कहा जा सकता है जिन दिनों हिंदी कहानी घुटनों के बल सरक रही थी तब चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की मात्र तीन कहानियां पांव के बल चलकर चौकड़ी भरने में समर्थ थीं। हिंदी कथा जगत में गुलेरी जी मात्र तीन कहानियां लिखकर अमर हो गये। उनकी कहानी ‘उसने कहा था’ आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी अपने समय में रही। किशोर प्रेम और त्याग की यह अनुपम कृति है। इस कहानी के सभी चरित्र बेहद जीवंत और प्रभावी हैं। इसमें युद्ध के समय सैनिकों की मनःस्थिति का अद्भुत चित्रण हुआ है। यह अपने समय की विरल कथाकृति है। जाहिर है हिंदी कथा साहित्य को गुलेरी जी ने नयी दिशा और नये आयाम प्रदान किए।
गुलेरी जी का जन्म 7 जुलाई, 1883 को हुआ था। उनकी ख्याति प्रकांड विद्वान के रूप में थी। गुलेरी जी के पूर्वज मूलत: हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के गुलेर के निवासी थे। उनके पिता पंडित शिवराम शास्त्री आजीविका के सिलसिले में जयपुर चले गये। अपने अध्ययनकाल में ही उन्होंने सन् 1900 में जयपुर में नागरी मंच की स्थापना में योग दिया और सन् 1902 से मासिक पत्र ‘समालोचक’ के सम्पादन का भार सँभाला। प्रसंगवश कुछ वर्ष काशी की नागरी प्रचारिणी सभा के सम्पादक मंडल में भी उन्हें सम्मिलित किया गया। उन्होंने देवी प्रसाद ऐतिहासिक पुस्तकमाला और सूर्य कुमारी पुस्तकमाला का सम्पादन किया और नागरी प्रचारिणी पुस्तकमाला और सूर्य कुमारी पुस्तकमाला का सम्पादन किया और नागरी प्रचारिणी सभा के सभापति भी रहे। संस्कृत, पालि, प्राकृत, हिंदी, बांग्ला, अंगरेजी, लैटिन और फ्रेंच भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ थी। वह उच्च कोटि के निबंधकार और प्रखर समालोचक भी थे। गुलेरी जी ने अध्ययन और स्वाध्याय के द्वारा हिन्दी और अँग्रेज़ी के अतिरिक्त संस्कृत, प्राकृत, बांग्ला, मराठी आदि का ही नहीं जर्मन तथा फ्रेंच भाषाओं का ज्ञान भी हासिल किया था। उनकी रुचि का क्षेत्र भी बहुत विस्तृत था और धर्म, ज्योतिष इतिहास, पुरातत्त्व, दर्शन, भाषाविज्ञान, शिक्षाशास्त्र और साहित्य से लेकर संगीत, चित्रकला, लोककला, विज्ञान और राजनीति तथा समसामयिक सामाजिक स्थिति तथा रीति-नीति तक फैला हुआ था।
बीस वर्ष की उम्र के पहले ही उन्हें जयपुर की वेधशाला के जीर्णोद्धार तथा उससे सम्बन्धित शोधकार्य के लिए गठित मण्डल में चुन लिया गया था और कैप्टन गैरेट के साथ मिलकर उन्होंने “द जयपुर ऑब्ज़रवेटरी एण्ड इट्स बिल्डर्स” शीर्षक से अंग्रेज़ी ग्रन्थ की रचना की। उनकी अभिरुचि और सोच को गढ़ने में स्पष्ट ही इस विस्तृत पटभूमि का प्रमुख हाथ था और इसका परिचय उनके लेखन की विषयवस्तु और उनके दृष्टिकोण में बराबर मिलता रहता है। सन् 1904 में गुलेरी जी अजमेर के मेयो कॉलेज में अध्यापकी करने लगे। अध्यापक के रूप में उनका बड़ा मान-सम्मान था। अपने शिष्यों में वह लोकप्रिय तो थे ही, अनुशासन और नियमों का भी वह सख्ती से अनुपालन करते थे। उनकी आसाधारण योग्यता से प्रभावित होकर पंडित मदनमोहन मालवीय ने उन्हें बनारस बुलाया और बनारस हिंदू युनिवर्सिटी में प्रोफेसर का पद दिलाया।
