क्या लालू और उनकी पार्टी का राजनीतिक शुद्धिकरण कर रहे हैं तेजस्वी?


पिछले चार दशक यानि 40-42 साल में पहली बार है जब बिहार में चुनाव बिना लालू प्रसाद यादव के हो रहा है. इन चार दशकों में कई विधानसभा चुनाव हुए, मगर राजनीतिक इतिहास में इस कालखंड में संपन्न हुए बिहार के सिर्फ दो विधानसभा चुनाव को हमेशा याद किया जाएगा. 1990 और 2015 का.

1990 में मंडल-कमंडल की राजनीति के दौर में लालू यादव बिहार में सबसे ताकतवर जननेता के रूप में उभरे और बिहार को कांग्रेस की जमींदारी से मुक्त कराया. 1990 में लालू यादव ने सदियों की सामंती दासता से पीड़ित, दमित, शोषित गरीब-गुरबा और मजलूमों को न सिर्फ आजादी दिलाई बल्कि सत्ता भी दिलाई. राजनीतिक हाशिये पर रहे दलित और पिछड़ी जाति के लोगों को गद्दी पर भी बिठाया और मुंह में आवाज़, सीना तान कर खड़े होने की ताकत भी दी.

2015 के चुनाव में जब सांप्रदायिक ताकतें फन काढ़े बिहार की समाजवादी और सेकुलर राजनीति को डसने के लिए एकदम जीभ लपलपा रही थीं, तो उस समय उस कालिया नाग को लालू यादव ने ही बिहार में नाथा था. 2015 में लालू ने महागठबंधन बना कर न सिर्फ नीतीश कुमार को अभयदान दिया, बल्कि बिहार में नफरत और मजहबी आधार पर खड़ी राजनीतिक पार्टी बीजेपी के लिए बिहार की सत्ता के रास्ते हमेशा के लिए बंद कर दिये. नीतीश कुमार ने सत्ता के लिए, कुर्सी को बचाने के लिए फिर से कालिया नाग को अपना साथी बना लिया और बीजेपी को बिहार की सत्ता में फिर से एंट्री दिला दी.

तब से लेकर आज तक इन पिछले चार वर्षों में बीजेपी ने बिहार की समाजवादी- सेकुलर बुनियाद और भित्ति को कमजोर करने के लिए नफरत का ऐसा शक्तिशाली ज़हर फैलाया है और मूर्खता का ऐसा अटूट संजाल बुन दिया है कि इसके जहरीले नागपाश और सम्मोहन में फंसा बिहार बाहर निकल नहीं पा रहा है. लालू यादव के पुत्र तेजस्वी यादव, आरजेडी से राज्यसभा भेजे गए मनोज झा और सुनील सिंह की नीतियों से चल रहा राष्ट्रीय जनता दल इस जहरीले नागपाश से बिहार को निकालने में फिलहाल तो सक्षम नहीं दिखाई पड़ रहा है. हां, अगर लालू यादव बाहर होते तो आज जरूर वो बीजेपी के जहर की सबसे ताकतवर काट निकाल कर लाते और बिहार के अवाम के दिलोदिमाग में भरा जहर उतार देते.

2015 में भी लालू यादव ने बीजेपी का ज़हर उतारा था, मगर अफसोस 2020 में ज़हर उतारने वाला कोई नहीं है. लालू के बाद बिहार में बस नीतीश ही उस कद और कलेवर के नेता हैं जिनके पास बीजेपी के ज़हर की काट है लेकिन वो भी पिछले डेढ़ दशक से बीजेपी के साथ रह कर ज़हरीले होते जा रहे हैं. दूसरे टर्म में जब वो दोबारा बीजेपी के साथ हुए तो उन्होंने जान बूझ कर या फिर कुर्सी की मजबूरी में ही सही, अपनी सेकुलर छवि को बहुत नुकसान पहुंचाया.

नीतीश जी! आपको क्या हुआ है? आप किससे लड़ रहे हैं?

