भगत सिंह की फांसी और महात्मा गांधी की जिम्मेदारी का सवाल

भगत सिंह के कार्यों को सही ठहराने की जिम्मेदारी कम से कम गांधी की नहीं थी। और साफ कहूं तो गांधी पर भगत सिंह को बचाने की कोई नैतिक जिम्मेदारी भी नहीं थी। न ही भगत सिंह ने गांधी की जानकारी में या गांधी से पूछकर अपनी राजनीतिक हिंसा की कार्यवाहियां की थीं। तो गांधी पर भगत सिंह को बचाने का नैतिक उत्तरदायित्व कहां से आ जाता है?

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किसान आंदोलन गवाह है कि गांधीजी की अहिंसा ही इस देश में सबसे कारगर और उपयोगी रास्ता है!

जब हम लोग गांधी के रास्ते पर ही चल सकते हैं तो हमें इस बात को खुलकर स्वीकार करना चाहिए। जब हम जान रहे हैं कि गोली चला कर या बम फेंककर अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुआ जा सकता, सिर्फ शहीद हुआ जा सकता है, तो फिर हमें यह बात स्वीकार करनी चाहिए कि आजादी के आंदोलन में महात्मा गांधी का रास्ता बाकी के लोगों के रास्ते से ज्यादा कारगर और उपयोगी था।

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राजनीतिक उत्प्रेरक के रूप में सांप्रदायिकता का इस्तेमाल और राष्ट्रीय आंदोलन से सबक

दुर्भाग्य से हमारे कुछ बुद्धिवादियों के पास साम्प्रदायिकता एक ऐसा बांड है जिसे वे कभी भी और कहीं भी भुना सकते हैं। साम्प्रदायिकता पर उनका इतना विशद अध्ययन है कि अब उनसे कोफ़्त होने लगी है क्योंकि पूरे भारतीय समाज की हर समस्या को वे साम्प्रदायिकता से कमतर आंकते हैं। यह भी कोई अच्छी स्थिति नहीं है।

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नौजवानों को लोहिया और भगत सिंह दोनों के विचारों से सीखने की जरूरत है : RMLSS

फासिस्ट ताकतों का मुकाबला करने के लिए आज भगत सिंह और डॉक्टर लोहिया के मार्ग पर चलना और उनके विचारों को फैलाने की जरूरत है।

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शहीद दिवस पर युवाओं ने भरी हुंकार- रोजगार बने मौलिक अधिकार!

संयुक्त किसान मोर्चा के देशव्यापी आवाहन पर भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव के शहादत दिवस के अवसर पर पूरे प्रदेश में युवा मंच ने युवा अधिकार दिवस मनाया। इस मौके पर रोजगार को मौलिक अधिकार बनाने, देश भर में 24 लाख से ज्यादा रिक्त पदों को तत्काल भरने, पारदर्शी, समयबद्ध व निशुल्क चयन प्रक्रिया और रोजगार सृजन की नीति बनाने की मांग उठाई गई।

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यदि आप भगत सिंह के तीसरे रिश्तेदार हैं, तो उनसे सीखने का यह सही वक्त है!

भगत सिंह का तीसरे रिश्तेदार वो है, जो शोषणविहीन समाज का सपना देखते हैं। जिन्हें अन्याय पल भर के लिए बर्दाश्त नहीं। अपने समय को जीते हुए हम किसी बड़े परिर्वतन की जरूरत शिद्दत से महसूस तो कर रहे हैं, शोर और नारों की क्षणिक उत्तेजना के बीच भगतसिंह तक नहीं पहुंचा जा सकता। अवसरवाद और मतलबपरस्त राजनीति के उलट-फेर में फंसे हम लोगों के लिए भगत सिंह के विचार रोडमैप की तरह है। इंकलाब से परिवर्तन तक पहुंचने के लिए पहले भगत सिंह को समझना होगा, सीखना होगा।

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आज के दौर में भगत सिंह को देखने का संदर्भ और दृष्टि क्या हो?

भगत सिंह का यह आह्वान काफी मूल्यवान है- खासकर ऐसे समय में, जब आज भी क्रान्तिकारी ताकतें दलितों पर होने वाले जातीय व व्यवस्था जनित उत्पीड़न के खिलाफ कोई कारगर हस्तक्षेप नहीं कर पा रही हैं।

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आज अपने चारों ओर बुने जा रहे झूठ से कैसे लड़ते भगत सिंह?

ब्रिटिश साम्राज्यवाद तो भगत सिंह को न डरा पाया न हरा पाया किन्तु वैज्ञानिकता की बुनियाद पर टिके आधुनिक भारत के निर्माण की भगत सिंह की संकल्पना से एकदम विपरीत एक अतार्किक, अराजक और धर्मांध भारत बनाने कोशिशों का मुकाबला वे किस तरह करते इसकी तो कल्पना ही की जा सकती है।

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अकेले वामपंथ ही क्यों है भगत सिंह की विरासत का असली दावेदार?

भगत सिंह को सब अपनाना चाहते हैं लेकिन भगत सिंह की वैचारिक विरासत का संवाहक एवं दावेदार वामपंथ है। भगत सिंह मसीहा नहीं थे और ना ही मसीहाई में विश्वास रखते थे। भगत सिंह में वर्गीय समझ थी जो तर्कपूर्ण अध्ययन से मिलती है।

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क्रांतिकारी सेनाएँ अब भी गांवों और कारखानों में हैं! भगत सिंह को याद करते हुए…

छोटी उम्र से ही उन्होंने आज़ादी के लिए संघर्ष किया और स्थापित ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिलाकर हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ गये। शहीद हो गये, लेकिन अपने पीछे क्रांति और निडरता की वह विचारधारा छोड़ गये जो आज तक युवाओं को प्रभावित करती है।

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