निबंधकार के रूप में गुलेरी जी प्रसिद्ध रहे हैं। उन्होंने सौ से अधिक निबंध लिखे हैं। सन् 1903 में जयपुर से ‘समालोचक’ पत्रिका प्रकाशित होने लगी, जिसके वह संपादक रहे। गुलेरी जी पत्र-लेखक के रूप में भी सिद्धहस्त थे। द्विवेदी युग के विशिष्ट साहित्यकारों- बाबू श्यामसुंदर दास, गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी, राय कृष्णदास, अम्बिका प्रसाद वाजपेयी, मुंशी देवी प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, महावीर प्रसाद द्विवेदी, कामता प्रसाद गुरु और मैथिलीशरण गुप्त के साथ गुलेरी जी का पत्र आदान-प्रदान होता था। इन पत्रों से गुलेरी जी की शोध विषयक जिज्ञासा और साहित्य की हर विधा की पकड़ का ठोस प्रमाण मिलता है। गुलेरी जी कवि भी थे, यह बहुत कम लोग जानते हैं। ‘एशिया की विजय दशमी’, ‘भारत की जय’, ‘आहिताग्नि’, ‘झुकी कमान’, ‘स्वागत’, ‘ईश्वर से प्रार्थना’ और ‘सुनीति’ इनकी कतिपय श्रेष्ठ कविताएं हैं। ये रचनाएं गुलेरी विषयक संपादित ग्रंथों में संकलित हैं। उनकी उपलब्ध खड़ी बोली की कविताओं में राष्ट्रीय जागरण और उद्बोधन का स्वर अधिक मुखर हुआ है। अपनी रचनाओं में उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की कटु आलोचना की थी। उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं में जमकर लिखा, मगर उन्हें ख्याति कथाकार के रूप में मिली।
उनकी लिखी तीन कहानियां ही प्रामाणिक हैं- ‘सुखमय जीवन’, ‘बुद्धू का कांटा’ तथा ‘उसने कहा था’। इन तीनों में ‘उसने कहा था’ सर्वाधिक चर्चित हुई। यह कहानी सन् 1915 में ‘सरस्वती’ पत्रिका में छपी थी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस कहानी की प्रशंसा करते हुए अपने इतिहास की पुस्तक में लिखा है- “घटना उसकी ऐसी है जैसी बराबर हुआ करती है, पर उसके भीतर से प्रेम का एक स्वर्गीय स्वरूप झांक रहा है। केवल झांक रहा है। निर्लज्जता के साथ पुकार या कराह नहीं रहा। इसकी घटनाएं ही बोल रही हैं, पात्रों के बोलने की अपेक्षा नहीं।” कथाकार गुलेरी की कहानियों की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि वह युग से आगे बढ़कर अपनी कहानियों में रोमांस और सेक्स को ले आए। उस आदर्शवादी युग में इस प्रकार का वर्णन समाज को स्वीकार्य नहीं था, परंतु वह सेक्स के नाम पर झिझकने वाले पंडितों में से नहीं थे। उन्होंने जीवन के यथार्थ का खुलकर वर्णन किया। उनके लेखन की रोचकता उसकी प्रासंगिकता के अतिरिक्त उसकी प्रस्तुति की अनोखी भंगिमा में भी निहित है। उस युग के कई अन्य निबन्धकारों की तरह गुलेरी जी के लेखन में भी मस्ती तथा विनोद भाव एक अन्तर्धारा लगातार प्रवाहित होती रहती है। धर्म, सिद्धान्त, अध्यात्म आदि जैसे कुछ एक गम्भीर विषयों को छोड़कर लगभग हर विषय के लेखन में यह विनोद भाव प्रसंगों के चुनाव में भाषा के मुहावरों में उद्धरणों और उक्तियों में बराबर झंकृत रहता है। जहां आलोचना कुछ अधिक भेदक होती है, वहां यह विनोद व्यंग्य में बदल जाता है- जैसे शिक्षा, सामाजिक, रूढ़ियों तथा राजनीति-सम्बन्धी लेखों में गुलेरी जी की रचनाएँ कभी गुदगुदाकर, कभी झकझोरकर पाठक की रुचि को बाँधे रहती हैं।
