की जरूरत है कि आजाद होने के बाद भी किनका दबदबा था।

हम 1947 में आजाद हुए लेकिन 1945 में ही बॉम्बे प्लान नाम की चीज को तैयार करके रख दिया गया। आल इंडिया कांग्रेस कमेटी ने अपने यहां के उद्योगपति टाटा के नेतृत्व में अंग्रेजों को प्लान बनाकर दे दिया था कि आजाद होने के बाद इस तरह सरकार चलनी चाहिए। बॉम्बे प्लान का कागज उठा लीजिए और आजादी के बाद बीस सालों को देख लीजिए कि जो नीतियां बनाई गयीं वे कांग्रेस द्वारा बनाई गईं या बॉम्बे प्लान लिखने वालों ने बनाई। आजादी से पहले ही तय हो गया था कि किसकी चलेगी, उनका दबदबा व्यापक समाज में था। कांग्रेस का कमिटमेंट था किसानों के साथ। उन्हें अंग्रेजों से लड़ने के लिए, भीड़ लाने के लिए किसानों से कई वादे करने पड़े थे। जवाहर लाल नेहरु भी तबीयत से अंग्रेज आदमी थे। कभी खेती नहीं की लेकिन किसानों के नेता थे। किसान संगठन के अध्यक्ष रहे हैं। उस समय जो नारे लगाए जाते थे जैसे जो जोतेगा वो खायेगा, धन और धरती बंट के रहेगी…उन्हें सुनकर भीड़ जमा होती थी। एक नेहरू के अंकल थे गांधी जी, जो कहते थे कि नारे में जमीन बांटने की बात तो करो मगर जमींदारो को मारो नहीं। वह एक लगाम लगाए रहते थे। तालमेल बैठाए रखते थे। 1936 से कांग्रेस ने जमीन बांटने का प्रस्ताव पारित कर रखा है तो यह कब बंटेगी तो वहां उन्होंने 1951 में कानून बना दिया और तालमेल बैठा दिया। यह बहुत रुचिकर मामला है। जब अंग्रेज देश से गए तब देश में जितनी भी खेती की जमीन थी उसके लिए तीन तरह की व्यवस्थाएं थीं। एक जमींदारी व्यवस्था थी, एक को रैयतवाड़ी व्यवस्था बोलते हैं और एक को महलवाड़ी व्यवस्था बोलते हैं। कुल जमीनों में 57 फीसदी जमींदारी व्यवस्था में, 36 प्रतिशत रैयतवाड़ी व्यवस्था में और बाकी 7 प्रतिशत महलवाड़ी व्यवस्था में थी। यह काफी रोचक है। सरकार ने कहा कि जो जोत रहा है उसके नाम जमीन कर दी जाए। कांग्रेस का वादा था इसलिए फरमान जारी कर दिया गया। चक्कर क्या था कि 57 फीसदी जमींदारी व्यवस्था में जो किसान जमीनों को जोत रहे थे उनका नाम ही कहीं दर्ज नहीं होता था। जो लोग लगान जमा करने का काम करते थे उनके ही नाम दर्ज थे। उनकी जिम्मेदारी थी कि वे लगान देंगे और इसी तरह कई लोगों के ऊपर सुपरवाइजर होते थे जो उनकी निगरानी रखते थे कि लगान सही से जमा किया जा रहा है या नहीं, तो उन लोगों को थोड़ी थोड़ी जमीन दे दी गई कि तुम इससे कमाओ खाओ और हमारा कलेक्शन करके दो।

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इस तरह सरकारी फरमान जारी होने के बाद भी किसी को जमीनें नहीं गईं। रैयतवाड़ी व्यवस्था जो थी उसमें खेती करने वाले का नाम लिखा जाता था और उसी पर सीधे लगान लगता था इसलिए यहां तो किसान सीधे जमीन का मालिक हो गया। बाकी सात फीसदी दिल्ली के आसपास के इलाके का मामला है। वहां गांववाले खेती करते थे। तो आधे से ज्यादा भूभाग पर यह काम हुआ ही नहीं और इसे पूरा करने में सरकार ने अपना दम भी नहीं लगाया। क्यों सरकार ने दम नहीं लगाया क्योंकि जो सरकार थी, वह राज्य नहीं था। जो जमींदार थे वे रुतबे वाले लोग थे जिनका दबदबा अंग्रेजों के जमाने से ही चला आ रहा था और आजादी के बाद भी कायम रहा।