गोपालगंज के रोहित जायसवाल हत्याकांड की घटना बहुत पुरानी नहीं हुई है जब उग्र हिन्दूवादी तंत्र और मीडिया ने इस हत्याकांड को सांप्रदायिक रंग देकर इतना सनसनीखेज बना दिया ताकि आसानी से बिहार में हिन्दू ध्रुवीकरण की जमीन मजबूत हो. और तो और, नीतीश सरकार का पुलिसिया तंत्र भी इस हत्याकांड को मजहबी रंग दे रहे लोगों और कम्यूनल मीडिया पर कोई कार्रवाई नहीं कर पाई. दिल्ली से चलने वाले एक वेब पोर्टल ‘ऑप इंडिया’ ने  9 मई को इस घटना को सनसनीख़ेज़ शीर्षक के साथ छापा. रिपोर्ट में ये दावा किया गया कि बेलाडीह गांव की मस्जिद में कुछ लोगों ने मिलकर 15 साल के एक ‘हिंदू लड़के’ की ‘बलि’ दी है. ये भी बताया गया कि इस घटना के बाद डर की वजह से पीड़ित का परिवार पलायन कर पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में रहने चला गया है. ‘ऑप इंडिया’ ने इसके बाद पूरे मामले पर सिलसिलेवार तरीक़े से कई रिपोर्ट्स प्रकाशित की और सारी रिपोर्ट में इस ‘हत्या’ को धार्मिक रंग देने की कोशिश की गई.

12 मई को ‘सुदर्शन न्यूज़’ ने ‘रोहित की हत्या का मस्जिद कनेक्शन’ नाम से एक शो किया. इसमें ‘मस्जिद में मौलवियों ने मार दिया बेटे को’ जैसे कई दावे किए गए. कई और वेबसाइट्स पर जब ऐसी रिपोर्ट्स आनी शुरू हुई तो गोपालगंज में ये घटना आग की तरह फैल गई. आश्चर्य तो तब हुआ जब इस घोर सांप्रदायिक रिपोर्टिंग को होने दिया गया और नीतीश कुमार की पुलिस और खुफिया तंत्र इसको रोकने के लिए कुछ नहीं कर पाई. बाद में डैमेज कंट्रोल के लिए खानापूर्ति के लिए उस वेब पोर्टल पर 13 मई को एफआइआर दर्ज की गई. सुदर्शन न्यूज पर भी एफआइआर दर्ज की गई, मगर आज तक इन दोनों मीडिया संस्थानों पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई जबकि बिहार सरकार के डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय ने अपनी जांच में यह स्पष्ट कर दिया है कि रोहित जायसवाल की मौत नदी में डूबने से हुई है, बावजूद बिहार में मजहबी राजनीतिक पार्टी इस घटना पर राजनीतिक फायदा उठाती रही.

एक बार फिर बिहार विधानसभा चुनाव 2020 के पहले चरण के चुनाव के ठीक एक दिन पहले मुंगेर में मूर्ति विसर्जन के दौरान हुई फायरिंग में एक युवक की मौत के बाद बिहार का सांप्रदायिक माहौल बिगाड़ा गया और नीतीश सरकार की पुलिस और प्रशासन को नाकारा साबित किया गया. भले बीजेपी और नीतीश कुमार दोनों मिलकर सरकार चला रहे हैं, मगर इस तरह की सांप्रदायिक घटना पर बीजेपी हमेशा नीतीश सरकार को कमजोर करने की कोशिश करती है. नीतीश कुमार पता नहीं क्यों एक मजबूर शासक की तरह हमेशा मुंह पर चुप्पी ओढ़ लेते हैं और बीजेपी की सभी चालों को अंजाम तक पहुंचाने में उनकी चुप्पी जाने- अनजाने में मददगार बन जाती है. नीतीश कुमार जानते हैं कि ये चुप्पी उनके लिए घातक साबित हो रही है और उनकी सेकुलर छवि को नुकसान पहुंचा रही है. ऐसा नहीं है नीतीश कुमार मुस्लिमों के पसंदीदा नेता नहीं हैं. 2015 तक थोड़ा बहुत ही सही मुस्लिम वोटर नीतीश कुमार को भी वोट करते थे, मगर 2020 में वो नहीं कर रहे हैं. वजह साफ़ है.

चर्चा हो रही थी बीजेपी के ज़हर की काट की. और ये निर्विवाद सच है कि इसकी काट सिर्फ और सिर्फ लालू यादव के पास है. अब सवाल है कि जब लालू यादव इस बार 2020 के चुनाव में सशरीर अपनी पूरी ठसक के साथ मैदान में नहीं हैं तो क्या उनके बेटे तेजस्वी बीजेपी को हरा सकते हैं? क्या तेजस्वी को लालू ने बीजेपी के ज़हर की कोई काट बतायी है? हो सकता है लालू ने तेजस्वी को कुछ बताया हो मगर पिछले ढाई दशक से मैंने भी बिहार की राजनीति को पूरे शिद्दत के साथ महसूस किया है, सरज़मीं पर बनते-बिगड़ते देखा है. मेरी समझ जहां तक जा रही है उसके आधार पर कह सकता हूं कि बीजेपी को हराने की ताकत और कुव्वत सिर्फ और सिर्फ लालू में है, तेजस्वी में नहीं. बिना लालू के बीजेपी को हराना तेजस्वी के अकेले के बूते संभव नहीं है.

