बहसतलब: साध्य-साधन की शुचिता और संघ का बेमेल दर्शन

पिछले एक दशक में संघ ने भाजपा का बेताल बनकर न सिर्फ राजकीय-प्रशासनिक तंत्र पर अपना शिकंजा कसा है बल्कि उसे अपने आनुवंशिक गुणों से विषाक्त भी किया है। आजकल घर-घर द्वारे-द्वारे, हर चौबारे, चौकी-थाना और सचिवालय तक वैमनस्य, हिंसा, भ्रष्टाचार और गैर-जवाबदेही का जो नंगा-नाच चल रहा है, वह इसी दार्शनिक दिशा का दुष्परिणाम प्रतीत होता है।

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‘आयरन लेडी’ इंदिरा गांधी और संघ का लोकप्रिय दुष्प्रचार

इंदिरा गांधी को उनकी पुण्यतिथि पर याद करते हुए इस तथ्य को भी संज्ञान में रखा जाना चाहिए कि उनकी हत्या से कुछ दिन पहले ख़ुफ़िया विभाग ने उन्हें सूचित कर दिया था कि एक समुदाय विशेष के उनके अंगरक्षकों से उन्हें खतरा है और इसलिए उन्हें वे हटा दें। उन्होंने यह कहते हुए ऐसा करने से इनकार कर दिया कि हो सकता है सूचना सही हो लेकिन एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का प्रमुख होने के नाते वे ऐसा नहीं कर सकतीं।

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‘अग्निपथ’ का दूसरा सिरा संघ के निजी सैनिक स्कूलों तक जाता है इसलिए सवाल योजना की मंशा पर है!

पिछले तीन साल के दौरान देश में घटनाक्रम इतनी तेज़ी से बदला है कि न तो मीडिया ने संघ के शिकारपुर आर्मी स्कूल की कोई सुध ली और न ही अखिलेश ने ही बाद में कुछ भी कहना उचित समझा। अब ‘अग्निपथ’ के अंतर्गत साढ़े सत्रह से इक्कीस (बढ़ाकर तेईस) साल के बीच की उम्र के बेरोज़गार युवाओं को ‘अग्निवीरों’ के रूप में सशस्त्र सेनाओं के द्वारा प्रशिक्षित करने की योजना ने संघ के आर्मी स्कूल प्रारम्भ किए जाने के विचार को बहस के लिए पुनर्जीवित कर दिया है।

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भाजपा और संघ की असली समस्या कांग्रेस और ‘परिवार’ नहीं बल्कि देश की जनता है!

‘विश्व गुरु’ बनने जा रहे भारत देश के प्रधानमंत्री को अगर अपना बहुमूल्य तीन घंटे का समय सिर्फ़ एक निरीह विपक्षी दल के इतिहास की काल-गणना के लिए समर्पित करना पड़े तो मान लिया जाना चाहिए कि समस्या कुछ ज़्यादा ही बड़ी है।

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इतिहास में किस रूप में याद की जाएंगी लता मंगेशकर?

दुनिया में आज तक किसी विचारहीन कलाकार ने इतिहास में स्थान नहीं बनाया है, चाहे वह अपने जीवन-काल में कितना भी महान क्यों न लगता रहा हो। लता के गीत भले ही कुछ अरसे तक जीवित रहें, लेकिन एक कलाकार के रूप में लता इतिहास के कूड़ेदान में वैसे ही जाएंगी, जैसे कोई टूटा हुआ सितार जाता है, चाहे उसने अपने अच्छे दिनों में कितने भी सुंदर राग क्यों न निकाले हों।

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क्या स्वाधीनता संग्राम को गति देने के लिए सावरकर जेल से बाहर आना चाहते थे?

इतिहास के नए पाठ में इस बात को बार-बार रेखांकित किया जा रहा है कि सावरकर के माफीनामे जेल से बाहर निकलकर पुनः क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम देने का मौका प्राप्त करने की रणनीति का हिस्सा थे। यह देखना रोचक होगा कि सेल्युलर जेल से रिहा होने के बाद सावरकर के साथी क्रांतिकारियों का जीवन किस प्रकार बीता।

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शहीद उधम सिंह के शहादत दिवस को ‘साम्राज्यवाद विरोधी दिवस’ के रूप में मनाया गया: SKM

किसानों पर तरह-तरह के झूठे और मानहानिकारक आरोप लगाने के बाद, “अय्याशजीवी” एक नया प्रयास है – लाखों मेहनती, शांतिपूर्ण और दृढ़ किसानों की सच्चाई इन प्रयासों से दबाया नहीं जा सकता है – किसानों के सत्य पर आधारित यह आंदोलन विजयी होगा।

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इमरजेंसी: पचीसवीं वर्षगांठ मनाने के भाजपा के फैसले को स्वामी ने ‘हास्यास्पद’ क्यों लिखा था?

सुब्रमण्यम स्वामी ने अपने इस लेख में बताया है कि कैसे आरएसएस के नेता माधवराव मुले ने नवंबर 1976 के शुरुआती दिनों में उनसे कहा कि वह विदेश चले जाएं क्योंकि संगठन ने इंदिरा गांधी के सामने आत्मसमर्पण करने से संबंधित दस्तावेज तैयार कर लिया है। इस दस्तावेज़ पर जनवरी 1977 में हस्ताक्षर हो जाएगा और फिर ‘इंदिरा और संजय को तुष्ट करने के लिए तुम्हें बलि का बकरा बनाया जाएगा क्योंकि तुमने विदेशों में इनके खिलाफ काफी दुष्प्रचार किया है।’

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बात बोलेगी: खुलेगा किस तरह मज़मूं मेरे मक्तूब का या रब…

जिसके कहे पर देश चलने लगा था या उतना तो चलने ही लगा था जितनों की उँगलियों में देश की बागडोर सौंपने का माद्दा था, आज वे उँगलियां उस नीली स्याही को कोसती नज़र आ रही हैं जिसे वोट करते वक्‍त उन्‍होंने लगवाया था। ऐसी हर कम होती उंगली का एहसास इस विराट सत्ता को हो चुका है।

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राजपथ के रंगीन सपनों में खलल के बीच छवि बनाने का ‘संघठनात्‍मक’ अभियान

राजा और प्रजा के बीच उत्पन्न हुआ विश्वास का संकट उन रंगीन सपनों में ख़लल डाल सकता है जो नई दिल्ली में राष्ट्रपति भवन और इंडिया गेट के बीच राजपथ पर आकार ले रहे हैं। सारी परेशानी बस इसी बात की है।

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