हमारे एक उस्ताद हुआ करते थे जेएनयू में जोगेन्दर सिंह। उन्होंने 1968 में लखनऊ विश्वविद्यालय में अपनी पीएचडी जमा की थी। मैं जब एम.फिल कर रहा था तो मैंने उसे पढ़ा था। उसमें उन्होंने बड़े अच्छे से दिखाया है कि जो रजवाड़े थे जैसे हमारे सीतापुर में 14 थे, छोटे से जिले में ही इतने राजा थे जो इसके ताल्लुकेदार थे, नई व्यवस्था आने के बाद टैक्स कलेक्ट करने का काम तो इनका समाप्त हो गया तो ये क्या करें। फिर 1956 में पंचायती राज लाया गया, पंचायत के चुनाव हुए। जोगेन्दर सिंह जी का अध्ययन यह बताता है कि दो राउंड चुनाव के अंदर जो 1956 से अगले दस सालों में हुए ये सभी रजवाड़े और ताल्लुकेदार ब्लाक प्रमुख और सरपंच बनकर वापस आ गए और बाकायदा कानूनी तौर पर चुनकर आए और बड़े क्षेत्र पर उनको अधिकार मिल गए। उन्होंने बीस जिलों का पूरा अध्ययन किया है और दस साल के समय को उन्होंने इसमें शामिल किया है। जो ताकतें आजादी से पहले प्रभुत्वशाली थीं वर्ष 1966 तक एक बार फिर से जनतांत्रिक व्यवस्था में भी प्रभुत्वशाली बनकर वापस लौट आईं। सरकार, जो छोटा हिस्सा है, उसे इस नजर से समझा जाना चाहिए। सवाल यह उठता रहा है कि बात तो बहुत ठीक है लेकिन हम लोग तो रोज के आधार पर लड़ने वाले हैं तो यह लड़ाई कैसे लड़ेंगे। लड़ना तो यही है न कि कानून को बदलो। हम बदलने की मांग कर सकते हैं और हम लोग तो ऐसी जगह लाकर पटके गए हैं कि पानी मांगने लायक नहीं हैं।

जब हम बड़े हो रहे थे तो हमें यही समझ आ रहा था कि जो आजादी हमें मिली है वह वास्तव में आजादी नहीं है। संविधान भी जो बना वह भी अपूर्ण है। लेकिन उस समय जो संविधान सभा थी उसको 18 साल से अधिक उम्र वाले 15 प्रतिशत लोगों ने चुना था। उस समय सबको मत देने का अधिकार नहीं था, तो 85 फीसदी से अधिक लोगों का तो प्रतिनिधित्व ही वहां नहीं था। इस बात के व्यावहारिक पक्ष को ऑपरेशनल मेकेनिज्म में समझने का प्रयास कीजिए। जो राजा लोग थे, दबंग थे, उन लोगों की संविधान सभा बनी। 15 फीसदी दबंग लोगों ने संविधान सभा बनाई। 1947 से 1951 तक यही लोग सरकार थे। देश में आम चुनाव तो 1952 में हुआ जिसमें हर वयस्क को वोट देने का अधिकार था। इससे पहले तक 15 फीसदी लोगों की ही सरकार चली। इसका अध्ययन करना जरूरी है कि यह पंद्रह फीसदी लोग कौन थे? इनमें आपको मिलेंगे इंगलैंड से पढ़कर वापस आए लोग। और इंगलैंड जाने की औकात किनकी थी? आम आदमी की तो औकात नहीं थी। यह जमींदारों, राजाओं और रईसों के बच्चे थे या इन्ही में से सरकार ने जिसे भेज दिया वो जा सकता था। अंग्रेज सरकार ने जिन लोगों को तमीजदार और समझदार माना उन लोगों की लिस्ट द्वारा संविधान सभा का चुनाव हुआ और उन्होंने फिर हमारा कानून बनाया। हम लोग जो यह कहते रहते हैं कि अंग्रेजों के जमाने का कानून क्यों अब तक लागू है वह इसी वजह से है।

भारत का लगभग 95 प्रतिशत संविधान काउंसिल आफ इंडिया ऐक्ट 1935 में भारत के लिए बनाए गए कानून जैसा ही है। इसमें बहुत थोड़ा ही बदलाव है। इसमें ताज्जुब करने वाली कौन सी बात है? किससे शिकायत करने जा रहे हो? कुल मिला कर समस्या क्या आती है कि मानव अधिकार संगठन हैं जो मानव अधिकारों के लिए काम करते हैं। मानव अधिकार संगठनों की भी एक सीमा होती है कि हमें इसी ढांचे के अंदर रहकर काम करना है।

