संविधान में वर्णित स्वतंत्र नागरिक नये भारत में आखिर कैसे बन गया दया का पात्र लाभार्थी?


देश में पांच राज्यों के चुनाव बाद सीएसडीएस के सर्वे के आधार पर 14 मार्च 2022 को हिंदुस्तान अखबार ने अपनी चुनावी समीक्षा का शीर्षक लिखा- “उत्तराखण्ड- लाभार्थी के वोट से लौटी भाजपा।’’ भाजपा सरकार ने मुफ्त राशन, उज्ज्वला योजना, जनधन, मुद्रा लोन, पीएम जीवन सुरक्षा योजना, पीएम जन आरोग्य योजना, पीडीएस (सार्वजानिक वितरण प्रणाली) से राशन, पीएम किसान सम्मान निधि, अन्य कल्याणकारी योजनाओं से सीधे बैक खाते में पैसा ट्रांसफर, कृषि योजनाओं पर सब्सीडी आदि से लाभ दिया। लाभार्थियों ने इन लाभों के बदले में भाजपा को अपना मत दे कर सरकार के एहसान का चुकता कर दिया। इसकी पुष्टि प्रधानमंत्री मोदी ने उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले में अपने एक चुनावी भाषण में की जब उन्होंने कहा कि मेरे पास एक बुजुर्ग माता का वीडियो आया है जिसमें वह पत्रकारों से कह रही हैं कि हमने मोदी का नमक खाया है मैं उनको धोखा नहीं दूंगी। यह बात मोदी जी ने बड़े गर्व से कही जबकि यह मामला गर्व का नहीं बल्कि बेहद शर्मनाक और गंभीर है।

यह कैसे हो गया कि आजादी के 75 साल बाद भी देश के नागरिक दो जून की रोटी भी जुटा पाने में असमर्थ है? तो क्या यही आर्थिक रूप से असमर्थ नागरिक लाभार्थी में बदल दिए गए हैं? सवाल है कि क्या हमारे देश के स्वतन्त्र नागरिक अब लाभार्थी हो गए?

आजादी से पहले ब्रिटिश हुकूमत में करोड़ों करोड़ देशवासी भूख से मरे थे। आज आजाद भारत में भी देश के लोग भूख से मर रहे हैं। मानवाधिकार और सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक नेटवर्क राइट टु फूड ने 2015 से 2020 तक भूख से होने वाली मौतों का एक आंकड़ा तैयार किया है। इन पांच वर्षों में जब सरकार भूख से मौतों का एक भी आंकड़ा नहीं बता रही थी तब 13 राज्यों में भूख से हुई 108 मौतों का दावा इस रिपोर्ट में किया गया है। मृतकों में 5 वर्ष से ले कर 80 वर्ष तक के लोग शामिल हैं।

18 जनवरी 2020 को चीफ जस्टिस एनवी रमणा, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस हिमा कोहली की पीठ ने सरकार से पूछा कि क्या भुखमरी से हुई मौतों की कोई रिपोर्ट तैयार की गयी है। पीठ ने केंद्र सरकार से तल्खी से पूछा कि क्या हम यह बात पूरे यकीन से कह सकते हैं कि देश में भूख से मौतें नहीं हो रही हैं?

कुपोषण से भुखमरी की ओर बढ़ता ‘न्यू इंडिया’!

दिसम्बर 2021 में नीति आयोग ने राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक रिपोर्ट जारी की जिसमें बताया गया कि देश की 25.01 प्रतिशत आबादी बहुआयामी तौर पर गरीब है। सहायता कार्यो से जुड़ी आयरलैंड की एजेंसी कंसर्न वर्ल्डवाइड और जर्मनी के संगठन वेल्ट हंगर हिल्फ़ द्वारा संयुक्त रूप से तैयार की गयी रिपोर्ट में भारत में भूख के स्तर को चिन्ताजनक बताया गया है। वैश्विक भुखमरी सूचकांक की रिपोर्ट से अनुसार भारत 2020 में 94वें नम्बर से खिसक कर 101वें स्थान पर आ गया है। 2018 में FAO (Food and Agriculture Organisation of United Nation) ने कहा कि भारत में पूरी दुनिया के 82.1 करोड़ कुपोषित लोगों में से 19.5 करोड़ लोग रहते हैं जो दुनिया के भूखे लोगों का लगभग 24 प्रतिशत है। भारत के राष्ट्रीय स्वस्थ्य सर्वेक्षण द्वारा 2017 में बताया गया कि देश में लगभग 19 करोड़ लोग हर रात खाली पेट सोने को मजबूर हैं। भारत सरकार की 66वीं नेशनल सर्वे सैंपल आर्गेनाईजेशन रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में कृषि मजदूरों को दो वक्त का भोजन नहीं मिलता है।

