कोरोनाकाल में स्कूली शिक्षा के अभाव ने बच्चों का भविष्य अंधेरे में छोड़ दिया है


कोरोनाकाल का नाम ज़ेहन में आते ही चारों तरफ बन्दी और तबाही का भयावह दृश्य हमारे सामने घूम जाता है। एक ऐसा समय जिसने मानव जीवन के तमाम पहलुओं को भयानक रूप से प्रभावित किया। ऐसे में बच्चों की शिक्षा पर भी भारी प्रभाव पड़ा है। अनाभ्यास शिक्षा का शत्रु है। इस काल ने बच्चों को शिक्षा के अभ्यास से ही दूर कर दिया। समाज में एक बड़ी संख्या उन अभिभावकों की है जो अपने बच्चों के पढ़ने-लिखने में कोई सहायता नहीं कर पाते और इन्हीं बच्चों को इस काल में सबसे ज्यादा नुकसान भी हुआ है। विद्यालय लम्बे समय से बंद पड़े हैं, ऐसे में पढ़ना-लिखना उनके व्यवहार से कोसों दूर चला गया है। अब उनके व्यवहार में उसकी वापसी विद्यालय खुलने के बाद ही होगी।

जिन घरों में अविभावक या घर का कोई भी सदस्य बच्चों पर ध्यान देते रहे हैं उनका कम नुकसान हुआ। बच्चे कोई भी कार्य अपने आसपास लोगों को देखकर ही करते हैं। उदाहरण के तौर पर यदि घर में बच्चे किसी सदस्य को पढ़ते-लिखते हुए नहीं देखते तो वे यह जान ही नहीं पाते कि यह भी कोई कार्य है, जो उन्हें करना है। यदि वे ऐसा होते अपने आसपास देखते हैं तो वे भी जरूर स्वयं से पढ़ने-लिखने बैठेंगे। वाइगोत्सकी के अनुसार बच्चे के सीखने की प्रक्रिया में सामाजिक अन्तःक्रिया की महत्वपूर्ण भूमिका है, अर्थात बच्चे के लिए उसका वातावरण बहुत मायने रखता है, जो कि कोरोनाकाल में बच्चों से छिन गया।

विद्यालय में सभी बच्चों को एक समान वातावरण दिया जाता है। वह एक स्वस्थ वातावरण होता है बच्चों के सीखने के लिए। वे आपस में बातचीत करके अधिक सीखते हैं बाकी की तुलना में। विद्यालय के बाहर सभी बच्चों के लिए समान वातावरण की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अधिकतर बच्चों के पास विद्यालय के बाहर पढ़ाई का कोई वातावरण नहीं होता। वातावरण के बाद यदि देखा जाए तो सुविधा बहुत मायने रखती है। सुविधा से मेरा आशय है कि सीखने के टूल्स, ऐसी कौन सी चीजें हैं जिनसे बच्चों में पढ़ने की रुचि विकसित होगी, जैसे किताबें या पत्र-पत्रिकाएं। जिन घरों में पढ़ने-लिखने वाले लोग हैं वहां तो किताब और पत्र-पत्रिकाओं का होना स्वाभाविक है परंतु जिन घरों में कोई पढ़ने-लिखने वाला नहीं है उन घरों में न तो आपको कोई किताब दिखेगी और न ही पत्र- पत्रिकाएं।

आपने अक्सर देखा होगा कि कई घरों के बहुत छोटे बच्चे भी स्कूटी, बाइक या कार तक चला लेते हैं। यह कैसे सम्भव हो पाता है? इसलिए क्योंकि ये उनको उपलब्ध कराया जाता है। ठीक ऐसे ही जिन घरों में किताबे व पत्र पत्रिकाएं हैं उन घरों के बच्चों में पढ़ने की आदत व रुचि स्वतः विकसित होगी और ऐसे घरों की संख्या बहुत ही कम है।

हमने अपने बच्चों में मानवीय गुण विकसित करने के लिए तमाम संस्थाओं का निर्माण किया है। उसमें से विद्यालय बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। घर-परिवार में रहकर ही बच्चों में सामाजिक मूल्यों का विकास होने लगता है पर पूर्ण रूप से बच्चों में सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों का विकास विद्यालय में ही हो पाता है। यहां बच्चा समाज के विभिन्न लिंग, वर्ग व विभिन्न क्षेत्र व बोलियों से आए बच्चों के साथ अन्तःक्रिया करके उनके बीच खुद का समावेश करता है। कोरोनाकाल में जब विद्यालय बन्द हो गए तो हमने ऑनलाइन प्लेटफार्म को एक विकल्प के रूप में अपनाया और यह काफ़ी हद तक सफल भी हुआ। यदि इसके सकारात्मक पहलू को देखा जाए तो तमाम शिक्षकगण अब डिजिटल कक्षा संचालित करने में समर्थ हो गए हैं और कर भी रहे हैं, परन्तु आभासी कक्षा में बच्चों का सर्वांगीण विकास किसी भी तरह से सम्भव नहीं है। आभासी कक्षा उनके लिए वरदान सिद्ध हुई हैं जो घर बैठे पढ़ना चाहते हैं-जैसे विवाह के बाद तमाम लड़कियों की शिक्षा बाधित हो जाती है, तो वे इसका लाभ ले सकती हैं। पैर टूट जाए तो भी कोई छात्र घर पर कक्षाएं कर सकता है पर सामान्‍य स्थिति में बच्चों के लिए यह बिल्कुल कारगर नहीं है। गाँधी जी ने जो ट्रिपल एच (मस्तिष्क, हृदय और हाथ) के विकास की अवधारणा दी है उसमें यह बिल्कुल असफल है। ऑनलाइन कक्षा केवल विकल्प है, इससे केवल काम चलाया जा सकता है, यह पूर्ण समाधान नहीं है।

शिक्षा का अर्थ मात्र बच्चों में जानकारियां भरना नहीं है अपितु उनके व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन लाना है। सभी विषयों का महान ज्ञानी होकर भी बच्चा एक बेहतर इंसान और इस देश के लिए जिम्मेदार नागरिक तब तक नहीं हो सकता जब तक वह अपने समाज और प्रकृति के प्रति संवेदनशील नहीं हो जाता। इस संवेदनशीलता का विकास भी विद्यालय में ही हो सकता है। ऐसा कहने का अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि जो व्यक्ति विद्यालय नहीं गया वह संवेदनशील नहीं है। विद्यालय समाज का लघु रूप है। हम जिस तरह के समाज की कल्पना करते हैं उसका निर्माण विद्यालय में ही सम्भव है। एक बच्चे में तमाम सम्भावनाएं होती हैं। उन सम्भावनाओं की पहचान विद्यालय में ही सम्भव है। विद्यालयों में बच्चों के सकारात्मक गुणों को रेखांकित करके निखारने के साथ-साथ उनके भीतर के नकारात्मक गुणों को भी पहचान कर उनका निवारण किया जाता है।

ऐसा बहुत कुछ है जो कि विद्यालय के अभाव में बच्चों से छूटता जा रहा है। यह कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि कोरोना ने बच्चों के भविष्य को अँधेरे में धकेलने का कार्य किया है।

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लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) में शिक्षा विभाग में अध्ययनरत हैं


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