न्याय की अवधारणा, मानवाधिकार और विलंबित न्याय: संदर्भ BK-16

अब अगर हमारी लड़ाई का यही दायरा है और इसी दायरे में रहकर ही लड़ना है तो हमें लड़ाई फिर दूसरे तरीके से लड़नी पड़ेगी, लेकिन इसके साथ साथ अपनी समझ को पैनी करते रहना भी जरूरी है। हम कानून के बदलने की लड़ाई भी लड़ते हैं तो उसके क्या परिणाम होते हैं? पीछे क्या हुआ? टाडा गया पोटा आया, पोटा गया नया कानून आया। एक दायरे के अंदर यह लड़ाई हो रही है। हम बड़ी मेहनत करके आंकड़ा इकट्ठा करते हैं। यह सिद्ध करते हैं कि यह कानून गलत है, इसमें यह गलत है, लेकिन हम जो बदलने के लिए कहते हैं वह नहीं बदलते।

जो यूपीए बना, उसमें आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स ऐक्ट की धारा को पूरा का पूरा वहां से काट करके  उसमें पेस्ट कर दिया गया है। दोनों को कॉमा फुलस्टॉप के साथ मिलाया जा सकता है। मैंने इसे मिलाकर देखा है। मामला यह आता है कि दायरों में रह कर लड़ाई कब तक चलेगी? दायरा बदलने की लड़ाई भी कोई करेगा या नहीं करेगा और जिनके नाम लड़ाई लड़ने का टेंडर खुला था वो नदारद हैं। हमारे यहां तमाम पार्टियां इसे बदलने के लिए बनी थीं जिनमें से एक पार्टी से हम निकाले भी गए थे। इन पार्टियों में तमाम वामपंथी दल, समाजवादी विचारधारा रखने वाली पार्टियां शामिल हैं। संसदीय प्रजातंत्र की एक कमजोरी यह है कि यह बिना पार्टियों के चल नहीं सकता और संसदीय प्रजातंत्र का मंत्र इतना जोरदार है कि उसमें सभी पार्टी एक जैसी हो जाती हैं। एक बार जो दल जीत जाता है उसकी शक्ल वैसी ही दिखाई देने लगती है। यह सोचकर हैरानी होती है कि जिस देश के पहले प्रधानमंत्री सड़क पर खुली जीप में जाते दिखाई देते थे, वहीं आज एक एमएलए भी अपनी सिक्युरिटी को लेकर चलता है चाहे वह किसी भी पार्टी का हो। जो और बड़े हो जाते हैं मायावती जैसे वहां तो सिक्युरिटी के प्रकारों को लेकर लड़ाई होती है कि जैड सुरक्षा मिलनी चाहिए या जैड प्लस मिलनी चाहिए। वहां यह लड़ाई और बड़ी हो जाती है।

जनतंत्र है तो जनता के प्रतिनिधि होकर किससे डर रहे हो? यह सब ऐसे ही नहीं थे। मुलायम सिंह हमी लोगों के बीच घूमा करते थे। खुद पहलवान थे, नौजवान नेताओं के साथ चला करते थे। उस समय उन्हें सुरक्षा की जरूरत नहीं होती थी, लेकिन जब एक बार घुस गए इस खेल में तो उसी के रंग में रंगना पड़ता है। रंगने के भी कई तरीके हैं जिसके लिए मैंने एके गोपालन की जीवनी का भी जिक्र किया था। कितने तो भत्ते मिलते हैं, कितनी तनख़्वाह है, एक बार चुनाव जीत गए तो उम्र भर के लिए पेंशन, जाने कितनी सुविधाएं, विकास का फंड। यह कहां से शुरू हुआ, क्यों शुरू हुआ, क्या जरूरत थी जो अब एमपी के लिए पांच करोड़ कर दिया गया है। बहुत से सांसदों को भी नहीं पता कि इसका क्या करना है। जिन सांसदों की कलेक्टर के साथ सैटिंग हैं, सयाने हैं वही इसे खर्च कर लेते हैं और उनकी बल्ले बल्ले है, नहीं तो ज्यादातर खर्च ही नहीं कर पाते। यह सब व्यवस्था कर दी गई है।

आदर्शों का लोप: राष्‍ट्रीय आंदोलन के दौरान भारत के भविष्‍य की परिकल्‍पना: संदर्भ नेहरू और गांधी

कुल मिलाकर मैं यह कहना चाहता हूं कि यह जो समय था अंदर से चीजों को बदलने का वो पूरा हो चुका है। वो दिन लद चुके हैं जब इस इमारत को ठोक पीटकर रिपेयर किया जा सकता था, ठीक किया जा सकता था। हमारे बाप दादाओं की पीढ़ी ने कोशिश करके देख लिया। हम भी लास्ट स्टेज में पहुंच चुके हैं।