यह आंकड़े बताते हैं कि देश का एक बहुत बड़ा हिस्सा अभाव, गरीबी और भूख से पीड़ित है। इस भुखमरी के पीछे कृषि संकट, घटते रोजगार के अवसर, उद्योगों का निजीकरण, ठेकेदारी, बेतहाशा टैक्स वसूली, श्रम कानूनों में बदलाव, खुदरा व्यापार में पूंजी निवेश, नीतियों में बदलाव इत्यादि के कारण लोगों के आजीविका के साधन संकुचित ही नहीं हो रहे हैं बल्कि छीन भी लिए गए हैं।

आजादी के बाद देश में जब संविधान निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी तब जीने का अधिकार को लेकर लम्बी बहस चली थी कि देश के नागरिकों के जीवनस्तर को ऊँचा उठाने और उनके सम्मानपूर्वक जीवन जीने में राज्य की भूमिका और जिम्मेदारी क्या होगी। संविधान के अनुच्छेद 21 में भारत के प्रत्येक नागरिक को जीने का अधिकार मिला हुआ है। किसी व्यक्ति का जीवन सजा-ए-मौत द्वारा ही नहीं छीना जाता बल्कि आजीविका के अधिकार से विमुक्त कर भी छीना जा सकता है क्योकि कोई भी व्यक्ति आजीविका के साधनों के बगैर जिन्दा नहीं रह सकता। आजीविका के अधिकार को अगर संविधान के द्वारा दिए गए जीने के अधिकार में शामिल नहीं माना जाय तो किसी भी व्यक्ति को उसके जीने के अधिकार से वंचित करने के लिए सबसे आसान तरीका उसके आजीविका के साधन से वंचित कर देना। इसका सीधा सा मायने व्यक्ति को उसके जीवन से वंचित कर देना है।

सोडन सिंह बनाम नई दिल्ली म्युनिसिपल कमेटी (एआईआर 1989 एससी 1988) के मामले में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश वेंकट रमैया, न्यायधीश एस. नटराजन, ललित मोहन, एमडी ओझा और कुलदीप सिंह की पीठ ने कहा था, “संविधान के अनुच्छेद 19(1)(छ) के अधीन भारत के प्रत्येक नागरिक को वृत्ति, व्यापार, व्यवसाय एवं कारोबार करने का मूल अधिकार प्रदान किया गया है। कोई भी व्यक्ति फुटपाथ पर भी अपनी आजीविका कमा सकता है, उसे इस अधिकार से यह कह कर वंचित नहीं किया जा सकता कि फुटपाथ केवल आवागमन के काम में ही लिया जा सकता है।”

संविधान के अनुच्छेद 14 से 32 तक भारत के नागरिकों को उनके मौलिक अधिकार दिए गए हैं। यह मौलिक अधिकार देश के प्रत्येक नागरिक के अधिकार हैं जो किसी नागरिक के विकास के लिए आवश्यक हैं। इसमें राज्य द्वारा हस्तक्षेप या इन अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता है। वर्तमान समय में देश के नागरिकों को 6 मौलिक अधिकार प्राप्त हैं-

  1. समानता का अधिकार- अनुच्छेद 14 से 18 तक
  2. स्वतंत्रता का अधिकार- अनुच्छेद 19 से 22 तक
  3. शोषण के विरुद्ध अधिकार- अनुच्छेद 23 से 24 तक
  4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार- अनुच्छेद 25 से 28 तक
  5. सांस्कृतिक तथा शिक्षा संबधी अधिकार- अनुच्छेद 29 से 30 तक
  6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार- अनुच्छेद 32

