किसान आंदोलन की मांगें WTO की उन शर्तों के विरोध में हैं जिन पर भारत सरकार पहले ही सहमति दे चुकी है!


प्रस्तुत लेख जिनेवा में कल से शुरू होने वाली विश्व व्‍यापार संगठन की मंत्रिस्‍तरीय बैठक के आलोक में लिखा गया था। संगठन ने एक आधिकारिक सूचना देते हुए कोरोना महामारी के नए खतरे की आशंका में यह बैठक फिलहाल टाल दी है। इस लेख को किसान आंदोलन की मांगों की व्यापकता को समझने के लिहाज से पढ़ा जाना चाहिए।

संपादक

विश्व व्‍यापार संगठन की मंत्रिस्‍तरीय बैठक कल से शुरू होने जा रही है जो 3 दिसंबर तक चलेगी। ऐसी बैठकों के दौरान साम्राज्‍यवादी देश विकासशील देशों के ऊपर दबाव डालते हैं कि वे मुक्‍त व्‍यापार की नीतियों के अनुरूप कृषि सब्सिडी को समाप्‍त कर दें। भारत के नये कृषि कानून दरअसल ऐसी ही बैठकों में सुनाये गए फरमान का नतीजा हैं। इन्‍हीं बैठकों में मिले फरमानों के बाद सरकार ने कृषि उत्‍पादों की खरीद से पल्‍ला झाड़ने की तैयारी शुरू कर दी थी।

न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य की कानूनी गारंटी, फसलों की खरीद और जन वितरण प्रणाली की कानूनी गारंटी को लेकर किसानों की जो मांगें हैं, ये सभी विश्‍व व्‍यापार संगठन के फरमानों के स्‍पष्‍ट विरोध में हैं। भारत के सत्‍ताधीशों ने वहां लिखित में वचन दिया हुआ है कि वे एमएसपी तय करने की कोई गारंटी अपने यहां नहीं देंगे। आगामी बैठक ऐसे ही दूसरे नतीजे लेकर आएगी। भारत के शासकों को ऐसे ही और निर्देश दिए जाने हैं जिनका पालन उन्‍हें चुपचाप करना ही होगा। हमारे यहां सरकार किसानों की आमदनी बढ़ाने का बहाना बनाकर इन निर्देशों को उसके नाम पर लागू करेगी।

इस साल जुलाई में जब डब्‍लूटीओ की आगामी बैठक के लिए लिखित मसौदा जमा किया गया था तो उसमें ऐसे दो प्रस्‍ताव शामिल किये गए थे जो भारत के लोगों की बरबादी का सबब बन सकते हैं। पहले प्रस्‍ताव के अनुसार परंपरागत खाद्यान्‍न फसलों का जितना भी घरेलू उत्‍पादन होता है, उसका केवल 15 प्रतिशत ही सरकार भंडारण करेगी। फिलहाल चावल के लिए यह भंडारण सीमा 50 प्रतिशत और गेहूं के लिए 40 प्रतिशत है, बावजूद इसके देश के हर परिवार का पेट भर पाने में यह अपर्याप्‍त है। दूसरे प्रस्‍ताव के मुताबिक जो देश घरेलू खाद्यान्‍न सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक भंडारण करेगा उसे उस भंडार से निर्यात करने की छूट नहीं होगी।    

कृषि कानूनों की वापसी के बाद एमएसपी, पीडीएस और फसलों की सरकारी खरीद का मुद्दा अब भी अनसुलझा है। चूंकि भारत के सत्‍ताधारियों ने डब्‍लूटीओ की शर्तों पर अपनी सहमति से दस्‍तखत कर दिया है तो इन मुद्दों का स्‍थायी समाधान तभी हो सकेगा जब सरकार अपनी सहमति वापस ले।

कृषि उत्‍पादों के सही मूल्‍य, सरकारी खरीद और पीडीएस पर चल रही मौजूदा बहस के बीच यह बैठक एक ऐसा निर्णायक पड़ाव साबित होने वाली है कि देश भर की उत्‍पीडि़त जनता को अब यह मांग करनी ही पड़ेगी कि भारत सरकार विश्‍व व्‍यापार संगठन से अपने पांव वापस खींचे, उसके चंगुल से राष्‍ट्रीय अर्थव्‍यवस्‍था से जुड़े फैसलों को मुक्‍त करे और देश को बहुराष्‍ट्रीय साम्राज्‍यवादी कंपनियों के बजाय जनता की हित में चलाए।

यह बैठक एक ऐसे वक्‍त में हो रही है जब मौजूदा किसान आंदोलन अपने शिखर पर है। इसलिए इसी वक्‍त इससे बाहर होने का दबाव सरकार पर बनाने के लिए आवाज़ उठाने की सख्‍त जरूरत है। किसान आंदोलन की सभी मांगें दरअसल विश्‍व व्‍यापार संगठन के साथ जाकर जुड़ती हैं। डब्‍लूटीओ के शिकंजे से बाहर निकलने की मांग पर संघर्ष खड़ा करना इस बात का जवाब भी होगा कि क्‍या किसानों को केवल आर्थिक मांगों को लेकर आंदोलनरत रहना है अथवा उन्‍हें सत्‍ताधारी तबके की नीतियों को भी प्रभावित करना है।

यह एक ऐसी मांग है जिस पर संघर्ष खड़ा करने का अर्थ होगा सत्‍ताधारी वर्ग की नीतियों के खिलाफ उसे बदलने के लिए एक मुकम्‍मल संघर्ष।

आंदोलनरत किसानों को यह मौका नहीं गंवाना चाहिए। संघर्ष के मुद्दों के अगले चरण में इस मांग को शीर्ष पर रखा जाना चाहिए।


(पावेल कुसा भारतीय किसान यूनियन (एकता-उगराहां) के संयोजक हैंयह लेख सुर्ख लीह पब्लिकेशन के फ़ेसबुक पेज से साभार प्रकाशित है। अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है।)


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