भारत के गांवों में कैसे सफल होगी ऑनलाइन शिक्षा?


लॉकडाउन के ऐलान के साथ ही देश के लगभग 32 करोड़ छात्र-छात्राओं को स्कूल-कॉलेज जाने से रोक दिया गया था. सरकार ने ऐलान किया था कि स्कूल-कॉलेज उनके लिए ऑनलाइन शिक्षा का इंतजाम करें, लेकिन देश के बड़े शहरों और संभ्रांत वर्ग से आने वाले बच्चों की पढ़ाई शुरू करने के लिए भी स्कूल-कॉलेजों का खासा वक्त लग गया. ये वे स्कूल थे, जिनके पास फंड की कमी नहीं थी. अब जरा सोचिए कि हमारे देश के गांवों में क्या हाल होगा?

हाल ही में मोबाइलवाणी पर कुछ खबरें प्रकाशित की गईं, जिनमें से एक खबर ये थी कि असम में एक परिवार को बच्चे को ऑनलाइन शिक्षा के लिए अपने घर की गाय बेचना पड़ी. यह इकलौती गाय ही उनके परिवार की आर्थिक आय का जरिया थी. बच्चों की पढ़ाई के लिए स्मार्टफोन की जरूरत थी, सो ये कदम उठाना पड़ा. ऐसा ही एक मामला बिहार में सामने आया, जहां प्रवासी मजदूर को काम नहीं मिला तो उसने अपनी 4 माह की बिटिया को 45 हजार रुपए में बेच दिया. ये वे मामले थे जो सामने आए, पर ऐसी जाने कितनी ही कहानियां होंगी जो लॉकडाउन के बोझ तले दबा दी गईं.

सबसे ज्यादा दिक्कत इन दिनों छात्र और शिक्षक झेल रहे हैं. उन्हें ये समझ नहीं आ रहा है कि आखिर करियर अब किस दिशा में जाएगा. और तो और, लॉकडाउन में उन प्रवासी मजदूरों के बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का क्या हाल हो रहा होगा जो अपने सिर पर गठरियां लादे पहले पैदल और अब बदहाल ट्रेनों से घर लौटने की जद्दोजहद में लगे हैं. लॉकडाउन ने घर में बैठे उन 32 करोड़ छात्र-छात्राओं के बड़े हिस्से के लिए आर्थिक और सामाजिक बराबरी की दौड़ को और कठिन बना दिया है, जिनके पास इंटरनेट कनेक्शन तो दूर ढंग से क्लासरूम और टीचर भी नहीं हैं.

बहुत से परिवारों ने मोबाइलवाणी पर इंटरनेट कनेक्शन और वर्चुअल एजुकेशन के बारे में अपने विचार रखें हैं. आइए उन्हीं से जानते हैं कि हमारे देश के परिवार वर्चुअल एजुकेशन के लिए कितना तैयार हैं?

स्मार्टफोन और इंटरनेट की चुनौतियां

मप्र के श्योपुर के गांव भीमा से अश्विनी पटेल बताते हैं कि उनके गांव में अधिकांश परिवारों में स्मार्टफोन नहीं हैं. जिनके पास है वे इंटरनेट पैक नहीं डलवाते, क्योंकि गांव में इंटरनेट की कनेक्टिविटी अच्छी नहीं है. यानि सरकार भले ही हमारे बच्चों को मोबाइल और इंटरनेट से पढ़ाने की बात करे पर जब हमारे पास संसाधन ही नहीं होंगे तो बच्चे पढ़ेंगे कैसे? पहले गांव से स्कूल दूर था तो बच्चों को पैसे जमा करके साइकिल दिलाई, अब कहते हैं फोन दिलाओ. आखिर गरीब परिवार कैसे अपने बच्चों को इतनी महंगी पढ़ाई करवाएं? सरकार को पहले गांव में इंटरनेट और मोबाइल, लैपटॉप जैसी सुविधाएं देनी होंगी उसके बाद इस तरह की योजनाएं बनाने की जरूरत है.