स्वतंत्रता का अधिकार सभी अधिकारों में सबसे महत्वपूर्ण अधिकार है जो अनुच्छेद 19 से 22 तक में समाहित किया गया है। अनुच्छेद 21 में सभी व्यक्तियों को समान रूप से जीवन जीने का अधिकार दिया गया है। इसका मायने गरिमायुक्त जीवन जीने से है न कि किसी तरह या पशुओं की भांति जीवन जीने से। अनुच्छेद 21 में बहुत सारे अधिकारों को अन्तर्निहित माना गया है, जैसे:

  • जीविकोपार्जन का अधिकार
  • मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार
  • आहार पाने का अधिकार
  • शिक्षा पाने का अधिकार
  • सामाजिक सुरक्षा और परिवार की सुरक्षा का अधिकार
  • चिकित्सा का अधिकार

इन उपरोक्त अधिकारों को संरक्षित करना और देश के नागरिकों को किसी भी संकट के समय बाहर निकालने की जिम्मेदारी और दायित्व राज्य की है जिसको पाने का हक़ अनुच्छेद 21 देश के प्रत्येक नागरिक को देता है।

एक नागरिक के तौर पर मौलिक अधिकार प्राप्त देश के नागरिकों का लाभार्थी में बदल जाना आकस्मिक घटना नहीं है। यह ऐसी आर्थिक नीतियों के देन है जिसने देश की बहुसंख्यक आबादी को भूख के दलदल में धकेल दिया है। नागरिकों के मौलिक अधिकारों को छीन कर सरकारों ने उन्हें लाभार्थी (प्रजा) के रूप में बदल दिया है। जिस तरह से राजतन्त्र में प्रजा राजा की दया पर जिन्दा थी उसी तरह आज देश का स्वतंत्र नागरिक अपने सम्पूर्ण अधिकारों को खो कर सरकारों की दया पर जिन्दा है और इसका अहसास सरकारें समय-समय पर कराती रहती हैं।

1991 में नई औद्योगिक आर्थिक नीति लागू होने के बाद से देश में भूमंडलीकरण, निजीकरण और उदारीकरण की शुरुआत की गई जिसके तहत सरकारी संस्थानों का निजीकरण, उद्योगों के नियमों को पूंजीपतियों के हित में उदार बनाना, मजदूरों के अधिकारों में कटौती, स्थाई मजदूरों की जगह ठेके पर मजदूर रखने के कानून, मशीनीकरण आदि के कारण रोजगार के अवसर कम होने के साथ-साथ मजदूरी में भी कटौती शुरू की गई। ठेके पर काम करने वाले मजदूर स्थाई मजदूरों से एक तिहाई से भी कम मजदूरी पाते हैं। यही हाल संविदा पर काम करने वाले मजदूरों का है। धीरे-धीरे स्थाई मजदूरों की जगह ठेके पर और संविदा पर काम करने वाले मजदूरों की संख्या बढ़ रही है जिन्हें नियमित वेतन नहीं मिलता या बहुत कम मिलता है। श्रम मंत्रालय के पांचवें आर्थिक सर्वेक्षण 2015-16 के अनुसार 77 प्रतिशत भारतीय परिवारों में नियमित वेतन पाने वाला एक भी सदस्य नहीं था। सरकारी सेवाओं में संविदा पर भर्ती करने का प्रचलन बढ़ा है। यूपी में समूह ख और समूह ग में 5 साल की संविदा के आधार पर मिलेगी सरकारी नौकरी (अमर उजाला 13 सितम्बर 2020), संविदा सैनिक- सेना में तीन साल के लिए भर्ती होंगे युवा (दैनिक भास्कर 7 अप्रैल 2022)- यह सब घटनाएं दिखाती हैं कि स्थाई रोजगार के घटते अवसर, योग्यता के अनुसार काम न पाने, वेतन में कटौती, अस्थाई नौकरियों के कारण धीरे-धीरे देश की जनता का जीवनस्तर गिर रहा है जिसके कारण देश की बहुसंख्यक आबादी गरीबी और अभाव में जीने के लिए अभिशप्त है।