तो कितने दिन और कोशिश होगी। इधर से नहीं तो उधर से ठीक करके दे दिया। मरम्मत का काम भी एक हद तक ही होता है। एक दिन आता है जब इमारत को तोड़कर बनाना पड़ता है। पिछले पंद्रह सालों में यह चीजें इतनी तेजी से स्पष्ट हुई हैं, जो ध्रुवीकरण हुआ है गरीब और अमीर के बीच और इनके बीच सामंजस्य बनाने की जितनी भी संभावनाएं और प्रक्रियाएं थीं वो सब ध्वस्त होती हुई दिखाई दे रही हैं। आज हालत यह है कि अगर कई लाख किसान अपनी जमीन देने को तैयार न हों तो हमारे देश का विकास हो ही नहीं सकता। या तो किसान रहेगा या आठ प्रतिशत की विकास दर रहेगी। जिस स्थिति में हम आज हैं, इस स्थिति में सामंजस्य कहां से ढूढेंगे। देश का प्रधानमंत्री खुद कह रहा है। पांच मंत्रियों ने कहा है मीटिंग में कि यह कानून बन गया तो देश का विकास नहीं होगा, जमीन तो चाहिए ही चाहिए। हाईवे वाला कह रहा है हाइवे के लिए जमीन चाहिए, वाणिज्य मंत्री का कहना है जमीन नहीं मिली तो विदेशी निवेश नहीं आएगा। सब रोना रो रहे हैं। इसका मतलब है अगर उनकी चलेगी तो सुबह नोटिस आ जाएगा कि ऑफिस बंद होने से पहले जमीन खाली करके जाना पड़ेगा और यह सब देश और विकास के नाम पर होगा।

एडजस्टमेंट की गुंजाइश कहां रह गई है! ऐसी व्यवस्था चल रही है जो कमाने से पहले खर्च करवा रही है। डिग्री पाने से पहले कर्जदार हो जाना है। पांच-पांच लाख सालाना की फीस पर आज बच्चे पढ़ने जा रहे हैं। पढ़ाई पूरी होने के एक साल बाद ही कर्ज की किस्तें चुकाने का काम शुरू हो जाता है, नौकरी लगते ही बैंक क्रेडिट कार्ड थमा देते हैं, तनख्वाह मिलने से पहले ही खर्च हो चुकी होती है। नौकरियों का कोई भरोसा नहीं; कब चली जाए, कोई गारंटी नहीं। इस तरह की नौकरियों की संख्या लगातार बढ़ रही है और पक्की नौकरियों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। हर सरकारी विभाग के अंदर चतुर्थ श्रेणी की भर्ती पंद्रह सालों से बंद है। टाइपिस्टों की भर्ती बंद है। जब जरूरत पड़े टाइपिस्ट बुलाओ, उसकी सप्लाई करने वाली कंपनियां यह काम कर रही हैं। सब चीजें आउटसोर्सिंग पर चल रही हैं। यह परिस्थिति पैदा हो रही है। इनके बीच गरीब और अमीर के बीच तालमेल बैठने वाली कहां कोई चीज है।

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यही चीज हमें दिखाई देती है सरकार और राज्य के आचरण में। झूठे मुकदमे लगाना कोई नई चीज नहीं है। मेरे ऊपर डकैती का मुकदमा सन् 1967 में लगाया गया था धारा-395 के तहत। तब तक न इमरजेंसी आई थी न कुछ और। ये तो अंग्रेज सिखा गए थे। उनका यही चलन था। जिस देश में भी उन्होंने हुकूमत की वहां इसी तरह के हथकंडे अपनाए। किसी भी थाने में चले जाओ कट्टा रखने पर बंद वाली धारा बीस में कई मिल जाएंगे। जब झूठे मुकदमे पहले से लगते आ रहे हैं तो अब क्या फर्क हो गया है। इसका जवाब यह है कि अब मुकदमों की संख्या बहुत बढ़ गई है और खास तरीके के लोगों पर लगाए जा रहे हैं। यह चिंता का विषय है। इसलिए हमें बार-बार गोष्ठी, सम्मेलन करने पड़ रहे हैं।

लेकिन जैसे जैसे गरीब और अमीर के बीच की दूरी बढ़ती जा रही है लड़ाई आर-पार की होती जा रही है। सरकार के तरकश में जितने तीर हैं उन सबको इस्तेमाल करने की कोशिश की जा रही है और तीर बहुत हैं। चरस की पुड़िया को जेब में रखने से लेकर देशद्रोह तक का आरोप लगाने पर सरकार उतारू है। यह आर-पार की लड़ाई है। सैटेलमेंट का कोई रास्ता अब है ही नहीं। आर-पार की यह लड़ाई कैसे होगी? इसका रास्ता कैसे निकलेगा? तो यही तरीका है कि ज्यादा से ज्यादा बैठने के मौके पैदा किये जायं और बातचीत और चर्चा द्वारा सम्मिलित रूप से सामूहिक खोज करने की कोशिश की जाय- उसी से कोई रास्ता दिखाई देगा।



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