दिल्ली में धर्मांतरण: भाजपा और आप दोनों डरपोक

भाजपा से भी ज्यादा डरपोक निकली आप पार्टी! उसने अपने मंत्री को इस्तीफा क्यों देने दिया? वह डटी क्यों नहीं? उसने वैचारिक स्वतंत्रता के लिए युद्ध क्यों नहीं छेड़ा? क्योंकि भाजपा, कांग्रेस और सभी पार्टियों की तरह वह भी वोट की गुलाम है। हमारी पार्टियों को अगर सत्य और वोट में से किसी एक को चुनना हो तो उनकी प्राथमिकता वोट ही रहेगा

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राहुल को दिल्ली आकर ‘भारत जोड़ो’ की बजाय ‘कांग्रेस जोड़ो’ अभियान चालू करना पड़ेगा!

राजस्थान में चली यह नौटंकी सबसे ज्यादा खुश किसे कर रही होगी? शशि थरूर को! और सबसे ज्यादा दुखी, किसको? राहुल गांधी को! क्योंकि राहुल ने ही केरल से मंत्र मारा था कि ‘एक आदमी, एक पद’। अब आदमी और पद, दोनों ही हवा में लटक गए हैं।

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मंदिर-मस्जिद सबके लिए खुले क्यों न हों?

सूरिनाम, गयाना, मोरिशस और अपने अंडमान-निकोबार में मैंने ऐसे कई परिवार देखे हैं, जिनमें पति तो पूजा करता है और उसकी पत्नी नमाज़ पढ़ती है या ‘प्रेयर’ करती है। ये लोग सच्चे आस्तिक हैं लेकिन जो भेदभाव करते हैं, वे जितने आस्तिक हैं, उससे ज्यादा राजनीतिक हैं। वे दूसरों के तो क्या, अपने ही मजहब में अपना संप्रदाय अलग खड़ा कर लेते हैं और उसके जरिये अंधभक्तों को अपने जाल में फंसाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं।

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जो मांग के लिए जाए वह सम्मान ही क्या है और देने वाले की अपनी प्रामाणिकता क्या है?

इन सम्मानों का लालच इतना बढ़ गया है कि पद्मश्री जैसा सम्मान पाने के लिए लोग लाखों रु. देने को तैयार रहते हैं। समाज के प्रतिष्ठित और कुछ तपस्वी लोग ऐसे नेताओं के आगे नाक रगड़ते रहते हैं, जो उनकी तुलना में पासंग भर भी नहीं होते।

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UP: चुनाव में ऊंट की करवट भांप कर उससे पहले ही उधर लेट जाने वाले

मौर्य ने अपने इस्तीफे के जो कारण बताए हैं, वे तो सिर्फ बताने के लिए हैं लेकिन उनके इस्तीफे का असली संदेश यह है कि उ.प्र. के चुनाव में ऊँट दूसरी करवट बैठनेवाला है। जिस करवट ऊँट बैठेगा, उसी करवट हम पहले से लेटने लगेंगे। वरना क्या वजह है कि मौर्य-जैसे कई नेता बार-बार अपनी पार्टियां बदलने लगते हैं? ऐसे नेता ही आज की राजनीति को उसके पूर्ण नग्न रुप में उपस्थित कर देते हैं।

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संत क्यों करें हिंदुत्व की बदनामी?

क्या उन्हें पता नहीं है कि हमारे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्री और सभी सांसद उस संविधान की रक्षा की शपथ लेते हैं, जो धर्म-निरपेक्ष है? ये लोग अपने आपको संत कहते हैं तो क्या इनका बर्ताव संतों की तरह है? ये तो अपने आपको उग्रवादी नेताओं से भी ज्यादा नीचे गिरा रहे हैं।

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तालिबान को मान्यता का सवाल बनाम अफगान जनता की भुखमरी और अराजकता

इस समय जरूरी यह है कि अफगान जनता को भुखमरी और अराजकता से बचाया जाए और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए तालिबान को यदि अपने अनुयायिओं के विरुद्ध कठोर कदम उठाना पड़ें तो वे भी बेहिचक उठाए जाएं।

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पेगासस जासूसीः सरकार की किरकिरी

जैसे किसी ज़माने में औरतें अपने पति का नाम बोलने में हिचकिचाती थीं, वैसे ही पेगासस को लेकर हमारी सरकार की घिग्घी बंधी हुई है। अदालत ने सरकारी रवैए की कड़ी भर्त्सना करते हुए कहा है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर उसे कुछ भी उटपटांग काम करने की इजाजत नहीं दी जा सकती।

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दक्षेस के नहले पर जन-दक्षेस का दहला

दक्षेस बिल्कुल पंगु हुआ पड़ा है। यह 1985 में बना था लेकिन अब 35 साल बाद भी इसकी ठोस उपलब्धियां नगण्य ही हैं, हालांकि दक्षेस-राष्ट्रों ने मुक्त व्यापार, उदार वीजा-नीति, पर्यावरण-रक्षा, शिक्षा, चिकित्सा आदि क्षेत्रों में परस्पर सहयोग पर थोड़ी बहुत प्रगति जरूर की है लेकिन हम दक्षेस की तुलना यदि यूरोपीय संघ और ‘एसियान’ से करें तो वह उत्साहवर्द्धक नहीं है।

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तालिबान: भारत-पाक रिश्तों को नयी दिशा देने का मौका

काबुल हवाई अड्डे पर हुए हमले पर तालिबान को अमेरिका ने बिल्कुल निर्दोष बताया तो अब भारत ने अध्यक्ष के नाते जो बयान जारी किया है, उसमें आतंकवाद का विरोध तो किया गया है लेकिन उस विरोध में तालिबान शब्द कहीं भी नहीं आने दिया है जबकि 15 अगस्त के बाद जो पहला बयान था, उसमें तालिबान शब्द का उल्लेख था।

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