पिछले 30 वर्षों से सरकारों ने अनुच्छेद 21 में मिले अधिकारों राइट टु लाइफ को खण्ड-खण्ड में बाँट दिया। राइट टु फूड, राइट टु एजुकेशन, राइट टु वर्क, राइट टु इनफॉर्मेशन, आदि में विभाजित कर दिया जो संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। संविधान की घटिया व्याख्या ने समाज को टुकड़े-टुकड़े में बाँट दिया है। हमारे काम में जब हम संवैधानिक अधिकारों की बहाली की बात करते है तब हमें अनुच्छेद 21 के तहत मानवीय गरिमा के साथ जीने के अधिकार और भोजन के अधिकार की तुलना करनी होगी। मान लीजिए कि किसी की मौत भूख से हो जाती है तो इसका जिम्मेदार कौन है? मानवीय गरिमामय जीने के अधिकार- जिसमें रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, इलाज और सुरक्षा सब समाहित है- के हनन में राज्य जिम्मेदार है जिसमें सरकार और सरकार के मुखिया अपनी जिम्मेदारी निभाने में असफल हैं लेकिन भोजन के अधिकार के अंतर्गत जिम्मेदार फ़ूड इन्फेक्टर और राशन डीलर है। इस तरह राज्य ने अपने आप को बचा लिया। सजा खाद्य इंस्पेक्टर और राशन डीलर को होगी। सरकार निर्दोष बच कर निकल गई। अब अगर देश के नागरिकों को शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार, सुरक्षा आदि मौलिक अधिकार न मिले तो राज्य और सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं है। यह जिम्मेदारी अब शिक्षा इंस्पेक्टर, शिक्षक, चिकित्सा अधिकारी, पंचायत, रोजगार सचिव और हल्का पुलिस की है। दण्डित भी वही होंगे। जबकि संविधान के अनुसार राज्य और सरकार पर इसकी जिम्मेदारी है। जवाबदेही राज्य की है और दण्डित राज्य को चलाने वाली सरकार होनी चाहिए।

2014 के बाद जब से केंद्र में भाजपा सरकार आई है तब से संवैधानिक अधिकार प्रदत्त नागरिक को लाभार्थी बना देने की प्रक्रिया बहुत तेजी से आगे बढ़ी है।प्रधानमंत्री कार्यालय इन लाभार्थी योजनाओं और लाभ पाने वालों पर पैनी निगाह रखता है। प्रत्येक लाभार्थी के साथ प्रधानमंत्री मोदी अपने मन की बात, लाभार्थी से सीधे बात, लाभार्थी पैकेट तथा होर्डिंग पर अपनी फोटो, समाचार चैनल इत्यादि के माध्यम से सीधे तौर पर जुड़े हुए है। हर जगह प्रधानमंत्री मोदी ही मोदी हैं। एको अहम् द्वितीयो नास्ति। यह गुजरात मॉडल नहीं है। यह एक नया मोदी का अपना मॉडल है जो देश के नागरिक को केवल और केवल अहसानमंद मतदाता में बदल चुका है।

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2014 से पहले भी देश के नागरिकों को राज्य द्वारा तमाम तरह की सुविधाएं प्रदान की जा रही थीं। आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को आवास और राशन (गेहूं, चावल, चीनी, मिट्टी का तेल) उपलब्ध कराना कल्याणकारी राज्य की कल्याणकारी अवधारणा पर आधारित था। रोजगार गारंटी (मनरेगा), मिड डे मील, गाँव का विद्युतीकरण, इत्यादि सभी नागरिक अधिकार के अंतर्गत मिल रहा था। चेचक, पोलियो, कालरा, प्लेग, खसरा जैसी महामारियों में लगने वाले टीके राज्य द्वारा मुफ्त में उपलब्ध कराये गए थे। कोई भी सरकार यह बेशर्मी और साहस नहीं कर पायी कि नागरिक के अधिकार को सरकार की दया कह कर प्रचारित कर सके। अब यह सभी नागरिकों का अधिकार दया में बदलकर सत्ता हथियाने का औजार बन गया है और इसको विकास के साथ जोड़कर जोरशोर से प्रचारित किया जा रहा है। इसी की आड़ में भाजपा द्वारा अपना हिंदुत्व का एजेंडा भी चलाया जा रहा है और यह दिखाने की पुरजोर कोशिश की जा रही है कि अगर देश हिन्दू राष्ट्र नहीं बना तो यह सारे लाभ देशवासियों को नहीं मिल सकते हैं।

देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा कैसे गरीबी, अभाव और भूख की ओर धकेला जा रहा है इसे समझने के लिए सरकार द्वारा देश के लोगों से मात्र पेट्रोल और डीजल पर वसूले जा रहे टैक्स से और सरकार की रोजगार नीति से जाना और समझा जा सकता है। 2014 में पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी (उत्पाद शुल्क) 9 रुपये 48 पैसे और डीजल पर 3 रुपये 56 पैसे था जो 2021 में बढ़कर पेट्रोल पर 32.90 रुपये और डीजल पर 31.80 रुपये हो गया। 2014 से 2021 तक के इन सात वर्षों में जनता ने कुल 53 लाख करोड़ रूपये का पेट्रोल और डीजल ख़रीदा। पेट्रोल और डीजल पर केंद्र सरकार ने जो एक्साइज ड्यूटी वसूली वह 29 लाख करोड़ रुपये थी। जनता ने जो पेट्रोल डीजल ख़रीदा उसका वास्तविक मूल्य (रिफाइनरी, परिवहन और डीलर का कमीशन जोड़कर) 24 लाख करोड़ है जबकि सरकार द्वारा वसूला गया टैक्स 29 लाख करोड़ रुपये है जो वास्तविक मूल्य से भी ज्यादा है। बढ़ता हुआ डीजल और पेट्रोल का मूल्य केवल गाड़ी चलाने वालों का मामला नहीं है। इसका उपयोग कृषि, माल ढुलाई, बिजली उपत्पादन, परिवहन में भी होता है जिसके कारण महंगाई अपने चरम पर है जो लगातार बढ़ रही है। दवा, भोजन, शिक्षा धीरे-धीरे लोगों से दूर होती जा रही है। सरकारों द्वारा देश की जनता से जिस बर्बरतापूर्वक टैक्स की वसूली की जा रही है अंग्रेजों ने भी इतनी बर्बरता टैक्स वसूली में नहीं की थी।

2014 में प्रधानमंत्री मोदी ने अपने चुनावी भाषण में देश की जनता से हर वर्ष 2 करोड़ रोजगार देने का वादा किया था। उनके द्वारा किया गया यह वादा 2014 में ही बेरोजगारी की भयावहता को दर्शाता है। यह अलग बात है कि चुनाव जीतने के बाद उनके परम सहयोगी अमित शाह ने मोदी के वादों को एक जुमला बता दिया।

देश में रोजगार की स्थिति क्या है और सरकार लोगों को रोजगार देने के लिए कितनी संवेदनशील है इसके लिए बैंक और रेलवे के आंकड़े ही काफी हैं। रेलवे में 2014 से 2017 तक के चार वर्षो में 232741 कर्मचारी रिटायर हुए। उनकी जगह मात्र 94518 लोगों की नियुक्तियां की गयीं, 138163 पदों पर नियुक्तियां नहीं की गयीं जो खाली थे। अगर रेलवे में 2014 से 2021 के 7 सालों का रिटायर और नियुक्ति का औसत निकाला जाय तो भाजपा सरकार के इन सात सालों में रेलवे के लगभग 2 लाख 41 हजार पदों पर नियुक्तियां नहीं की गयीं।

वर्षरिटायर कर्मचारीनियुक्ति
20146075431805
20155996015191
20165365427995
20175837319587
201819100

इसी तरह बैंक के आंकड़ें को देखने से पता चलता है कि 2013-14 में सरकारी बैंकों में क्लर्कों की संख्या 333583 थी और सब-आर्डिनेट कर्मचारियों की संख्या 156218 थी और 2018-19 में यह संख्या घट कर क्रमशः 295277 और 124184 हो गई।

वर्षकर्मचारीसरकारी बैंकप्राइवेट बैंकविदेशी बैंकग्रामीण बैंक
2013-14क्लर्क सब आर्डिनेट333583 15621868031 100211864 62528364 14381
2014-15क्लर्क सब आर्डिनेट315292 16092630399 911941635 44429282 12406
2015-16क्लर्क सब आर्डिनेट303755 14732825383 92801311 40631082 11325
2016-17क्लर्क सब आर्डिनेट3028836 14160125656 95921076 34730813 9376
2017-18क्लर्क सब आर्डिनेट298245 13339123610 84594262 26232265 9814
2018-19क्लर्क सब आर्डिनेट295277 12418423961 9726971 24934308 8053

