चंबल का भुला दिया गया क्रांतिकारी दादा शंभूनाथ आजाद

आजाद भारत का निजाम भी दादा शंभूनाथ को रास नहीं आया। ब्रिटिश सत्ता से लड़ते हुए जो शोषणविहीन समाज बनाने का सपना बुना था जनक्रांति के उस सपने को पूरा करने के लिए ताऊम्र शिद्दत से जुटे रहे। अविवाहित रहते हुए उन्होंने अपने जैसे क्रांतिधर्मी साथियों की याद में अपने कचौरा घाट स्थित घर को स्मारक बना दिया। बेहद गरीबी की हालत में 76 वर्ष की अवस्था में 12 अगस्त 1985 में यह महान क्रांतिकारी रात दस बजे गहरी नींद में सो गया।

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आंदोलन, जन आंदोलन, हिंसा, अहिंसा: कुछ बातें

भारतीय राजनीति पर निहायत पिछड़ी चेतना की काली छाया बढ़ती चली गयी जो आज आरएसएस-भाजपा के भारतीय फासीवादी संस्करण के रूप में हमारे सामने मुंह बाये खड़ी है और इसका मुकाबला कैसे हो इस पर घोर असमंजस है।

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उनकी तुरबत पर नहीं है एक भी दीया, जिनके खूँ से जलते हैं ये चिरागे वतन…

मेरठ शहर से शुरू हुई क्रांति गांवों तक पहुंच गई थी। सभी अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़े हुए। मेरठ-बागपत जिलों की सीमा पर हिंडन नदी पुल और बागपत में यमुना नदी पुल को क्रांतिकारियों ने तोड़ दिया था। अंग्रेजों से संबंधित जो भी दफ्तर, कोर्ट, आवास व अन्य स्थल थे, वह फूंक डाले थे।

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आजादी के अमृत वर्ष में ‘क्रांतिकारियों के मास्साब’ को गुमनामी से निकालने के लिए आमरण अनशन

गेंदालाल दीक्षित और क्रांतिकारियों को लेकर काम करने वाले दस्तावेजी फ़िल्म निर्माता और अवाम का सिनेमा के जरिये क्रांतिकारियों और समाज की सही तस्वीर सामने लाने वाले शाह आलम अभियान शुरू कर रहे हैं।

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हर्फ़-ओ-हिकायत: जाति-वर्चस्व के खांचे में आजादी के नायकों को याद करने की राजनीति

मजिस्ट्रेट ने नाम पूछा तो तिवारी जी ने कहा- आजाद! मजिस्ट्रेट ने पूछा पिता का नाम तो तिवारी जी ने कहा- स्वतंत्रता! अब मजिस्ट्रेट ने पूछा घर का पता? तिवारी जी ने कहा- जेलखाना। तिवारी जी तब से चंद्रशेखर आजाद हो गए, लेकिन सौ साल बाद सोशल मीडिया के क्रांतिकारियों ने उन्हें तिवारी जी और पंडित जी घोषित कर दिया।

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भारतीय आधुनिकता, स्वधर्म और लोक-संस्कृति के एक राजनीतिक मुहावरे की तलाश

इस कड़वे सच को स्वीकार करना होगा कि पिछले 25-30 साल की हार, खासतौर से राम जन्मभूमि के आंदोलन के बाद की हार, सिर्फ चुनाव की हार नहीं है, सत्ता की हार नहीं है, बल्कि संस्कृति की हार है। हम अपनी सांस्कृतिक राजनीति की कमजोरियों की वजह से हारे हैं।

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राजनीतिक उत्प्रेरक के रूप में सांप्रदायिकता का इस्तेमाल और राष्ट्रीय आंदोलन से सबक

दुर्भाग्य से हमारे कुछ बुद्धिवादियों के पास साम्प्रदायिकता एक ऐसा बांड है जिसे वे कभी भी और कहीं भी भुना सकते हैं। साम्प्रदायिकता पर उनका इतना विशद अध्ययन है कि अब उनसे कोफ़्त होने लगी है क्योंकि पूरे भारतीय समाज की हर समस्या को वे साम्प्रदायिकता से कमतर आंकते हैं। यह भी कोई अच्छी स्थिति नहीं है।

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आदर्शों का लोप: राष्‍ट्रीय आंदोलन के दौरान भारत के भविष्‍य की परिकल्‍पना: संदर्भ नेहरू और गांधी

एक औद्योगीकृत देश के रूप में भारत के संवैधानिक उभार व विकास की अंग्रणी राष्‍ट्रवादियों द्वारा सराहना को गांधीजी पूर्णत: खारिज करते थे। उनका उद्घोष था कि ”बिना अंग्रेज़ों के अंग्रेज़ी शासन” की कोई जगह ही नहीं थी।

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वसंत राव और रजब अली: चौहत्तर बरस में गुमनाम हो गयी सेवा दल के जिगरी दोस्तों की साझा शहादत

विडम्बना ही है कि स्वाधीनता संग्राम के दो महान क्रांतिकारियों रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकउल्ला खान की दोस्ती एवं शहादत को याद दिलाती इस युवा जोड़ी की स्मृतियों को लेकर कोई खास सरगर्मी शेष मुल्क में नहीं दिख रही है। इसकी वजहें साफ हैं।

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