यह अकेला मामला नहीं है बल्कि ऐसे कई और श्रोता हैं जो अपने गांव में इंटरनेट की दिक्कत के बारे में बताते हैं. जमुई के राजौरी प्रखंड से मोबाइलवाणी के एक श्रोता ने बताया कि वे मजदूरी करके किसी तरह बच्चों का भरण-पोषण करते आ रहे थे पर लॉकडाउन में रोजगार छिन गया और अब वे घर पर हैं. ऐसे में सबसे बड़ी ​समस्या बच्चों की पढ़ाई की है. वे स्कूल नहीं जा रहे हैं और हमारे पास इतने पैसे नहीं हैं कि उन्हें मोबाइल दिलाकर उस पर पढ़ाई करवाएं. अगर कहीं से मोबाइल ले भी आएं तो उसमें इंटरनेट के लिए पैसे कहां से आएंगे? और फिर हमारे बच्चों को स्कूल जाकर टीचर के सामने बैठकर पढ़ने की आदत है, अब वो मोबाइल पर देख—देखकर कैसे पढ़ेंगे? दुख इस बात का ​है कि हम तो मजदूर हैं ही पर अगर बच्चे नहीं पढ़ पाए तो वो भी मजदूरी ही करेंगे!

ऑनलाइन शिक्षा में सुधार और बढ़ावा देने के लिए केंद्रीय मानव संसाधन और विकास मंत्रालय’ ने ‘भारत पढ़े ऑनलाइन’ अभियान की शुरुआत की है. इस अभियान का मकसद है कि ऑनलाइन पढ़ाई को कैसे और बेहतर बनाया जा सकता है. इस संबंध में केंद्र सरकार ने एनसीईआरटी के विशेषज्ञों से भी सुझाव मांगे हैं. जाहिर है कि इस पूरी कवायद का मकसद भविष्य में ऑनलाइन शिक्षा की राह में आने वाली बाधाओं और चुनौतियों से पार पाना है. लेकिन आंकड़े बताते हैं कि भारत के लगभग 22 फीसदी ग्रामीण घरों में आज भी बिजली नहीं है. देश के दो बड़े- उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों की तो लगभग आधी ग्रामीण आबादी विद्युत सुविधाओं से वंचित है. बिना बिजली के ब्रॉडबैंड नेटवर्क की सुविधा का भी कोई अर्थ नहीं रह जाता.

वहीं दूसरी ओर केपीएमजी के मुताबिक भारत में इंटरनेट की पैठ 31 प्रतिशत है जिसका अर्थ है देश में 40 करोड़ से कुछ अधिक लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं. 2021 तक ये संख्या 73 करोड़ से अधिक हो जाएगी. इसी तरह देश में इस समय 29 करोड़ स्मार्टफोन यूजर हैं. 2021 तक 18 करोड़ नये यूजर जुड़ जाएंगे. दूरस्थ शिक्षा के लिए भी ऑनलाइन माध्यम सबसे कारगर माना गया है. इस बीच सरकार ने स्वयं ई-बस्ता और डिजिटल इंडिया जैसे अभियान शुरु किए हैं. इस उत्साही तस्वीर को देखते हुए आभास हो सकता है कि भारत में शिक्षा पलक झपकते ही ऑफलाइन से ऑनलाइन मोड में चली जाएगी.

आंकड़े जितने आकर्षक हों वास्तविकता उतनी ही जटिल है क्योंकि अभी ये सारी प्रक्रिया बिखरी हुई सी है, उसमें कोई तारतम्य या योजना नहीं है. कुछ भी विधिवत नहीं है. स्मार्ट क्लासरूम और डिजिटलसंपन्न होने का दम भरते हुए ऑनलाइन कक्षाएं चलाने के लिए स्कूल और यूनिवर्सिटी प्रशासन कितने तत्पर थे ये कहना कठिन है, लेकिन उससे जुड़ी व्यावहारिक कठिनाइयां जल्द ही दिखने भी लगीं. कहीं इंटरनेट कनेक्शन का संकट तो कहीं स्पीड, कहीं बिजली तो कहीं दूसरे तकनीकी और घरेलू झंझट.

काम नहीं, खाना नहीं तो पढ़ाई कैसे हो?

उत्तर प्रदेश के बलिया जिला के गांव कंसेला पोस्ट रसड़ा से चांदमति ने मोबाइलवाणी पर बताया कि लॉकडाउन के कारण मजदूरी नहीं मिल रही है. मेरे तीन बच्चे हैं मैं उन्हें पढ़ाना चाहती हूं लेकिन स्कूल वाले कहते हैं कि मोबाइल से पढ़ाई होगी. अब मेरे पास इतने पैसे न​हीं हैं कि बच्चों को मोबाइल और इंटरनेट से बच्चों को पढ़ाएं. हम गरीबों के बारे में सरकार को सोचना चाहिए.