इन छह वर्षों में सरकारी बैंक के क्लर्कों और सब-आर्डिनेट के 70340 पद समाप्त कर दिए गए। इसी तरह से प्राइवेट बैंक, ग्रामीण बैंक, विदेशी बैंक को भी जोड़ दिया जाय तो बैंकों में इन 6 वर्षों में कुल 115963 पद समाप्त कर दिए गए या उनकी जगह नियुक्ति नहीं की गयी। यही हालत अन्य संस्थानों का भी है जहां नयी भर्तियों के बढ़ने के उपाय तो किये नहीं जा रहे हैं बल्कि जो पद हैं वह भी समाप्त किये जा रहे हैं।

रेल और बैंक का काम बढ़ गया है लेकिन काम करने वाले लोगों की जरूरत कम हो गयी है। यहां सभी काम मशीनों के द्वारा हो रहे हैं। रिटायर होने वाले लोगों की जगह समाप्त कर दी जा रही है। नये रोजगार पैदा नहीं हो रहे हैं। कृषि क्षेत्र में भी पूंजी निवेश बढ़ जाने से यहां भी रोजगार पाने के अवसर समाप्त हो रहे हैं। कृषि, उद्योग, रेल, बैंक, दूरसंचार, इत्यादि सभी जगह मशीनीकरण किये जाने से रोजगार लगातार कम होते जा रहे हैं। परिणामस्वरूप देश में बेरोजगारी भयंकर रूप से बढ़ रही है। देश के युवाओं को रोजगार दे पाने में असफल प्रधानमंत्री मोदी पकौड़े तलने, चाय बेचने, पान बेचने, ठेला और रिक्शा चलाने को रोजगार मानते हैं। दस से बारह घंटे काम करने के बाद इस काम को करने वाले लोगों की आमदनी कितनी है, उनका खर्च कितना है, उनकी जीविका चल पाती है या नहीं अथवा वह दिन भर बैठे ठाले काटते हैं इसकी खोज खबर लेने वाला कोई नहीं है। अगर यह रोजगार है, लोगों को इससे आमदनी हो रही है, तो वे 80 करोड़ कौन लोग हैं जिन्हें मुफ्त राशन देना पड़ रहा है? जाहिर है 61.5 प्रतिशत देश का नागरिक दो जून की रोटी के लिए भी मोहताज है। आजीविका के साधन के अभाव में धीरे-धीरे मुफ्त राशन पर निर्भर लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है।

गरीबी, अभाव, भूख के दलदल से निकालने का एकमात्र तरीका जीविकोपार्जन के साधन का उपलब्ध होना है जिसे उपलब्ध करना राज्य का दायित्व है। राज्य अपने दायित्व का निर्वहन कैसे कर रहा है इसका पता रिक्त पदों पर होने वाली भर्तियों से चलता है।

2018 में रेलवे में लेवल 1 और ग्रुप डी श्रेणी में 62907 पदों पर भर्तियों के लिए रेलवे बोर्ड को लगभग दो करोड़ आवेदन मिले। रेलवे में लेवल 1 का पद सबसे निचला होता है जिसमें गेटमैन, रेलवे शेड और आफिसों में काम करने वाले हेल्पर, गैंगमैन, ट्रैकमैन, ट्रैक की मरम्मत करने वाले प्वाइंटमैन होते हैं। रेलवे के आकड़ों के मुताबिक रेलवे में खलासी और हेल्पर पदों के लिए आवेदन करने वाले 419137 उम्मीदवारों के पास बी टेक की डिग्री और 40751 उम्मीदवारों के पास इंजीनियरिंग में मास्टर्स की डिग्री थी। ग्रुप डी के लिए आवेदन करने वाले 19.1 लाख आवेदक आर्ट्स में स्नातक थे। 9.57 लाख लोग साइंस में स्नातक और 127018 साइंस में पोस्ट ग्रेजुएट थे।