टीएन शेषण जब 1990 में देश के मुख्य चुनाव आयुक्‍त हुआ करते थे, तभी देश भर में वोटर आइडी पहली दफा सभी वोटरों की बनवायी गयी थी. मेरा भी वोटर आइडी उसी समय बना था. चुनाव सुधार की जब शुरूआत हुई थी उससे पहले से ही मैं चुनाव और वोट की राजनीति को देखता आया हूं. टीएन शेषण से पहले बूथ कैप्चरिंग, बोगस वोटिंग, बैलेट बक्से को लूटने से लेकर बूथ पर गोलीबारी और हिंसा की खबरें आम बात हुआ करती थीं. टीएन शेषण ने पहली बार चुनाव में बड़ी संख्या में केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती कर चुनावी हिंसा और चुनावी धांधली पर हमेशा के लिए रोक ही लगा दी थी.

चुनावी धांधली और चुनावी हिंसा यह सब लालू यादव के जमाने से पहले की बात थी. जग्गनाथ मिश्रा और कांग्रेस के राज में ये सब हुआ करता था. टीएन शेषण के चुनाव सुधार के बाद भी जब लालू ने कहा बैलेट बक्सा से जिन्न निकलेगा तो लोगों को यकीन नहीं हो रहा था और जब गरीब-गुरबा, मजलूमों, दमित और शोषितों और अकलियतों का वोट जिन्न बन कर बाहर निकला, तो पूरी दुनिया लालू की ओर आंख फाड़ के देखने लगी.

ये दौर टोंटी-मेटी के एक होने का दौर था. 1990 के चुनाव से लेकर 2015 के चुनाव तक टोंटी-मेटी लालू के साथ रहा. हकीकत यही है कि यही टोंटी-मेटी जिसे एमवाइ समीकरण कहा जाता है, वही लालू यादव का जिन्न है. उस समय के बाद से अभी 2020 तक चुनाव को देखते आ रहा हूं और एक-दो दफे वोट भी डाला है.

क्या बीजेपी के ज़हर की काट 10 लाख सरकारी नौकरियां हैं? क्या यही काट लालू जी ने तेजस्वी को बतायी है? अगर ये सच है तो फिर ये मान कर चलना होगा कि लालू यादव और लालू यादव की पार्टी का ये मेकओवर है. अगर ये गलत है तो फिर ये  माना जाना चाहिए कि तेजस्वी के थिंक टैंक मनोज झा, सुनील सिंह और संजय यादव का ब्रेन चाइल्ड है जो फिलहाल तेजस्वी को बिहार के युवाओं में पॉपुलर जननेता बना रहा है. तेजस्वी की सभा में उमड़ रही भीड़ और जगह- जगह चुनाव सभास्थल पर युवा और किशोरवय के लड़कों के बीच तेजस्वी के साथ सेल्फी लेने की होड़ इस बात की तस्दीक कर रही है कि 10 लाख सरकारी नौकरी देने का वादा असर कर रहा है.

कन्हैया भेलारी बिहार के सीनियर पत्रकार हैं. लालू और नीतीश दोनों जननेताओं के साथ वो घुले-मिले हुए हैं. 27 अक्टूबर के पहले चरण की 71 सीटों पर हुए वोटिंग के बाद शाम को उन्होंने अपना एक आकलन फेसबुक पर शेयर करते लिखा- ‘जोड़, घटाव, गुणा, भागा. पहला फेज. महागठबंधन को 71 में 58 सीट पर हर हर महादेव.’ अगर कन्हैया भेलारी सच साबित होते हैं तो फिर ये मान लिया जाएगा कि ये लालू यादव की पार्टी का मेकओवर है. मान ये भी लिया जाएगा कि लालू यादव से ज्यादा पार्टी पर पकड़ अब तेजस्वी यादव ने बना लिया है और पार्टी में अंतिम फैसला भी अब तेजस्वी का ही माना जाता है और पार्टी के सर्वेसर्वा तेजस्वी ही हैं. तो फिर ये भी मान लिया जाएगा कि लालू यादव का राजनीतिक अवसान हो गया?

