मजरूह लिख रहे हैं अहले वफ़ा के नाम, हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह…

ये बहार भी क्या बहार है जो सब कुछ बहा कर ले चली है! चाहे वो साहित्य हो, अस्मिता हो, साझापन हो या संस्कृति।

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काशी की सियासी तारीख के अहम किरदार और कम्युनिस्टों के गुरु कामरेड विशु दा

बनारस ही नहीं बल्कि वामपंथी दुनिया में उन्हें वैचारिकी का स्रोत समझा जाता था। एस.ए. डांगे, मोहित सेन, भूपेश गुप्त, इन्द्रजीत गुप्त, बी.डी.जोशी आदि के साथ पार्टी को मजबूत करने तथा जनांदोलनों की दशा और दिशा तय करने में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभायी। नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन अधिकारी तो कामरेड विश्वेश्वर मुखर्जी को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे।

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यह महज एक तस्वीर नहीं, राष्ट्र के रूप में शुरू हुए हमारे सफर का एक एहसास है…

ये तस्वीर साफ तौर पर ये भी संदेश देती है कि भारत अपने बुनियादी उसूलों स्वतंत्रता, समता,बन्धुता और इंसाफ के रास्ते का अडिग हमराही है। आजादी की लड़ाई के दौरान ये मूल्य परवान चढ़े और संविधान सभा मे ये तय हुआ कि भारतीय राष्ट्र न केवल इसे बनाये रखेगा बल्कि इसे इसमें बाधा पहुंचाने वाली ताकतों से सख्ती से निपटेगा भी।

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1857 के पुरबिया विद्रोहियों का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़

उम्मीद है साम्प्रदायिक होते समाज विशेषकर पूरबी उत्तर प्रदेश को फिर से पटरी पर लाने में यह पुस्तक मील का पत्थर साबित होगी। यह इस पुस्तक की अन्य प्रमुख विशेषताओं में से एक है। लेखक इसके लिए साधुवाद का पात्र हैं।

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आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न और सामाजिक रूप से न्यायपूर्ण भारत का इंदिरा का सपना अब भी बाकी है…

साम्प्रदायिकता, क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद, अलगाववाद तथा सामाजिक व्यवस्था के विचारहीन पहलू भारतीय एकता को तोड़ रहे थे। जहां उन्हें आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न भारत का निर्माण करना था, वहीं दूसरी ओर एक अभिशप्त सामाजिक व्यवस्था के स्थान पर न्यायपूर्ण व्यवस्था का सृजन करना था। श्रीमती गांधी ने जीवनपर्यन्त और प्राण देकर भी इसका निर्वहन किया।

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जिन्स-ए-उल्फ़त के एक इन्कलाबी तलबगार की आवाज़

उल्फत का ये शायर जिंदगी भर उल्फत के इंतजार में सूनी राह तकते-तकते इस फानी दुनिया से कूच कर गया पर अपने पीछे अदब का वो खज़ाना छोड़ गया जो उसे सदियों तक मरने नहीं देगा।

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जिसने अंग्रेज़ों से गाँधी जी की जान बचायी, उसे इतिहास ने भुला दिया!

गांधी की जान तो बच गयी लेकिन बतख मियां और उनके परिवार को बाद में इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। गांधी जी के जाने के बाद अंग्रेजों ने न केवल बतख मियां को बेरहमी से पीटा और सलाखों के पीछे डाला, बल्कि उनके छोटे से घर को ध्वस्त कर क़ब्रिस्तान बना दिया।

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क्रांतिकारी सेनाएँ अब भी गांवों और कारखानों में हैं! भगत सिंह को याद करते हुए…

छोटी उम्र से ही उन्होंने आज़ादी के लिए संघर्ष किया और स्थापित ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिलाकर हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ गये। शहीद हो गये, लेकिन अपने पीछे क्रांति और निडरता की वह विचारधारा छोड़ गये जो आज तक युवाओं को प्रभावित करती है।

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…वरना इतिहास कांग्रेस को अपने पन्नों में समेट लेगा!

राहुल गांधी क्रमशः नेहरू की ओर लौटते हुए नज़र आ रहे हैंं। नेहरू जैसी ही संयम भाषा और समस्याओं पर वैज्ञानिक दृष्टि उनमें परिलक्षित अवश्य हो रही है पर जब तक प्रतिबद्ध कार्यकर्ता, प्रशिक्षित नेता और विचारवान नेतृत्व नही रहेगा, सिंधिया और पायलट जैसे लोग ही पैदा होंगे जिन्हें पार्टी में बनाये रखने में ही पूरी ऊर्जा खर्च करनी पड़ेगी।

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“बनारस में रह कर मैं बनारस से कितना दूर था और गिरीश कितने पास”!

बात 1990 के दशक की है जब मैं प्रो. इरफ़ान हबीब के एक आमंत्रण पर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास, उच्च अध्ययन केंद्र में एक माह की विज़िटरशिप के लिए …

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