रेलवे के इस आंकड़े के अनुसार यह संख्या भारत में गुणवत्तापूर्ण रोजगार की कमी के साथ सिकुड़ते रोजगार के ताजा संकेत हैं। उत्तर प्रदेश के पुलिस विभाग में 2018 में चपरासी व संदेशवाहक 62 पदों के लिए 93 हजार अभ्यर्थियों ने आवेदन किया जिसमे 3700 पीएचडी, 28 हजार पोस्ट ग्रेजुएट और 50 हजार ग्रेजुएट थे जबकि इस पद के लिए न्यूतम योग्यता पांचवीं पास रखी गई थी। उच्च योग्यता वाले लोगों के लिए कोई रोजगार नहीं है। ये छात्र अपनी शिक्षा के आधार पर नहीं बल्कि बेहतर रोजगार के अवसरों के न होने पर जरूरत के आधार पर इन पदों पर काम करने के लिए विवश हैं। आजीविका की तलाश में भटकते देश के इन्हीं युवाओं के परिवार आजीविका पाने के अपने संवैधानिक अधिकारों से वंचित हो कर धीरे-धीरे मुफ्त राशन पर निर्भर लाभार्थी बनाए जा रहे हैं।

देश के पांच राज्यों के चुनाव परिणाम बताते हैं कि देश के नागरिक अपने संवैधानिक अधिकार खोकर लाभार्थी में बदल गए हैं। पंजाब, जो एक समय देश का सबसे समृद्ध राज्य था, वह 19वें नंबर पर है वह भी आम आदमी पार्टी द्वारा शिक्षा स्वास्थ्य और बिजली का लाभार्थी बना दिया गया है। पंजाब के नागरिकों को यह सोचने समझने की जरूरत भी नहीं महसूस हुई कि कैसे उनकी आर्थिक स्थिति को ध्वस्त कर गरीबी के दलदल में धकेल दिया गया और शिक्षा, स्वास्थ्य तथा बिजली जैसी मूलभूत जरूरतों का मोहताज बना दिया गया। देश में 1991 में लाई गई नयी औद्योगिक आर्थिक नीति के चलते देश की अर्थव्यवस्था को उद्योगपतियों के अनुरूप करने के लिए पूर्ववर्ती सरकारों और भाजपा की वर्तमान सरकार ने उद्योग और कृषि के सभी कानूनों और नियमों को बदल दिया। धीरे-धीरे सभी सरकारी संस्थानों को उद्योगपतियों को बेचा जाने लगा। रेल, परिवहन, बैंक, दूरसंचार, पेट्रोलियम, होटल उद्योग, उड्डयन सभी कुछ उद्योगपतियों के नियंत्रण में चला गया। इसको बेचने से पहले श्रम कानूनों को खत्म करना, भूमि अधिग्रहण के नए कानून लाना, वीआरएस, सीआरएस योजना, नयी भर्तियों पर रोक, रिक्त पदों को समाप्त करना, बाजार को उद्योगपतियों के हवाले कर देना, शिक्षा और चिकित्सा का निजीकरण आदि कानून लाकर देश के नागरिकों को उनके जीवकोपार्जन के सभी साधनों को समाप्त कर दिया गया।

देश का साधनविहीन नागरिक अब गरीबी अभाव और भूख से जूझ रहा है। देश का स्वतंत्र नागरिक अब उद्योगपतियों के आधीन हो गया है। उद्योगपतियों के अधीन देश का नागरिक अब सरकार की दया पर लाभार्थी बनकर जीने को मजबूर मतदाता मात्र रह गया है जिसकी अपनी कोई स्वतंत्र सोच और निर्णय नहीं है। इस स्वतंत्र सोच और निर्णय लेने के अभाव में यह समझना कि देश में बेकारी,  अभाव, गरीबी में फंसकर लोग आत्महत्या क्यों कर रहे हैं, भूख और कुपोषण से क्यों मर रहे हैं, उनकी थाली से धीरे-धीरे भोजन गायब क्यों हो रहा है, मुश्किल हो गया है। आज़ादी के 75 बरस बाद भी देश की 80 करोड़ जनता को दो जून की रोटी भी क्यों उपलब्ध नहीं हो सकी जबकि संविधान में उनको जीने के अधिकार मिले हुए हैं। अब देश का स्वतंत्र नागरिक अपने पैर पर खड़े होने की जगह आर्थिक संकट में फंसकर अपने अधिकार और आत्मसम्मान को गंवा कर मुफ्तखोरी (लाभार्थी) की ओर बढ़ चला है, जो देश और नागरिक दोनों के लिए खतरनाक है। देश की जनता को अब तय करना है कि वह मोदी जी का नमक खा कर लाभार्थी मतदाता बनेंगे या एक स्वतंत्र नागरिक बन कर अपने संवैधानिक अधि‍कारों के लिए संघर्ष करेंगे।


लेखक वरिष्ठ सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं


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