हमारी समस्या है नागरिक आज्ञाकारिता ! ‘बुलडोजर न्याय’ के दौर में हावर्ड जिन की याद

आज जब हमारे मुल्क में बुलडोजर (अ)न्याय का सामान्यीकरण हो चला है और संवैधानिक संस्थाएं भी इस मामले में औपचारिक कार्रवाई के आगे कदम नहीं उठाती दिख रही हैं, ऐसे समय में जनमानस को जगाने के लिए, उन्हें प्रेरित करने के लिए वे सभी जो न्याय, अमन और प्रगति के हक़ में हैं, उन्हें नई जमीन तोड़ने की जरूरत है। 

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बेदखली का गणतंत्र: G-20 के लिए सुन्दरीकरण के नाम पर उजाड़ी जा रही दिल्ली

महरौली आर्कियोलॉजिकल पार्क को संरक्षित करने के नाम पर दशकों से रह रहे निवासियों को बेदखल किया जा रहा है। लोगों को लंबे और महँगे क़ानूनी दाव-पेंच मे फंसाकर रखना एक पुरानी चाल है। इसी तरह तुग़लकाबाद के निवासियों को एएसआइ द्वारा मिला नोटिस लोगों की नींद उड़ा रहा है।

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बुलडोजर संस्कृति का राजनीतिक अर्थशास्त्र और असमानता की जटिल गुत्थी

जब असमानता को समझना इतना जटिल है तो उसे अपने सत्ता सुख के लिए बढ़ाना कहां से न्यायोचित है? यह देश ऐसा है जहां दो समुदायों के बीच द्वेष न हो इसलिए शिव ने हलाहल पान किया है। जिसे हम सुप्रीम सैक्रिफाइस कहते हैं वह महादेव ने किया। क्या हम उनके बलिदान को व्यर्थ जाने देंगे? मत भूलिए, इन्‍हीं सत्तानवीसों से मुक्ति के लिए कृष्ण ने इंद्र पूजा पर रोक लगायी और लोकतंत्र की स्थापना की थी। आप कृष्ण भक्त होकर कृष्ण का तिरस्कार मत कीजिए।

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संवैधानिक मूल्यों पर चलता संवेदनशून्य राजनीति का बुलडोज़र

देश का संविधान अपने स्वरूप में पूरी तरह से “राष्ट्रवादी” है जिसके पालन में ही देश का भविष्य है। किसी भी राजनीतिक दल का समर्थक या विरोधी हुआ जा सकता है, लेकिन यह भी याद रखने की जरूरत है कि जनता से राजनीतिक पार्टियों का वजूद तय होता है, न कि राजनीतिक पार्टियों से जनता का अस्तित्व।

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बात बोलेगी: लोकतंत्र का ‘बुलडोज़र’ पर्व

देश के अलग अलग हिस्सों में पाये जाने वाले बुलडोजरों को देखते हुए तो यही लगता है कि देश का विकास अगर कल को वाकई होता है तो उसमें किसी भी सरकार से ज़्यादा और बड़ा योगदान बुलडोज़र का ही होगा। विकास के कई-कई मकसदों और उद्देश्यों में बुलडोजर की सार्वभौमिक उपस्थिति ही अब एक मात्र सत्य है।

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