उनका सरोकार अपने समय के केवल भाषिक और साहित्यिक आन्दोलनों से ही नहीं, उस युग के जीवन के हर पक्ष से था। किसी भी प्रसंग में जो स्थिति उनके मानस को आकर्षित या उत्तेजित करती थी, उस पर टिप्पणी किये बगैर वे रह नहीं पाते थे। ये टिप्पणियां उनके सरोकारों, कुशाग्रता और नज़रिये के खुलेपन की गवाही देती हैं। अनेक प्रसंगों में गुलेरी जी अपने समय से इतना आगे थे कि उनकी टिप्पणियां आज भी हमें अपने चारों ओर देखने और सोचने को मज़बूर करती हैं।
अपने 39 वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में गुलेरी जी ने किसी स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना तो नहीं कि किन्तु फुटकर रूप में बहुत लिखा, अनगिनत विषयों पर लिखा और अनेक विधाओं की विशेषताओं और रूपों को समेटते-समंजित करते हुए लिखा। उनके लेखन का एक बड़ा हिस्सा जहां विशुद्ध अकादमिक अथवा शोधपरक है, उनकी शास्त्रज्ञता तथा पाण्डित्य का परिचायक है, वहीं उससे भी बड़ा हिस्सा उनके खुले दिमाग, मानवतावादी दृष्टि और समकालीन समाज, धर्म, राजनीति आदि से गहन सरोकार का परिचय देता है। लोक से यह सरोकार उनकी ‘पुरानी हिन्दी’ जैसी अकादमिक और ‘महर्षि च्यवन का रामायण’ जैसी शोधपरक रचनाओं तक में दिखायी देता है। बाल-विवाह के विरोध और स्त्री-शिक्षा के समर्थन के साथ ही आज से सौ साल पहले उन्होंने बालक-बालिकाओं के स्वस्थ चारित्रिक विकास के लिए सहशिक्षा को आवश्यक माना था। ये सब आज हम शहरी जनों को इतिहास के रोचक प्रसंग लग सकते हैं किन्तु पूरे देश के सन्दर्भ में, यहां फैले अशिक्षा और अन्धविश्वास के माहौल में गुलेरी जी की बातें आज भी संगत और विचारणीय हैं।
भारतवासियों की कमज़ोरियाँ का वे लगातार ज़िक्र करते रहते हैं- विशेषकर सामाजिक राजनीतिक सन्दर्भों में। हमारे अधःपतन का एक कारण आपसी फूट है- ‘‘यह महाद्वीप एक दूसरे को काटने को दौड़ती हुई बिल्लियों का पिटारा है’’ (डिनामिनेशन कॉलेज: 1904)। जाति-व्यवस्था भी हमारी बहुत बड़ी कमज़ोरी है। गुलेरी जी सबसे मन की संकीर्णता त्यागकर उस भव्य कर्मक्षेत्र में आने का आह्वान करते हैं जहां सामाजिक जाति भेद नहीं, मानसिक जातिभेद नहीं और जहां जातिभेद है तो कार्य व्यवस्था के हित (वर्ण विषयक कतिपय विचार: 1920)। अर्थहीन कर्मकाण्डों और ज्योतिष से जुड़े अन्धविश्वासों का वे जगह-जगह ज़ोरदार खण्डन करते हैं। केवल शास्त्रमूलक धर्म को वे बाह्यधर्म मानते हैं। धर्म का अर्थ उनके लिए ‘‘सार्वजनिक प्रीतिभाव है’’ ‘‘जो साम्प्रदायिक ईर्ष्या-द्वेष को बुरा मानता है’’ (श्री भारतवर्ष महामण्डल रहस्य: 1906)।
उनके अनुसार उदारता, सौहार्द और मानवतावाद ही धर्म के प्राणतत्त्व होते हैं और इस तथ्य की पहचान बेहद ज़रूरी है-
आजकल वह उदार धर्म चाहिए जो हिन्दू, सिक्ख, जैन, पारसी, मुसलमान, कृस्तान सबको एक भाव से चलावै और इनमें बिरादरी का भाव पैदा करे, किन्तु संकीर्ण धर्मशिक्षा…(आदि) हमारी बीच की खाई को और भी चौड़ी बनाएंगे।
डिनामिनेशनल कॉलेज: 1904
धर्म को गुलेरी जी बराबर कर्मकाण्ड नहीं बल्कि आचार-विचार, लोक-कल्याण और जन-सेवा से जोड़ते रहे। इन बातों के अतिरिक्त गुलेरी जी के विचारों की आधुनिकता भी हमसे आज उनके पुनराविष्कार की मांग करती है। वह बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। ऐसे बहुमुखी प्रतिभासंपन्न साहित्यकार का 39 वर्ष की अल्पायु में 12 सितंबर 1922 को काशी में निधन हो गया।
(कवर तस्वीर 1960 में गुलेरी की कहानी पर बनी फिल्म ‘उसने कहा था’ का एक दृश्य)