भारतीय संविधान : हाशिये के समाज का मैग्नाकार्टा

आज के समय में हाशिये के समाज में तमाम सामाजिक विद्रूपताएं व समस्याएं दिखाई देती हैं। इसका कारण यह भी है कि संविधान द्वारा मिला हुआ कानूनी प्रावधान इन्हें उचित तरीके से नहीं मिल सका है जिसके वह वास्तव में हकदार थे।

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पुस्तक समीक्षा: भारत का संविधान – महत्वपूर्ण तथ्य और तर्क

यह किताब संविधान की पृष्ठभूमि और इसके निर्माण की प्रक्रिया को समझने के लिए हिंदी में एक जरूरी दस्तावेज की तरह हैं जो महत्वपूर्ण तथ्यों के साथ-साथ संविधान के वजूद में आने के तर्कों को बहुत ही सटीकता के साथ प्रस्तुत करती है।

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जीवन में संविधान: रोजमर्रा की कहानियों में संवैधानिक मूल्यों को आत्मसात करने की कोशिश

इस किताब में 76 लघु कहानियां हैं। ये महज कहानियां नहीं हैं बल्कि किसी न किसी के साथ हुई सच्ची घटनाएं हैं जिन्‍हें कहानी के माध्यम से किताब में बयां किया गया है। लेखक ने इन सभी घटनाओं को बहुत ही सरल भाषा में कहानी में ढाला है। इन कहानियों के जीवंत पात्र बच्चे हैं, महिलाएं हैं, किशोर/किशोरियां हैं, युवा हैं, बुजुर्ग हैं, दलित हैं, आदिवासी है, गरीब हैं, वंचित तबकों से हैं।

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क्या संविधान पढ़ने की सलाह देना भी देश में अब गुनाह हो गया है?

किसी धर्म या विचारधारा में विश्वास करना उसमें आस्था रखना या न रखना यह व्यक्ति का निजी मामला है। इसके लिए कोई दबाव या जबरदस्ती नहीं की जानी चाहिए। भावना आहत होने या धर्म का अपमान होने के नाम पर किसी व्यक्ति से उसकी नौकरी छीन लीजिए, उसकी अभिव्यक्ति की आजादी छीन लीजिए, उसके अधिकार छीन लीजिए, ये मनमानी है। आजकल कुछ लोग देश को ऐसी ही मनमानियों से चलाने की कोशिश कर रहे हैं।

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संविधान में वर्णित स्वतंत्र नागरिक नये भारत में आखिर कैसे बन गया दया का पात्र लाभार्थी?

यह कैसे हो गया कि आजादी के 75 साल बाद भी देश के नागरिक दो जून की रोटी भी जुटा पाने में असमर्थ है? तो क्या यही आर्थिक रूप से असमर्थ नागरिक लाभार्थी में बदल दिए गए हैं? सवाल है कि क्या हमारे देश के स्वतन्त्र नागरिक अब लाभार्थी हो गए?

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संविधान दिवस की गूंज और लोकतंत्र को कमजोर करने के सुनियोजित प्रयास

संवैधानिक प्रजातंत्रों पर संकट विश्वव्यापी है- ब्राज़ील, दक्षिण अफ्रीका, पोलैंड, हंगरी, तुर्की और इजराइल इसके उदाहरण हैं, लेकिन इन देशों की तरह हमारे देश में न तो आपातकाल लगा है न ही सेना सड़कों पर गश्त कर रही है, न ही नागरिक अधिकारों को निलंबित रखा गया है बावजूद इसके हमारे संवैधानिक प्रजातंत्र पर संकट है।

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संविधान पर चल रहे विमर्श के निहितार्थ

क्या संविधान से हमें कुछ हासिल नहीं हुआ? जब हमारे साथ स्वतंत्र हुए देशों में लोकतंत्र असफल एवं अल्पस्थायी सिद्ध हुआ और हमारे लोकतंत्र ने सात दशकों की सफल यात्रा पूरी कर ली है तो इस कामयाबी के पीछे हमारे संविधान के उदार एवं समावेशी स्वरूप की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता।

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‘संविधान की प्रस्तावना को आत्मसात कर उसे सुदूर ग्रामीण अंचलों तक पहुंचाना होगा’!

वरिष्ठ पत्रकार ए के लारी ने कहा कि सदियों से भारतीय समाज मेल-जोल से रहने का हामी रहा है। हमने पूरी दुनिया को सिखाया है कि विभिन्नता हमारी कमजोरी नहीं बल्कि ताकत है। आज दुनिया भर में पत्रकारिता के आयाम बदले हैं, हमारा मुल्क भी उससे प्रभावित हुआ है। बावजूद इसके यह सोच लेना कि सभी पत्रकार सरकार की सोच के साथ हैं ठीक नहीं है।

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3 जनवरी, 1976: ‘सोशलिस्ट’ और ‘सेकुलर’ संविधान के 45 साल

भारत जैसे बहुधार्मिक/बहुजातीय लोकतंत्र में इन शब्दों विशेषकर पंथनिरपेक्ष का महत्त्व बहुत अधिक है, किंतु आज इसी पर सबसे अधिक खतरा है. देश की केन्द्रीय सत्ता में मौजूद भारतीय जनता पार्टी के नेता और समर्थक समय-समय पर सेकुलर शब्द पर हमला करते रहते हैं.

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AIKSCC का नागरिकों से आह्वान- नए वर्ष पर किसानों के नाम भारत के संविधान की शपथ लें!

अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के वर्किंग ग्रुप द्वारा 1 जनवरी 2021 के लिए यह निम्न कार्यक्रम प्रस्तावित किया गया है।

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