सच मानें तो लालू यादव का राजनीतिक अंत उसी दिन हो गया था जब 2013 में कोर्ट ने उनके चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी थी. बावजूद 2015 के विधानसभा चुनाव में लालू यादव बिहार की राजनीति में फिर से वही पुराने ठसक और लोकप्रियता के साथ जनता के नेता बन कर उभरे थे. अभी भी जो चुनावी सभा में तेजस्वी को देखने भीड़ उमड़ती है वो ये देखने-जानने आती है कि क्या लालू यादव का बेटा लालू के खास भदेस अंदाज में ही अपने विरोधियों की बखिया उधेड़ता है या फिर उसका अंदाज अलग है. तेजस्वी लाख प्रयास कर लें मगर वो अपने पिताजी की तरह अपने वोटरों के दिल और दिमाग से उस तरह कम्युनिकेट नहीं कर सकते हैं जिस अंदाज़ में लालू करते थे. लालू न सिर्फ जननेता हैं बल्कि वो एक बेहतरीन कम्युनिकेटर भी हैं. लालू यादव को तो इस बात में महारत ही हासिल है कि वोटरों से किस अंदाज़ में संवाद किया जाता है. कुछ हद तक लालू के बड़े बेटे तेजप्रताप में यह गुण आया है मगर वो परिपक्वता नहीं है. बिल्कुल वोटरों की ही जुबान और शैली में लालू यादव संवाद करते थे. जिसे सवर्ण और अभिजात्य जोकरई और मजाक समझते हैं वो दरअसल संवाद की एक शैली है और लालू यादव के वोटर उसी शैली और जुबान में लालू यादव की बात समझते हैं. ये बात लालू तो बखूबी जानते ही हैं और लालू के धुर विरोधी भी इस बात को भलीभांति जानते हैं.

अभी भी 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव का वो मंजर जिसे याद है वो ये जानता है कि मोदी की ताकत को सिर्फ और सिर्फ लालू यादव ही कमजोर कर सकता है और मोदी के जादू की काट भी लालू के पास ही है. 2015 के चुनाव में नरेंद्र मोदी के पास सत्ता और लोकप्रियता की असीमित ताकत थी लेकिन बिहार में लालू यादव से वो पार नहीं पा सके थे. लालू यादव ने बिहार की धरती पर मोदी की ताकत को धूल चटा दी थी.

याद होगा इस चुनाव के दौरान एक चुनावी सभा में लालू ने मोदी की नकल उतारकर अपने समर्थकों को ख़ूब हंसाया था. अपनी एक रैली में तो उन्होंने ये भी कहा था, “मोदी जी, ऐसे मत बोलिए वरना गर्दन की नस फट जाएगी.” बिहार को पैकेज देने के नाम पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घोषणा की नकल लालू ने बख़ूबी उतार कर दिखाई थी. यही है लालू यादव की काट. और इसीलिए मेरा मानना है कि बीजेपी और मोदी को हराने की ताकत और कुव्वत सिर्फ और सिर्फ लालू में है. तेजस्वी को ये ताकत हासिल करने में अभी काफी कुछ सीखना होगा और राजनीतिक परिपक्वता लानी होगी.

ऐसा पहली बार है जब बिहार के चुनाव में बात नौकरी और रोजी-रोटी की हो रही है और ये सब उस पार्टी से हो रही है जिसके सरकार पर बिहार में जंगलराज लाने का आरोप लगाया जाता रहा है. अचानक से चुनावी पोस्टर-बैनर और पर्चे से लालू का गायब हो जाना क्या सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है या फिर राजद में लालू युग का ‘द एंड’ हो गया है?

बिहार के किसी भी राजनीतिक धुरंधर के गले ये बात नहीं उतर रही है और इतनी जल्दी इस नतीजे पर पहुंचना भी मूर्खता ही मानी जाएगी क्योंकि ये सभी जान रहे हैं कि टिकट बंटवारे से लेकर गठबंधन के सारे जोड़-तोड़ और हर पेंचोखेम के आदेश रांची के रिम्स के उस वार्ड से ही आ रहे हैं जहां लालू यादव कैद हैं. वैसे इस बात में तनिक भी दो राय नहीं है कि खुद लालू यादव भी अपना और अपनी पार्टी का भविष्य तेजस्वी में ही देख रहे होंगे और संभव है 10 लाख सरकारी नौकरी के ट्रंप कार्ड से वो भी इत्तेफाक रखते हों. तभी तो तेजस्वी जगह-जगह नारा दे रहे हैं- जात पर न पात पर वोट दें नौकरी के नाम पर.

अगर नौकरी के ट्रंप कार्ड पर तेजस्वी चुनाव जीत जाते हैं तो ये लालू यादव के लिए और उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के लिए भी राजनीतिक शुद्धिकरण का काम करेगा और सारे दाग एक ही बार में शायद धुल भी जाएंगे. इसके लिए भले ही लालू युग का द एंड ही हो जाए. बेहतर होगा कि लालू युग का द एंड इस हैप्पी नोट पर हो. रोजगार औऱ विकास के वादे पर अगर तेजस्वी को जनता सत्ता सौंपती है तो फिर ये लालू यादव के सुखद अंत और पार्टी के लिए संजीवनी का काम करेगा.


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