विजय समारोहों के बीच किसान आंदोलन की चिंताएं

प्रधानमंत्री द्वारा तीन कानूनों को निरस्त करने के निर्णय की घोषणा करने के लिए अपनाया गया तरीका भी उनके जनविरोधी फासीवादी मानसिक बनावट का एक और सबूत साबित हुआ है।

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जाति की सलीब पर कवि को टाँगे जाने के विरुद्ध: दिवाकर मुक्तिबोध से एक संक्षिप्त संवाद

दिवाकर मुक्तिबोध को मैंने फोन लगाया, हालांकि वो नहीं चाहते थे कि इस पर कुछ लिखूं या विवाद को और तूल दिया जाए या फिर मुक्तिबोध को जाति की सलीब पर लटका दिया जाए लेकिन चूंकि यह ज़रूरी है इसलिए दिवाकर मुक्तिबोध से माफ़ी सहित, उनसे हुई बातचीत यहां जस का तस प्रकाशित कर रहा हूं।

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तालिबान को मान्यता का सवाल बनाम अफगान जनता की भुखमरी और अराजकता

इस समय जरूरी यह है कि अफगान जनता को भुखमरी और अराजकता से बचाया जाए और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए तालिबान को यदि अपने अनुयायिओं के विरुद्ध कठोर कदम उठाना पड़ें तो वे भी बेहिचक उठाए जाएं।

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पेगासस जासूसीः सरकार की किरकिरी

जैसे किसी ज़माने में औरतें अपने पति का नाम बोलने में हिचकिचाती थीं, वैसे ही पेगासस को लेकर हमारी सरकार की घिग्घी बंधी हुई है। अदालत ने सरकारी रवैए की कड़ी भर्त्सना करते हुए कहा है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर उसे कुछ भी उटपटांग काम करने की इजाजत नहीं दी जा सकती।

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पंजाब: जहां मंडियों के सहारे चलती है जीवन की गाड़ी

पंजाब के किसानों का कहना है कि पूरे प्रदेश में व्याप्त मंडियों का विशाल और सुलभ नेटवर्क उनके अनुकूल है और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) व दूसरी अन्य भरोसेमंद प्रक्रियाओं के साथ-साथ व्यापार के लिहाज़ से उन्हें तनिक सुरक्षित माहौल उपलब्ध कराता है। अब किसानों को इस बात का डर लगातार सता रहा है कि नए कृषि कानूनों के लागू होने का सीधा असर इस नेटवर्क पर पड़ेगा।

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अमित शाह को क्यों कहना पड़ा कि मोदी निरंकुश नहीं हैं!

सवाल यह है कि मोदी के गुजरात और दिल्ली में सफलतापूर्वक दो दशकों तक सरकारें चला लेने के बाद अचानक से इस तरह के सवाल के पूछे जाने (या पुछवाये जाने) की ज़रूरत क्यों पड़ गयी होगी? जनता तो इस आशय की संवेदनशील जानकारी की साँस रोककर प्रतीक्षा भी नहीं कर रही थी। सरकार और पार्टी में ऐसे मुद्दों पर बंद शयनकक्षों में भी कोई बातचीत नहीं होती होगी।

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अधिनायकवाद की आहट और पोलैंड के विद्रोही जजों का एक प्रयोग

गोरखपुर में एक टीवी चैनल के साथ मुलाक़ात में मुख्यमंत्री योगी ने जब यह कहा कि बिना सबूत के कोई गिरफ़्तारी नहीं होगी तो जनता सवाल करने लगी थी कि अदालत को सबूत जुटाकर देने का काम किसका है और आरोपियों को कौन और क्यों बचा रहा है? क्या दोनों ही काम कोई एक ही एजेंसी तो साथ-साथ नहीं कर रही है?

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दिमित्री मुरातोव को मिला नोबेल पुरस्कार और अन्ना पोलित्कोव्सकाया की अधूरी कहानी…

जनपथ के पाठकों के लिए 15 साल पुरानी अन्ना की लिखी यह अधूरी स्टोरी एक बार फिर प्रस्तुत है, जिसके एवज में उन्हें अपनी जन गंवानी पड़ी लेकिन पंद्रह साल बाद जिसका सिला उनके सम्पादक के लिए नोबेल पुरस्कार के रूप में सामने आया है।

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लाल जोहार: शहादत के तीस बरस बाद भी एक ज़िंदा सपने का नाम है शंकर गुहा नियोगी!

देश के प्रसिद्ध श्रमिक नेता शंकर गुहा नियोगी के जीवन संघर्ष को लेकर निर्मित डाक्यूमेंट्री फिल्म ‘लाल जोहार’ वैसे तो यू ट्यूब पर जारी कर दी गई है लेकिन फिल्म का एक विशेष प्रदर्शन 28 सितंबर को लौह नगरी दल्ली राजहरा में होने जा रहा है। इस प्रदर्शन के दौरान फिल्म की टीम से जुड़े सभी सदस्य मौजूद रहेंगे।

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दक्षेस के नहले पर जन-दक्षेस का दहला

दक्षेस बिल्कुल पंगु हुआ पड़ा है। यह 1985 में बना था लेकिन अब 35 साल बाद भी इसकी ठोस उपलब्धियां नगण्य ही हैं, हालांकि दक्षेस-राष्ट्रों ने मुक्त व्यापार, उदार वीजा-नीति, पर्यावरण-रक्षा, शिक्षा, चिकित्सा आदि क्षेत्रों में परस्पर सहयोग पर थोड़ी बहुत प्रगति जरूर की है लेकिन हम दक्षेस की तुलना यदि यूरोपीय संघ और ‘एसियान’ से करें तो वह उत्साहवर्द्धक नहीं है।

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