बिहार से ही गुंजा कुमारी कहती हैं कि मैं बैंक परीक्षा की तैयारी कर रही थी, लेकिन लॉकडाउन के कारण कोचिंग संस्थान बंद हैं. उनकी ऑनलाइन कक्षाओं में होने वाली पढ़ाई में मैं शामिल नहीं हो पाती क्योंकि हमारे यहां इंटरनेट नहीं हैं. ऐसे में मुझे डर है कि मेरा करियर खराब न हो जाए. ऐसी ही कहानी है संजू कुमारी की. मोबाइलवाणी पर बिहार से संजू कुमारी कहती हैं कि मैं पढ़ लिखकर पुलिस की नौकरी करना चाहती हूं. अभी स्कूल में हूं, सोचा था अच्छे से पढूंगी तो आगे जाकर अच्छा सा विषय लूंगी पर लॉकडाउन के कारण स्कूल, कोचिंग सब बंद हैं. ऐसे में मेरी पढ़ाई का नुकसान हो रहा है.

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में 993 विश्वविद्यालय, करीब चालीस हजार महाविद्यालय हैं और 385 निजी विश्वविद्यालय हैं. उच्च शिक्षा में करीब चार करोड़ विद्यार्थी हैं और नामांकित छात्रों की दर यानी ग्रॉस एनरोलमेंट रेशियो बढ़कर 26.3 प्रतिशत हो गया है. देश के प्रमुख शिक्षा बोर्ड सीबीएसई की 2019 की परीक्षा के लिए 10वीं और 12वीं कक्षाओं में 31 लाख से ज्यादा विद्यार्थी नामांकित थे. सीआईसीएसई के अलावा विभिन्न राज्यों के स्कूली बोर्डों की छात्र संख्या भी करोड़ों में है. इनमें से अधिकांश जो शहरों में हैं, वे शायद किसी तरह खुद को ऑनलाइन शिक्षा से जोड़ भी लें पर ग्रामीण भारत में तस्वीर कुछ अलग ही है.

अमीर और अमीर होते जाएंगे पर गरीबों का क्या?

शिक्षा जगत में इस बात पर बहस है कि ऑनलाइन रुझान क्या भविष्य में ज्यादा से ज्यादा बच्चों को स्तरीय शिक्षा मुहैया करा पाने की संभावना देगा. क्योंकि बात सिर्फ इंटरनेट और लर्निंग की नहीं है बात उस विकराल डिजिटल विभाजन की भी है जो इस देश में अमीरों और गरीबों के बीच दिखता है. केपीएमजी के उपरोक्त आंकड़ों को ही पलटकर देखें तो ये पहलू भी स्पष्ट हो जाता है. ऑनलाइन क्लास की तकनीकी जरूरतों और समय निर्धारण के अलावा एक सवाल टीचर और विद्यार्थियों के बीच और सहपाठियों के पारस्परिक सामंजस्य और सामाजिक जुड़ाव का भी है.

मप्र के छत्तरपुर से लालू नामदेव क​हते हैं कि ऑनलाइन पढ़ाई में बहुत सारी खामियां हैं. सबसे पहली दिक्कत तो ये कि बच्चे और शिक्षक के बीच का संबंध पहले जैसा नहीं रह जाता. शिक्षक केवल अपना कोर्स पूरा करवाते हैं, उन्हें ये नहीं पता होता कि बच्चा उस विषय को कितना समझ पा रहा है? हमारे देश में स्कूली बच्चों के लिए, खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में जहां बच्चों को वीडियो कॉल पर बात करने में अभी भी असहजता होती है. ऐसे में वे कैसे शिक्षकों से खुद को जोड पाएंगे और कैसे उनकी बात समझेंगे? क्लासरूम में टीचर संवाद और संचार के अन्य मानवीय और भौतिक टूल भी इस्तेमाल कर सकते हैं लेकिन ऑनलाइन में ऐसा कर पाना संभव नहीं. सबसे एक साथ राब्ता न बनाए रख पाना वर्चुअल क्लासरूम की सबसे बड़ी कमी है. इधर शहरों में जूम नामक ऐप के जरिए होने वाली कक्षाओं के दौरान तकनीकी समस्याओं के अलावा निजता और शालीनता को खतरे जैसे मुद्दे भी उठे हैं. कई और असहजताएं भी देखने को मिली हैं, सोशल मीडिया नेटवर्किंग में यूं तो अज्ञात रहा जा सकता है लेकिन ऑनलाइन पढ़ाई के लिए प्रामाणिक उपस्थिति, धैर्य और अनुशासन भी चाहिए. जाहिर है ये नया अनुभव विशेष प्रशिक्षण की मांग करता है.

वहीं दूसरी ओर दिल्ली एनसीआर में काम करने वाले नंदकिशोर मोबाइवाणी के जरिए अपनी आवाज सरकार तक पहुंचाना चाहते हैं. वे कहते हैं कि लॉकडाउन के कारण स्कूल नहीं खुल रहे हैं. कोरोना के टाइम में ऐसा होना जरूरी भी है पर बच्चों को मोबाइल की मदद से कैसे पढ़ाएं? इसके लिए ना तो अभिभावक तैयार हैं और ना ही बच्चे मानसिक रूप से तैयार हैं. छोटे से वीडियो की मदद से बच्चा कैसे किसी सवाल को हल करना सीख सकता है? कॉलेज की पढ़ाई मोबाइल से हो सकती है पर छोटे बच्चों के सामने यह चुनौती है.

नंदकिशोर की चिंता जायज है क्योंकि शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत देश के सबसे बड़े गैर सरकारी संगठन ‘एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट’ (असर) – 2018 की एक रिपोर्ट में जो आंकड़े सामने आए थे वो तो हैरान करने वाले थे. इस रिपोर्ट के मुताबिक पांचवीं कक्षा में 50.3 फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा के लिए तैयार किए गए सिलेबस को पढ़ सकते हैं. ऐसे में आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि स्कूली शिक्षा को लेकर किए जा रहे तमाम प्रयासों के बावजूद ये हालत है तो ऑनलाइन शिक्षा में किस तरह की परिस्थितियां होंगी.

तो क्या होगा बच्चों का भविष्य

ऑनलाइन पढ़ाई की मजबूरी और आकर्षण के बीच ये जानना भी जरूरी है कि क्या संख्या के आधार पर वाकई देश इसके लिए तैयार है. एक अध्ययन के मुताबिक विश्वविद्यालय में पढ़ रहे छात्रों वाले ऐसे सिर्फ साढ़े 12 प्रतिशत परिवार ही हैं जिनके घरों में इंटरनेट उपलब्ध है. भारतीय सांख्यिकी आयोग में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर अभिरूप मुखोपाध्याय ने राष्ट्रीय सैंपल सर्वे संगठन के आंकड़ों के आधार पर अपने एक लेख में बताया है कि विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले 85 प्रतिशत शहरी छात्रों के पास इंटरनेट है, लेकिन इनमें से 41 प्रतिशत ही ऐसे हैं जिनके पास घर पर भी इंटरनेट है. उधर 55 प्रतिशत उच्च शिक्षारत ग्रामीण छात्रों में से सिर्फ 28 प्रतिशत छात्रों को ही अपने घरों में इंटरनेट की पहुंच है. राज्यवार भी अंतर देखने को मिला है. केरल में 51 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों में इंटरनेट की पहुंच है लेकिन सिर्फ 23 प्रतिशत के पास घरों में है. पश्चिम बंगाल और बिहार जैसे राज्यों में तो सात से आठ प्रतिशत ग्रामीण परिवारों में ही इंटरनेट उपलब्ध है.

झारखंड राज्य में स्कूलों को खोलने की कवायद शुरू हो गई है. मोबाइलवाणी श्रोता सर्वेश बताते हैं कि राज्य के शिक्षा विभाग ने स्कूल के प्राचार्यों, अभिभावकों और छात्रों से उनके सुझाव मांगे हैं. अगर सहमति बनती है तो स्कूल खोलने पर विचार होगा. झारखंड की तर्ज पर बाकी राज्य भी कुछ ना कुछ प्रयास कर रहे हैं पर चुनौती इससे कहीं ज्यादा बड़ी है.

इस मौसम में दूसरी चुनौती है बाढ़. बिहार और उत्तर भारत समेत कई राज्यों के ग्रामीण इलाके इन दिनों बाढ़ से जूझ रहे हैं. ये लगभग हर साल का सिलसिला है. बच्चों के स्कूलों में पानी भरा होता है और वे सत्र पूरा नहीं कर पाते. बिजली नहीं, इंटरनेट नहीं और रहने के लिए छत नहीं. ऐसे में ऑनलाइन पढ़ाई चुनौती के रूप में सामने आई है.

केरल से लेना चाहिए सबक

देश में केवल केरल ऐसा राज्य है, जिसने कोरोना काल में बच्चों की शिक्षा के लिए शानदार विकल्प तलाश लिया है. न्यूज एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, ‘फर्स्ट बेल’ नाम से केरला इंफ्रास्ट्रक्चर एंड टेक्नोलॉजी फॉर एजुकेशन ने VICTERS TV चैनल को तैयार किया है, जिसके ज़रिए स्टूडेंट्स की क्लास होगी. यह चैनल पूरे राज्य में इंटरनेट और डायरेक्ट-टू-होम केबल नेटवर्क पर मुफ्त में उपलब्ध है. क्लास सुचारु रूप से चल सके. इसके लिए काइट ने एक टाइम टेबल भी तैयार किया है, जिसके हिसाब से विक्टर्स चैनल पर कक्षा 11 के अलावा सभी कक्षाओं के लिए सत्र सोमवार से शुक्रवार तक सुबह 8.30 से शाम 5.30 बजे तक आयोजित किए जाएंगे. डायरेक्टर ऑफ पब्लिक इंस्ट्रक्शन (DPI) के जीवन बाबू की मानें तो राज्य के सरकारी स्कूलों में छात्रों पर किए गए एक अध्ययन के बाद यह पाया गया कि 2.6 लाख से अधिक छात्रों के पास ऑनलाइन कक्षाओं के लिए कोई सुविधा नहीं थी. इन छात्रों के लिए केरल सरकार नेबरहुड स्टडी सेंटर स्थापित करेगी ताकि वो शिक्षा से वंचित न रहें. इतना ही नहीं केरल के लगभग 45 लाख छात्रों ने एक जून से अपनी वर्चुअल क्लासेज़ शुरू कर दी हैं. जरा सोचिए कि जब एक राज्य की सरकार अपने राज्य के बच्चों की जरूरतों को इतनी गंभीरता से समझ रही है तो फिर केन्द्र सरकार सभी राज्यों को साथ लेकर कोई योजना क्यों नहीं शुरू कर सकती?

असल में इन आधारभूत दिक्कतों के बाद गांवों में ऑनलाइन शिक्षा की पैठ मजबूत करने के लिए संगठित प्रयास भी करने होंगे. ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा को पहुंचाने के लिए सबसे पहले अध्ययन सामग्री को छात्रों तक पहुँचाया जा सकता है और इसके बाद ऑनलाइन संपर्क ऑनलाइन वीडियो के माध्यम से शिक्षकों के साथ पारस्परिक विचार-विमर्श किया जा सकता है. ऑनलाइन शिक्षण चर्चाओं, आभासी कक्षाओं और बातचीत के लिये विस्तारित कक्षा समुदाय बनाया जा सकता है. एक और विकल्प यह है जिसमें कक्षा के पाठ्यक्रम को एक वास्तविक समय में रिकार्ड किया जा सकता है और इन कक्षाओं में शामिल नहीं होने वाले छात्रों को पढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. यह शिक्षा के लिए एक विस्तारित पहुंच बनाता है. ग्रामीण शिक्षा के लिए ई-लर्निंग प्रौद्योगिकियों की जरूरत है. ग्रामीण भारत में ऑडियो कॉन्फ्रेंसिंग और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग को शिक्षा प्रणाली का एक प्रमुख हिस्सा होना चाहिए. विद्यालयों के शिक्षक अच्छी तरह से उपकरणों से सुसज्जित नहीं हैं. इसलिए छात्रों को नोट्स और नोटिस देने के लिए शिक्षकों को लैपटॉप और प्रिंटर दिए जाने चाहिए.

इसके अलावा अगर सरकार की नीतियों की दिशा ये है कि डिजिटल एजुकेशन से काम चलाया जाएगा, तो इसके लिए तीन कदम उठाने होंगे. एक, देश में इंटरनेट और स्मार्टफोन की सुविधा का विस्तार करना होगा और लैपटॉप या टैबलेट हर छात्र को मिल सके, ऐसी व्यवस्था करनी होगी. दो, छात्रों से भी पहले शिक्षकों को डिजिटल एजुकेशन के लिए तैयार करना होगा और उनकी ट्रेनिंग करानी होगी. तीन, डिजिटल एजुकेशन के लिए सिलेबस को बदलना होगा और नए टीचिंग मैटेरियल तैयार करने होंगे.

और ये सब एकदम से नहीं हो जाएगा। हमें वक्त की जरूरत है और चुनौती भी यही है कि वक्त कहां से लाएं?


यह आलेख ग्राम वाणी द्वारा अपने शोध और सर्वे के आधार पर तैयार किया गया हैकवर तस्वीर फोर्ब्स इंडिया से साभार प्रकाशित है।


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